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काशी में 358 सालों से निभाई जा रही माता पार्वती के गौने की परंपरा, जानिए क्या है रस्म..

एकादशी पर माता पार्वती के गौने की रस्म पारंपरिक रूप से निभाई जाती है. इस अद्भुद कार्यक्रम का साक्षी बनने के लिए काशी ही नहीं, देशभर से लोग बनारस पहुंचते हैं. भक्तों के कंधे पर रजत पालकी में सवार होकर निकलने वाले बाबा भोलेनाथ, माता पार्वती और भगवान गणेश की प्रतिमा पर पहला गुलाल चढ़ाकर अपनी होली की शुरुआत करते हैं. आइए काशी की इस सैकड़ों साल पुरानी परंपरा के बारे में जानते है.

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माता पार्वती के गौने की परंपरा,
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Published : Mar 12, 2022, 6:44 PM IST

वाराणसी. काशी, वह अद्भुत शहर है जहां आकर धर्म और आस्था भी अपनी असली पहचान और शोभा पाते हैं. यहां के 7 वार और 9 त्यौहार की अद्भुत परंपरा सदियों से काशी को अनूठा और अलग बनाती रही है. महाशिवरात्रि पर बाबा भोलेनाथ के शादी विवाह की रस्म के बारे में तो सुना होगा लेकिन काशी में महाशिवरात्रि पर्व के बाद होली के पहले अमला एकादशी यानी फागुन के महीने में पड़ने वाली एकादशी पर माता पार्वती के गौने की रस्म को अदा करने की परंपरा निभाई जाती है.

इसका साक्षी बनने के लिए काशी ही नहीं बल्कि देशभर से लोग बनारस पहुंचते हैं. भक्तों के कंधे पर रजत पालकी में सवार होकर निकलने वाले बाबा भोलेनाथ, माता पार्वती और भगवान गणेश की प्रतिमा पर पहला गुलाल चढ़ाकर अपनी होली की शुरुआत करते हैं.

माता पार्वती के गौने की परंपरा

वैसे तो काशी के बारे में कहा जाता है कि 'काश्याम मरण्याम मुक्ति' यानी काशी में मरने से मोक्ष मिलता है. इस मोक्ष की नगरी में बाबा भोलेनाथ खुद मृत्यु शैया पर मौजूद व्यक्ति के कानों में तारक मंत्र देकर उसे मोक्ष की राह पर अग्रसर करते हैं. मोक्ष की इस नगरी को जिंदा शहर बनारस भी कहते हैं जहां की जिंदादिली की मिसाल हर कोई देता है. जब बात अमला एकादशी यानी रंगभरी एकादशी की हो तो बाबा भोलेनाथ अपने परिवार के साथ भक्तों के लिए गलियों और सड़कों पर निकल कर होली का आनंद लेते हुए एक अलग ही नजारा पेश करते हैं.

जी हां, 14 मार्च को वाराणसी में अमला एकादशी यानी रंगभरी एकादशी के मौके पर भोलेनाथ और माता पार्वती के गौने की रस्म अदा की जाएगी. इस परंपरा की शुरुआत 358 साल पहले काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत परिवार की तरफ से शुरू की गई थी. इसे आज भी निभाया जा रहा है. मान्यता है कि अमला एकादशी के दिन ही भगवान भोलेनाथ माता पार्वती की विदाई कराकर उन्हें कैलाश पर्वत लेकर गए थे.

काशी में इस परंपरा का साक्षी बनाने के लिए महंत आवास को उस दिन माता पार्वती के मायके के रूप में स्थापित किया जाता है. यहीं से भगवान भोलेनाथ माता पार्वती और उनके गोद में भगवान गणेश की रजत प्रतिमा जो साल में सिर्फ एक बार भक्तों के दर्शन के लिए मौजूद होती है. उसे रजत सिंहासन पर बैठाकर पालकी के रूप में लेकर भक्त गलियों से होते हुए बाबा विश्वनाथ के दरबार में पहुंचते हैं.

यह भी पढ़ें:काशी में शुरू हुई शिव-पार्वती के गौने की रस्म, हल्दी तेल लगाकर महिलाओं ने गाये मंगल गीत


बाबा विश्वनाथ मंदिर को कैलाश पर्वत का रूप माना जाता है. होली के दिन भक्त माता पार्वती की विदाई के साथ भगवान गणेश पर पहला गुलाल चढ़ाकर काशी में होली खेलने की शुरुआत करते हैं. ऐसी मान्यता है कि अपनी होली को शुभ बनाने और पूरे साल भोलेनाथ का आशीर्वाद पाने के लिए भक्त इस परंपरा का निर्वहन करते हैं. उस दिन अद्भुत रूप से काशी पूरी तरह से होली के रंग में रंगी नजर आती है. पूरे हक़ के साथ हर कोई अपने आराध्य पर पहला गुलाल चढ़ाना चाहता है. इसकी वजह से यहां लाखों की भीड़ गलियों में उमड़ती है. नमः पार्वती पतये हर-हर महादेव के जयघोष के साथ काशी में होली का उल्लास अपने चरम पर पहुंच जाता है.


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वाराणसी. काशी, वह अद्भुत शहर है जहां आकर धर्म और आस्था भी अपनी असली पहचान और शोभा पाते हैं. यहां के 7 वार और 9 त्यौहार की अद्भुत परंपरा सदियों से काशी को अनूठा और अलग बनाती रही है. महाशिवरात्रि पर बाबा भोलेनाथ के शादी विवाह की रस्म के बारे में तो सुना होगा लेकिन काशी में महाशिवरात्रि पर्व के बाद होली के पहले अमला एकादशी यानी फागुन के महीने में पड़ने वाली एकादशी पर माता पार्वती के गौने की रस्म को अदा करने की परंपरा निभाई जाती है.

इसका साक्षी बनने के लिए काशी ही नहीं बल्कि देशभर से लोग बनारस पहुंचते हैं. भक्तों के कंधे पर रजत पालकी में सवार होकर निकलने वाले बाबा भोलेनाथ, माता पार्वती और भगवान गणेश की प्रतिमा पर पहला गुलाल चढ़ाकर अपनी होली की शुरुआत करते हैं.

माता पार्वती के गौने की परंपरा

वैसे तो काशी के बारे में कहा जाता है कि 'काश्याम मरण्याम मुक्ति' यानी काशी में मरने से मोक्ष मिलता है. इस मोक्ष की नगरी में बाबा भोलेनाथ खुद मृत्यु शैया पर मौजूद व्यक्ति के कानों में तारक मंत्र देकर उसे मोक्ष की राह पर अग्रसर करते हैं. मोक्ष की इस नगरी को जिंदा शहर बनारस भी कहते हैं जहां की जिंदादिली की मिसाल हर कोई देता है. जब बात अमला एकादशी यानी रंगभरी एकादशी की हो तो बाबा भोलेनाथ अपने परिवार के साथ भक्तों के लिए गलियों और सड़कों पर निकल कर होली का आनंद लेते हुए एक अलग ही नजारा पेश करते हैं.

जी हां, 14 मार्च को वाराणसी में अमला एकादशी यानी रंगभरी एकादशी के मौके पर भोलेनाथ और माता पार्वती के गौने की रस्म अदा की जाएगी. इस परंपरा की शुरुआत 358 साल पहले काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत परिवार की तरफ से शुरू की गई थी. इसे आज भी निभाया जा रहा है. मान्यता है कि अमला एकादशी के दिन ही भगवान भोलेनाथ माता पार्वती की विदाई कराकर उन्हें कैलाश पर्वत लेकर गए थे.

काशी में इस परंपरा का साक्षी बनाने के लिए महंत आवास को उस दिन माता पार्वती के मायके के रूप में स्थापित किया जाता है. यहीं से भगवान भोलेनाथ माता पार्वती और उनके गोद में भगवान गणेश की रजत प्रतिमा जो साल में सिर्फ एक बार भक्तों के दर्शन के लिए मौजूद होती है. उसे रजत सिंहासन पर बैठाकर पालकी के रूप में लेकर भक्त गलियों से होते हुए बाबा विश्वनाथ के दरबार में पहुंचते हैं.

यह भी पढ़ें:काशी में शुरू हुई शिव-पार्वती के गौने की रस्म, हल्दी तेल लगाकर महिलाओं ने गाये मंगल गीत


बाबा विश्वनाथ मंदिर को कैलाश पर्वत का रूप माना जाता है. होली के दिन भक्त माता पार्वती की विदाई के साथ भगवान गणेश पर पहला गुलाल चढ़ाकर काशी में होली खेलने की शुरुआत करते हैं. ऐसी मान्यता है कि अपनी होली को शुभ बनाने और पूरे साल भोलेनाथ का आशीर्वाद पाने के लिए भक्त इस परंपरा का निर्वहन करते हैं. उस दिन अद्भुत रूप से काशी पूरी तरह से होली के रंग में रंगी नजर आती है. पूरे हक़ के साथ हर कोई अपने आराध्य पर पहला गुलाल चढ़ाना चाहता है. इसकी वजह से यहां लाखों की भीड़ गलियों में उमड़ती है. नमः पार्वती पतये हर-हर महादेव के जयघोष के साथ काशी में होली का उल्लास अपने चरम पर पहुंच जाता है.


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