लखनऊ : सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के समाजवादी पार्टी से रिश्ते हाशिए पर हैं. उन्होंने संकेत दिए हैं कि अब वह बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन कर सकते हैं. सवाल उठता है कि जिन मुद्दों को लेकर ओम प्रकाश राजभर सपा के खिलाफ मुखर आलोचक रहे हैं, वही ऐब तो बसपा प्रमुख मायावती में भी हैं. ऐसे में राजभर पर दोहरे मानदंड अपनाने और अपने हितों के लिए गठबंधन के दलों पर अनावश्यक दबाव बनाने के आरोप तो लगेंगे ही. सवाल यह है कि आखिर राजभर चाहते क्या हैं? क्या उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनकी विश्वसनीयता खत्म नहीं होती जा रही?
राजभर की राजनीति के विषय में जानने के लिए यह जरूरी है कि पहले उनके अतीत पर नजर डाल ली जाए. बसपा नेता कांशीराम से प्रभावित रहे ओम प्रकाश राजभर ने 1981 में राजनीति में कदम रखा और लगभग बीस साल तक दलितों और वंचित समाज की राजनीति करते रहे. इसके बाद वह मायावती से नाराज हुए और अपना दल में शामिल हो गए. हालांकि वह यहां ज्यादा दिन टिक नहीं पाए. ओम प्रकाश राजभर को लगा कि अब उन्हें अपनी पार्टी बना लेनी चाहिए, जिसके बाद उन्होंने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठन किया था.
पार्टी बनाने के बाद 2004 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने अपनी पार्टी से उत्तर प्रदेश की 14 और बिहार की एक सीट से उम्मीदवार उतारा, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. इसके बावजूद राजभर ने चुनाव लड़ना नहीं छोड़ा और वह लगातार हर चुनाव में भागीदारी करते रहे. 2017 के पहले तक उन्हें किसी भी चुनाव में कोई सफलता नहीं मिली. हालांकि इस दौरान लगातार चुनाव लड़ने के कारण उनकी एक जुझारू राजभर नेता के रूप में पहचान जरूर बन गई थी. पूर्वांचल में ओपी राजभर की राजभर समाज में अच्छी पकड़ होने के साथ ही उन्होंने खुद को एक कुशल वक्ता के रूप में भी स्थापित कर लिया.
सत्ता में आने के लिए भाजपा ने 2017 में छोटे दलों और जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं से गठबंधन की मुहिम शुरू की. इस दौरान भाजपा ने ओपी राजभर की सुभासपा से भी गठबंधन करने का फैसला किया. भाजपा ने सुभासपा को आठ विधानसभा सीटें दीं, जिनमें वह चार पर जीतने में सफल रही. इसके बाद सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के अरमानों को पंख लग गए. योगी आदित्यनाथ सरकार में राजभर को मंत्री पद से नवाजा गया. सरकार गठन के कुछ दिन बाद ही अति महत्वाकांक्षी राजभर ने एक के बाद एक मांगें शुरू कर दीं. इन मांगों के लिए वह सरकार और भाजपा पर दबाव भी बनाने लगे. वह पार्टी के लिए लखनऊ में एक अच्छा कार्यालय और पुत्र समेत अपने नेताओं को मंत्री का दर्जा चाहते थे. मांगें पूरी होती न देख वह सार्वजनिक तौर पर अपनी ही सरकार की आलोचना करने लगे. दो साल सरकार में रहने के दौरान वह भाजपा और सरकार के खिलाफ मुखर रहे. वह 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में पार्टी के लिए आधा दर्जन सीटों की मांग करने लगे.
आखिर मई 2019 को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सिफारिश पर राजभर को मंत्रिपरिषद से बर्खास्त कर दिया गया. यही नहीं सुभासपा के लगभग आधा दर्जन नेताओं को विभिन्न आयोगों और निगमों में दिए गए पदों से भी हटा दिया गया. जिन नेताओं को उनके पदों से हटाया गया उनमें ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर भी शामिल थे. इसके बाद राजभर ने गठबंधन से अलग होकर 2019 के लोकसभा चुनाव में 39 सीटों पर अपनी पार्टी के प्रत्याशी उतार दिए. हालांकि भाजपा को इसका कोई खास नुकसान नहीं रहा. राजभर की पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई.
प्रदेश में बारह प्रतिशत राजभर आबादी सुभासपा की ताकत है. वहीं पूर्वांचल में राजभरों की संख्या बाइस फीसद तक मानी जाती है. अतीत के अनुभवों से ओम प्रकाश राजभर यह जान चुके थे कि अकेले राजभर वोटों के सहारे उनकी नैया पार नहीं लग सकती. इसलिए 2022 के चुनावों में उन्होंने समाजवादी पार्टी से समझौता किया. उनका आकलन था कि सपा सत्ता में आएगी और वह अखिलेश यादव पर दबाव बनाकर वह सब करा पाएंगे, जो भाजपा गठबंधन में नहीं कर सके. सपा गठबंधन में उन्हें 18 सीटें मिलीं, जिनमें वह छह पर ही जीत हासिल कर सके. ओम प्रकाश राजभर अपने बेटे अरविंद राजभर को भी चुनाव नहीं जिता सके.
2022 के विधानसभा चुनावों के बाद कई ऐसे विषय थे, जो ओपी राजभर को परेशान करते रहे. उनका पहला सपना था सत्ता में आने का, जो चूर-चूर हो गया. अपने ही विश्लेषण ने उन्हें विपक्ष में बैठने को मजबूर कर दिया. दूसरी बात, राजभर को लगता था कि वह अपने बेटे को सपा पर दबाव बनाकर विधान परिषद भेजने में कामयाब हो जाएंगे. अखिलेश ने उनका यह सपना भी तोड़ दिया. राज्यसभा टिकट की मांग पर सपा ने गौर ही नहीं किया. ऐसे में उन्हें साफ दिखाई दे रहा है कि सपा के साथ रहकर उन्हें कुछ भी नहीं मिलने वाला है. इसलिए वह तरह-तरह की बयानबाजी कर रहे हैं. राजभर बसपा से गठबंधन करने की बातें भले ही कर रहे हों, लेकिन इस बात में कोई दम दिखाई नहीं देता.
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बसपा प्रमुख मायावती भी एसी में बैठकर राजनीति करती हैं और चुनावों को छोड़कर बहुत कम जनता के बीच जाती हैं. अखिलेश यादव की तरह ही मायावती ने भी हालिया लोक सभा उप चुनावों में प्रचार नहीं किया. यही नहीं मायावती किसी भी दल या नेता के दबाव में कभी नहीं आतीं. राजभर की दबाव की राजनीति बसपा के साथ तो कतई नहीं चलने वाली है. इसलिए 2024 से पहले वह फिर भाजपा के साथ जा सकते हैं, क्योंकि भाजपा केंद्र और राज्य दोनों जगह मजबूत है. वह स्थिति में भी है कि राजभर की कुछ मांगें मानकर उन्हें सत्ता का सुख भोगने दे. इसलिए लोकसभा चुनाव के पहले तक राजभर जितना संभव होगा, सपा को नुकसान पहुंचाते रहेंगे और मौका पाते ही पाला बदल लेंगे.
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