लखनऊ : ज्वार, बाजरा, कोदो और सावां जैसे मोटे (मिलेट्स) अनाज कभी आम भारतीय की थाली का अनिवार्य हिस्सा रहे हैं. हालांकि धीरे-धीरे यह लुप्त से होने लगे. गेहूं की रोटी ने लोगों को इन मोटे अनाजों से लोगों को दूर कर दिया. हाल यह है कि अब गांव-गिरांव में भी लोग मोटे अनाज खाना पसंद नहीं करते. हालांकि धीरे-धीरे लोगों में जागरूकता बढ़ी है और लोग जानने लगे हैं कि इन्हीं मोटे अनाजों में ही सेहत का खजाना छिपा है. खास बात यह है कि इन मोटे अनाजों को पानी की भी खास जरूरत नहीं होती है. उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष 2023 (international meet year) की घोषणा भारत के ही प्रस्ताव पर की है. इस लिहाज से इसमें भारत खासकर कृषि बहुल उत्तर प्रदेश की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. वैसे भारत 2018 को मिलेट वर्ष के रूप में मना चुका है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Chief Minister Yogi Adityanath) के निर्देश पर कृषि विभाग ने अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष (international meet year) में मोटे अनाजों के प्रति किसानों एवं लोगों को जागरूक करने के लिए व्यापक कार्ययोजना तैयार की है.
वैज्ञानिक बताते हैं कि कोदो में चावल से तीन गुना अधिक कैल्सियम और सावां में चावल की तुलना में तीन गुना से अधिक फास्फोरस होता है. वहीं ज्वार में पोषक तत्त्वों के लिहाज से प्रचुर मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और फाइबर होता है. लगभग हर तरह की विटामिन, कैल्शियम, आयरन, जिंक, कॉपर और फास्फोरस की मौजूदगी इसे और खास बनाती है. इसी वजह से इसे भी बाजरा की तरह सुपरफूड कहा जाता है. गौरतलब है कि मोटे अनाजों की खेती को बढ़ावा देने के लिए योगी सरकार राज्य स्तर पर कार्यशालाएं आयोजित करा रही है. यहां विशेषज्ञ किसानों को मोटे अनाज की खेती के उन्नत तरीकों, भंडारण एवं प्रसंस्करण के बारे में प्रशिक्षित करेंगे. जिलों में भी इसी तरह के प्रशिक्षण कर्यक्रम चलाए जाने की योजना है.
बात यदि ज्वार की करें तो डायरेक्टरेट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड स्टैटिक्स मिनिस्ट्री ऑफ एग्रीकल्चर के 2013 से 2016 तक के आंकड़ों के अनुसार, भारत में ज्वार की प्रति हेक्टेयर प्रति क्विंटल उपज 870 किलो ग्राम है. इस दौरान उत्तर प्रदेश की औसत उपज 891 किलो ग्राम रही है. इस दौरान सर्वाधिक 1814 किग्रा की उपज आंध्र प्रदेश की रही. कृषि विभाग के अद्यतन आंकड़ों के अनुसार 2022 में उत्तर प्रदेश में इसकी उपज बढ़कर 1643 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गई. बावजूद इसके यह शीर्ष उपज लेने वाले आंध्र प्रदेश से कम है. उपज का यही अंतर उत्तर प्रदेश के लिए संभावना भी है. खेती के उन्नत तरीके, अच्छी प्रजाति के बीजों की बोआई से इस गैप को भरा जा सकता है. अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष का मकसद भी यही है. उपज के साथ पिछले तीन साल से ज्वार का उत्पादन और रकबे का लगातार बढ़ना प्रदेश के लिए एक शुभ संकेत माना जा रहा है.
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उल्लेखनीय है कि मोटे अनाजों (मिलेट्स) में बाजरा के बाद ज्वार दूसरी प्रमुख फसल है. यह खाद्यान्न एवं चारा दोनों रूपों में उपयोगी है. इसके लिए सिर्फ 40-60 सेंटीमीटर पानी की जरूरत होती है. लिहाजा इसकी फसल सिर्फ वर्षा के सहारे असिंचित क्षेत्र में भी ली जा सकती है. ज्वार की खूबियां यहीं खत्म नहीं होतीं, इसकी खेती किसी तरह की भूमि में की जा सकती है. बस उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था होनी चाहिए. इसके लिए खेत की भी खास तैयारी नहीं करनी होती. रोगों के प्रति प्रतिरोधी होने के कारण इसमें कीटनाशकों की जरूरत नहीं पड़ती. कुल मिलाकर गेहूं, धान और गन्ना की तुलना में यह बिना लागत की खेती है.
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