लखनऊ : अभिभावक बच्चों की जान जोखिम में डाल रहे हैं. बच्चों की जिद हो या अभिभावकों का प्यार कहीं न कहीं ये घातक साबित हो रहा है. दरअसल, बात हो रही है मासूमों के हाथों में उपहार के तौर पर दो पहिया वाहन थमा देने की. राजधानी में शायद ही कोई ऐसा स्कूल या कॉलेज हो जहां पर नाबालिग 50 सीसी से अधिक की क्षमता वाले दो पहिया वाहन लेकर स्कूल न आते हों. जाहिर सी बात है कि ये ऐसे छात्र हैं जिनके पास ड्राइविंग लाइसेंस है ही नहीं. बिना ड्राइविंग लाइसेंस के ही जीवन को खतरे में डालकर छात्र स्कूल आ रहे हैं. इसमें सबसे पहले अभिभावकों की लापरवाही उजागर हो रही है. इसमें परिवहन विभाग, पुलिस और यातायात विभाग के अफसर और स्कूल प्रबंधन भी पूरी तरह से जिम्मेदार हैं.
परिवहन विभाग कहने को तो सड़क सुरक्षा जीवन रक्षा को लेकर तमाम तरह के जागरूकता अभियान चलाता है. नियम न मानने वालों पर कार्रवाई भी करता है, लेकिन विभागीय अधिकारियों को यह नाबालिग स्कूल के बच्चे बिना लाइसेंस गाड़ियां दौड़ाते नजर ही नहीं आते हैं. स्कूल प्रबंधन भी गहरी नींद में सोया रहता है. 'ईटीवी भारत' ने शहर के नामी-गिरामी स्कूलों में अपने दोपहिया वाहनों से आने वाले नाबालिग छात्रों की पड़ताल की तो सामने आया कि बच्चे बिना किसी खौफ के फोर स्ट्रोक स्कूटी के साथ ही हैवी इंजन वाले दोपहिया वाहनों से स्कूल आ रहे हैं. इतना ही नहीं सिर पर हेलमेट भी नहीं और एक बाइक पर अकेले भी नहीं, दो या तीन छात्र बैठकर धड़ल्ले से फर्राटा भरते हुए नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं. अब ऐसे छात्रों को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं.
पहला सवाल आखिर अभिभावकों को यह क्यों नजर नहीं आता कि उनके बच्चों की उम्र अभी इतनी नहीं हुई है कि उन्हें दो पहिया वाहन से स्कूल भेजा जाए. उन्हें बखूबी मालूम होता है कि बच्चों के पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है, ऐसे में परिवहन विभाग के नियमों का खुला उल्लंघन भी करेंगे. यह गैर कानूनी है, अपराध है. इसके लिये गलती सबसे पहले अभिभावको की ही है. इसके बाद स्कूल प्रशासन का भी रवैया पूरी तरह गैर जिम्मेदाराना है. आखिर स्कूल प्रशासन क्यों नाबालिग छात्रों को दोपहिया वाहनों से स्कूल आने की इजाजत देता है? जब स्कूल ट्रांसपोर्ट के साथ अन्य ट्रांसपोर्ट के साधन उपलब्ध हैं तो उनका इस्तेमाल कर स्कूल आने के लिए बच्चों को निर्देश क्यों जारी नहीं करता? अगर इन बच्चों के साथ कोई दुर्घटना होती है तो स्कूल प्रबंधन को भी दोषी ठहराया जाना चाहिए.
कारावास का भी प्रावधान : अब बारी आती है परिवहन विभाग की. विभाग की तरफ से 16 से 18 साल की उम्र के बीच वाले अभ्यर्थियों को ड्राइविंग लाइसेंस जारी नहीं करने का नियम है. लाइसेंस सिर्फ तब जारी हो सकता है जब अभ्यर्थी माता पिता की तरफ से सर्टिफिकेट प्रस्तुत करें कि 18 साल की उम्र से पहले 50 सीसी से ज्यादा क्षमता वाला वाहन उपलब्ध नहीं कराएंगे, साथ ही परमानेंट लाइसेंस जारी करते समय 50 सीसी से कम क्षमता वाले वाहन को साक्ष्य के तौर पर प्रस्तुत करेंगे. अब कंपनियों ने 50 सीसी तक की क्षमता वाले वाहन बनाने बंद कर दिए. लिहाजा, अब ड्राइविंग लाइसेंस जारी नहीं किया जा सकता. सवाल यही कि परिवहन विभाग ऐसे स्कूलों पर चाबुक क्यों नहीं चलाता? अभिभावकों पर भी कोई कार्रवाई क्यों नहीं की जाती है, जबकि नियम है अगर कोई नाबालिग बाइक चलाता है तो अभिभावक से ₹25000 जुर्माने की वसूली के साथ ही कारावास का भी प्रावधान है.
ये विभाग भी नींद में : सवाल पुलिस और यातायात विभाग पर भी उठना लाजिमी है. बच्चे जब घर से स्कूल के लिए और स्कूल से घर के लिए सड़क से गुजरते हैं तो पुलिस और यातायात पुलिस को यह बच्चे नजर क्यों नहीं आते हैं? इन्हें देखकर ही लग जाता है कि इनके पास ड्राइविंग लाइसेंस होने का सवाल ही नहीं उठता तो फिर गाड़ी कैसे चला रहे हैं? नींद में सोए यह विभाग इन बच्चों को देख ही नहीं पाते या यूं कहें देखकर भी अनदेखा कर देते हैं. ऐसे में ये विभाग बराबर के जिम्मेदार हैं.
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इस बारे में जब 'ईटीवी भारत' ने आरटीओ (प्रवर्तन) संदीप पंकज से पूछा कि आखिर क्यों परिवहन विभाग कार्रवाई नहीं करता है तो उनका कहना है कि जागरूकता अभियान के माध्यम से स्कूलों में बच्चों को जागरूक किया जाता है. अभिभावकों से भी गुजारिश की जाती है कि वे किसी भी कीमत पर अपने बच्चों को उम्र पूरी न होने तक दोपहिया वाहन न दें. यह सच है कि इंटर तक पढ़ने वाले बच्चों की उम्र 18 साल नहीं हो पाती है और उनके पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं होता है. ऐसे में अभिभावकों के साथ स्कूल प्रशासन को भी रोक लगानी चाहिए. समझना चाहिए कि स्कूल ट्रांसपोर्ट या अन्य ट्रांसपोर्ट के माध्यम से बच्चे स्कूल भेजें. ड्राइविंग लाइसेंस न होने पर कार्रवाई होनी चाहिए. इसे लेकर कड़े कदम उठाए जाएंगे.
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