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गोरखपुर: सावधान हो जाएं मत्स्य पालक, ठंड से बीमार हो रहीं मछलियां

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Published : Dec 30, 2019, 1:10 PM IST

गोरखपुर मण्डल सहित प्रदेश में कड़कड़ाती ठंड ने दशकों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है, जिससे आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है. मानव सहित मवेशी, कीड़े-मकोड़े-मछलियों के जीवन पर मुसीबत आ गई है. मछलियों में होने वाली बीमारियों से बचाव और उपचार के विषय पर महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केन्द्र के मत्स्य विशेषज्ञ डॉ. विवेक प्रताप सिंह ने ईटीवी भारत से खास बातचीत की.

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बढ़ती ठंड में मछलियों पर मंडराने लगा बीमारियों का खतरा.

गोरखपुरः ठंड रिकॉर्ड बना रही है. उत्तर भारत में इंसान से लेकर मवेशियों, परिंदों, कीड़े-मकोड़ों तक के लिए जीना मुहाल हो गया है. मछलियों के जीवन और उससे जुड़े रोजगार आश्रित लोगों के सामने ठंड ने संकट खड़ा कर दिया है. कड़कड़ाती ठंड से मछलियों का जीवन प्रभावित हो रहा है. ऐसे में अधिकांश मछलियां पानी की सतह के नीचे तालाब की तली में रहना पसंद करती हैं.

ठंड के मौसम में मछलियों में एपीजुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम नामक बीमारी होने की संभावना काफी ज्यादा बढ़ जाती है. इससे मछलियों के शरीर पर लाल चकते पड़ने लगते हैं. समय से इसका इलाज न किया गया तो बीमारी दूसरी मछलियों में फैलने लगती है. महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केन्द्र के मत्स्य विशेषज्ञ डॉ विवेक सिंह ने बातचीत के दौरान एपीजुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम रोग से बचाव की जानकारी दी.

मत्स्य विशेषज्ञ डॉ. विवेक प्रताप सिंह ने एपीजुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम रोग से बचाव की जानकारी दी.

मत्स्य विशेषज्ञ ने दी जानकारी
मत्स्य विशेषज्ञ डॉ. विवेक सिंह ने बताया कि पानी के अंदर ही मछली का जीवन है. आसपास के वातावरण की बदलती परिस्थितियां उनके जीवन पर बहुत ही असर डालती हैं. मछली के आसपास का वातावरण उसके अनुकूल रहना अत्यंत आवश्यक होता है. जाड़े के दिनों में तालाब की परिस्थितियां भिन्न हो जाती हैं. तापमान कम होने के कारण मछलियां तालाब की तली में ज्यादा समय व्यतीत करती हैं.

इसे भी पढ़ें- मेरठ: कृषि विश्वविद्यालय में किसानों को मिल रही मछली पालन की ट्रेनिंग

ऐसी परिस्थिति में एपीजुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम नामक बीमारी होने की संभावना काफी ज्यादा बढ़ जाती है. यह भारतीय मेजर कार्प के साथ साथ जंगली अपतृण मछलियों की भी व्यापक रूप से प्रभावित करती है. समय पर उपचार नहीं करने पर कुछ ही दिनों में पूरे पोखरे की मछलियां संक्रमित हो जाती हैं और बड़े पैमाने पर मछलियां तुरंत मरने लगती हैं.

मछलियों को बीमारी से बचाने का उपाय
तालाब में 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भाखरा चूना का प्रयोग कर देने से मछलियों में यह बीमारी नहीं होती है. यदि मछलियों में बीमारी होती है तो उसका प्रभाव कम हो जाता है. जनवरी के बाद वातावरण का तापमान बढ़ने पर यह स्वतः ठीक हो जाती है. केंद्रीय मीठा जल जीवपालन संस्था (सीफा) भुवनेश्वर ने इस रोग के उपचार के लिए सीफैक्स नामक औषधि तैयार की है.

कैसे करें छिड़काव
एक लीटर सीफैक्स एक हेक्टेयर जलक्षेत्र के लिए पर्याप्त है. इसे पानी में घोल कर तालाब में छिड़काव किया जाता है. गंभीर स्थिति में प्रत्येक सात दिन में एक बार इस दवा का छिड़काव करने से काफी हद तक बीमारी पर काबू पाया जा सकता है. घरेलू उपचार में चूने के साथ हल्दी मिलाने पर अल्सर घाव जल्दी ठीक होता है. इसके लिए 40 किलोग्राम चूना तथा 4 किलो ग्राम हल्दी प्रति एकड़ की दर से मिश्रण का प्रयोग किया जाता है.

गोरखपुरः ठंड रिकॉर्ड बना रही है. उत्तर भारत में इंसान से लेकर मवेशियों, परिंदों, कीड़े-मकोड़ों तक के लिए जीना मुहाल हो गया है. मछलियों के जीवन और उससे जुड़े रोजगार आश्रित लोगों के सामने ठंड ने संकट खड़ा कर दिया है. कड़कड़ाती ठंड से मछलियों का जीवन प्रभावित हो रहा है. ऐसे में अधिकांश मछलियां पानी की सतह के नीचे तालाब की तली में रहना पसंद करती हैं.

ठंड के मौसम में मछलियों में एपीजुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम नामक बीमारी होने की संभावना काफी ज्यादा बढ़ जाती है. इससे मछलियों के शरीर पर लाल चकते पड़ने लगते हैं. समय से इसका इलाज न किया गया तो बीमारी दूसरी मछलियों में फैलने लगती है. महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केन्द्र के मत्स्य विशेषज्ञ डॉ विवेक सिंह ने बातचीत के दौरान एपीजुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम रोग से बचाव की जानकारी दी.

मत्स्य विशेषज्ञ डॉ. विवेक प्रताप सिंह ने एपीजुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम रोग से बचाव की जानकारी दी.

मत्स्य विशेषज्ञ ने दी जानकारी
मत्स्य विशेषज्ञ डॉ. विवेक सिंह ने बताया कि पानी के अंदर ही मछली का जीवन है. आसपास के वातावरण की बदलती परिस्थितियां उनके जीवन पर बहुत ही असर डालती हैं. मछली के आसपास का वातावरण उसके अनुकूल रहना अत्यंत आवश्यक होता है. जाड़े के दिनों में तालाब की परिस्थितियां भिन्न हो जाती हैं. तापमान कम होने के कारण मछलियां तालाब की तली में ज्यादा समय व्यतीत करती हैं.

इसे भी पढ़ें- मेरठ: कृषि विश्वविद्यालय में किसानों को मिल रही मछली पालन की ट्रेनिंग

ऐसी परिस्थिति में एपीजुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम नामक बीमारी होने की संभावना काफी ज्यादा बढ़ जाती है. यह भारतीय मेजर कार्प के साथ साथ जंगली अपतृण मछलियों की भी व्यापक रूप से प्रभावित करती है. समय पर उपचार नहीं करने पर कुछ ही दिनों में पूरे पोखरे की मछलियां संक्रमित हो जाती हैं और बड़े पैमाने पर मछलियां तुरंत मरने लगती हैं.

मछलियों को बीमारी से बचाने का उपाय
तालाब में 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भाखरा चूना का प्रयोग कर देने से मछलियों में यह बीमारी नहीं होती है. यदि मछलियों में बीमारी होती है तो उसका प्रभाव कम हो जाता है. जनवरी के बाद वातावरण का तापमान बढ़ने पर यह स्वतः ठीक हो जाती है. केंद्रीय मीठा जल जीवपालन संस्था (सीफा) भुवनेश्वर ने इस रोग के उपचार के लिए सीफैक्स नामक औषधि तैयार की है.

कैसे करें छिड़काव
एक लीटर सीफैक्स एक हेक्टेयर जलक्षेत्र के लिए पर्याप्त है. इसे पानी में घोल कर तालाब में छिड़काव किया जाता है. गंभीर स्थिति में प्रत्येक सात दिन में एक बार इस दवा का छिड़काव करने से काफी हद तक बीमारी पर काबू पाया जा सकता है. घरेलू उपचार में चूने के साथ हल्दी मिलाने पर अल्सर घाव जल्दी ठीक होता है. इसके लिए 40 किलोग्राम चूना तथा 4 किलो ग्राम हल्दी प्रति एकड़ की दर से मिश्रण का प्रयोग किया जाता है.

Intro:गोरखपुर मण्डल सहित प्रदेश में कड़कडाती ठंड ने दशकों का रिकार्ड तोड़ दिया है. ऐसे में आम जनजीवन अस्त ब्यस्त है. मनाव सहित मवेशी कीड़े मकोड़े मच्छलियों जीवन पर बन आ पड़ी है.मछलियों में होने वाली बिमारियों से बचाव तथा उपचार विषय पर महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केन्द्र के मत्स्य विशेषज्ञ डा विवेक प्रताप सिंह ने ईटीवी भारत से खासबातचीत किया.

पिपराइच गोरखपुरः कड़कती ठंड से एक तरफ जहां आम जनजीवन अस्त ब्यस्त है तो वही दूसरी तरफ मवेशियों से लेकर चरिन्द परिन्दों कीड़े मकोड़े के जीवन पर भी बन आ गई है. खास तौर पर अगर हब बात करें मच्छलियों के जनजीवन तथा उससे जुड़े रोजगार एवं आश्रित लोगों के सामने हाड़तोड़ ठंड ने संकट खड़ा कर दिया. वही मछलियों का जनजीवन प्रभावित हो रहा है. ऐसे में अधिकांस मच्छलियां पानी की सहत तालाब पोखरे की तली रहना पसंद करती है. ऐसे मौसम में मच्छलियों में एपी जुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम नामक बीमारी होने की संभावना काफी ज्यादा बढ़ जाती है. मच्छलियों के शरीर पर लाल चकत्ते पडने लगते है समय से इसका इलाज न होने से धीरे धीरे पूरे एक दुसरे में फैलने लगते है अन्त में सभी मच्छलियां संक्रमित होकर मरने लगती है. महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केन्द्र के मत्स्य विशेषज्ञ डा विवेक सिंह ने खास मुलाकात में बातचीत के दौरान रोग से बचाव और रखरखाव की जानकारी दिया।Body:ईटीवी भारत से बातचीत के दौरान विशेषज्ञ डा विवेक सिंह ने बताया कि मछली एक जल ही जीवन है सदैव उसके जीवन पर आसपास के वातावरण की बदलती परिस्थितियां उनके लिए बहुत ही असर दायक होती है. मछली के आसपास का वातावरण उसके अनुकूल रहना अत्यंत आवश्यक है. जाड़े के दिनों में तालाब की परिस्थितियां भिन्न हो जाती है. तापमान कम होने के कारण मछलियां तालाब की तली में ज्यादा समय व्यतीत करते हैं अतः ऐसी परिस्थिति में एपीजुएट अल्सरेटिव सिंड्रोम नामक बीमारी होने की संभावना काफी ज्यादा बढ़ जाती है इसे चलते वाली बीमारी के नाम से भी जाना जाता है यह भारतीय मेजर कार्प के साथ साथ जंगली अपतृण मछलियों की भी व्यापक रूप से प्रभावित करती है समय पर उपचार नहीं करने पर कुछ ही दिनों में पूरे पोखरे की मछलियां संक्रमित हो जाती है और बड़े पैमाने पर मछलियां तुरंत मरने लगती हैं.

$क्या रहा है बीमारी का इतिहास$

विशेषज्ञ विवेक बताते है कि इस रोग का विश्लेषण करने पर यह पाया गया कि प्रारंभिक अवस्था में यह रोग फफूंदी तथा बाद में जीवाणु द्वारा फैलता है विश्व में सर्वप्रथम यह बीमारी 1988 में बांग्लादेश में पाई गई थी वहां से भारतवर्ष में आई इस बीमारी का प्रकोप 15 दिसंबर से जनवरी के मध्य तक ज्यादा देखा जाता है. इस बीच तापमान काफी कम हो जाता है. सबसे पहले तालाब में रहने वाली जंगली मछलियां यथा पोठिया गरई, मांगूर गईची आदि में यह बीमारी प्रकट होती है अतः जैसे ही मछलियों में यह बीमारी नजर आने लगे तो मत्स्यपालकों है पलकों को सावधान हो जाना चाहिए उसी समय इसके रोकथाम कर देने से तालाब की अयोग्य मछलियों में इस बीमारी का फैलाव नहीं होता.Conclusion:मछलियों को बीमारी से बचाने का उपाय$

सामान्य रूप से इस बीमारी को नहीं दिखने के बावजूद 15 दिसंबर तक तालाब में 200 किलोग्राम प्रति एकड़ भाखरा चूना का प्रयोग कर देने से मछलियों में यह बीमारी नहीं होती है और यदि होती है तो इसका प्रभाव कम होता है जनवरी के बाद वातावरण का तापमान बढ़ने पर यह स्वतः ठीक हो जाती है. केंद्रीय मीठा जल जीवपालन संस्था (सीफा) भुवनेश्वर द्वारा इस रोग के उपचार हेतु एक औषधि तैयार की गई जिस का व्यापारिक नाम सीफैक्स है.

$कैसे करें सीफैक्स का छिड़काव$
1 लीटर सीफैक्स 1 हेक्टेयर जलक्षेत्र के लिए पर्याप्त है. इसे पानी में घोल कर तलाब में छिड़काव किया जाता है गंभीर स्थिति में प्रत्येक 7 दिन में एक बार इस दवा का छिड़काव करने से काफी हद तक इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है घरेलू उपचार में चुने के साथ हल्दी मिलाने पर अल्सर घाव जल्दी ठीक होता है इसके लिए 40 किलोग्राम चूना तथा 4 किलो ग्राम हल्दी प्रति एकड़ की दर से मिश्रण का प्रयोग किया जाता है मछलियों को 7 दिनों तक 100 मिलीग्राम टेरामाईसिश या सल्फाडाइजीन नामक दवा प्रति किलोग्राम पूरक आहार में मिलाकर मछलियों को खिलाने से भी अच्छा परिणाम प्राप्त होता है.

बाइट- विवेक प्रताप सिंह (मत्स्य विशेषज्ञ)

रफिउल्लाह अन्सारी 8318103822
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