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जानिए ! इस कारण टूट सकता है सपा-बसपा गठबंधन

23 मई को लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित किया गया. भाजपा ने एक बार फिर बहुमत हासिल किया. उत्तर प्रदेश में भाजपा को गठबंधन से कड़ी उम्मीद मिलने की संभावना थी, लेकिन वह इसमें विफल रहा. हालांकि इस गठबंधन से बसपा को तो फायदा हुआ लेकिन सपा की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ.

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Published : May 25, 2019, 4:00 PM IST

जानिए ! इस कारण टूट सकता है सपा-बसपा गठबंधन.

लखनऊ : यूपी में 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त खाने के बाद सपा और बसपा ने करीब ढाई दशक बाद एक बार फिर गठबंधन किया. हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने वाले दोनों दल खुद अपने पैर नहीं जमा सके. इस गठबंधन से सपा को तो कोई लाभ नहीं हुआ लेकिन बसपा के लिए यह गठबंधन फायदेमंद साबित हुआ. इस बार उसने 10 सीटें जीतीं है जबकि पिछली बार उसका खाता भी नहीं खुला था. वहीं सपा पिछली बार की तरह ही केवल 5 सीटों पर कब्जा जमा सकी. नतीजे आने के बाद गठबंधन में दरार पड़ने का अनुमान लगाया जा रहा है.

जानिए ! इस कारण टूट सकता है सपा-बसपा गठबंधन.

पहले से थे कई सवाल
गठबंधन को लेकर लोगों में कई सवाल थे, लेकिन सबसे बड़ा सवाल था वोट बैंक के ट्रांसफर का. लोगों के मन में पहले से ही सवाल था कि इन लोगों ने जो गठबंधन किया है, क्या इनके मतदाता भी एक दूसरे के साथ आएंगे. सपा का वोट बैंक क्या बसपा को वोट करेगा और क्या बसपा वोट बैंक सपा को वोट करेगा.

बसपा को हुआ फायदा
यह गठबंधन बसपा के लिए फायदेमंद साबित हुआ. बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी, जबकि इस बार उसने 10 सीटों पर कब्जा जमाया है.

सपा के हाथ लगी निराशा
यह गठबंधन सपा के लिए फायदेमंद साबित नहीं हुआ. बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा के खाते में पांच सीटें आईं थीं और इस बार भी उसने पांच सीटों पर ही जीत दर्ज की है.

यह हो सकता है कारण

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो बसपा के खाते में वो सीटें गईं थीं, जहां मुस्लिम मतदाता ज्यादा था और ज्यादार ग्रामीण क्षेत्र था. माना जा रहा है कि बसपा को मुस्लिम और दलित का वोट तो मिला ही यादवों का भी भरपूर वोट मिला. इसी कारण उसने 10 सीटों पर जीत हासिल की. वहीं सपा के खाते में ज्यादातर शहरी क्षेत्र वाली सीटें आईं थीं, जिसके कारण उसकी स्थिति में सुधार नहीं हो सका. ऐसा माना जाता है कि शहरी क्षेत्रों में बीजेपी की मतदाताओं पर पकड़ अच्छी है और इसी के चलते सपा को नुकसान हुआ है.
राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि सपा के लिए गठबंधन करना मजबूरी थी. अखिलेश यादव ने अपने घर में ही इतने मोहरे खोल लिए थे कि उन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए गठबंधन करना पड़ा. उनको लग रहा था कि वह अकेले अपना अस्तित्व बचा नहीं पाएंगे. अस्तित्व बचाने के लिए अखिलेश यादव ने आगे हाथ बढ़ाकर बसपा का सहारा लिया, उनके साथ गठबंधन किया. अखिलेश को लग रहा था कि बसपा का सहारा लेने के बाद उनका मत प्रतिशत इतना ज्यादा हो जाएगा कि वह भाजपा को रोक सकेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जो हुआ वो इसके उलट हुआ. इस बार के लोकसभा चुनाव में ऐसा लग रहा है कि जाति का बंधन टूट गया और हिंदुत्व के नाम पर वोट हुआ.

क्या बना रहेगा गठबंधन
अब बड़ा सवाल यह है कि आने वाले दिनों में क्या यह गठबंधन चलता रहेगा. क्योंकि मायावती इस चुनाव में खुद को प्रधानमंत्री की दावेदार समझ रही थी. इस बात की चर्चा थी कि मायावती दिल्ली जाएंगी और अखिलेश यूपी में सीएम के लिए लड़ेंगे. वहीं अब मायावती दिल्ली नहीं जा पाईं है, प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं है तो क्या वह खुद को 2022 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का कैंडिडेट घोषित करेंगीं. वहीं चर्चाओं के मुताबिक क्या अखिलेश यादव को 2022 में दोनों दल मिलकर मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में स्वीकार करेंगें. अगर नहीं कर सकेंगे तो इन दोनों का का अलग जाना लगभग तय है.

लखनऊ : यूपी में 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त खाने के बाद सपा और बसपा ने करीब ढाई दशक बाद एक बार फिर गठबंधन किया. हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने वाले दोनों दल खुद अपने पैर नहीं जमा सके. इस गठबंधन से सपा को तो कोई लाभ नहीं हुआ लेकिन बसपा के लिए यह गठबंधन फायदेमंद साबित हुआ. इस बार उसने 10 सीटें जीतीं है जबकि पिछली बार उसका खाता भी नहीं खुला था. वहीं सपा पिछली बार की तरह ही केवल 5 सीटों पर कब्जा जमा सकी. नतीजे आने के बाद गठबंधन में दरार पड़ने का अनुमान लगाया जा रहा है.

जानिए ! इस कारण टूट सकता है सपा-बसपा गठबंधन.

पहले से थे कई सवाल
गठबंधन को लेकर लोगों में कई सवाल थे, लेकिन सबसे बड़ा सवाल था वोट बैंक के ट्रांसफर का. लोगों के मन में पहले से ही सवाल था कि इन लोगों ने जो गठबंधन किया है, क्या इनके मतदाता भी एक दूसरे के साथ आएंगे. सपा का वोट बैंक क्या बसपा को वोट करेगा और क्या बसपा वोट बैंक सपा को वोट करेगा.

बसपा को हुआ फायदा
यह गठबंधन बसपा के लिए फायदेमंद साबित हुआ. बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी, जबकि इस बार उसने 10 सीटों पर कब्जा जमाया है.

सपा के हाथ लगी निराशा
यह गठबंधन सपा के लिए फायदेमंद साबित नहीं हुआ. बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा के खाते में पांच सीटें आईं थीं और इस बार भी उसने पांच सीटों पर ही जीत दर्ज की है.

यह हो सकता है कारण

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो बसपा के खाते में वो सीटें गईं थीं, जहां मुस्लिम मतदाता ज्यादा था और ज्यादार ग्रामीण क्षेत्र था. माना जा रहा है कि बसपा को मुस्लिम और दलित का वोट तो मिला ही यादवों का भी भरपूर वोट मिला. इसी कारण उसने 10 सीटों पर जीत हासिल की. वहीं सपा के खाते में ज्यादातर शहरी क्षेत्र वाली सीटें आईं थीं, जिसके कारण उसकी स्थिति में सुधार नहीं हो सका. ऐसा माना जाता है कि शहरी क्षेत्रों में बीजेपी की मतदाताओं पर पकड़ अच्छी है और इसी के चलते सपा को नुकसान हुआ है.
राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि सपा के लिए गठबंधन करना मजबूरी थी. अखिलेश यादव ने अपने घर में ही इतने मोहरे खोल लिए थे कि उन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए गठबंधन करना पड़ा. उनको लग रहा था कि वह अकेले अपना अस्तित्व बचा नहीं पाएंगे. अस्तित्व बचाने के लिए अखिलेश यादव ने आगे हाथ बढ़ाकर बसपा का सहारा लिया, उनके साथ गठबंधन किया. अखिलेश को लग रहा था कि बसपा का सहारा लेने के बाद उनका मत प्रतिशत इतना ज्यादा हो जाएगा कि वह भाजपा को रोक सकेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जो हुआ वो इसके उलट हुआ. इस बार के लोकसभा चुनाव में ऐसा लग रहा है कि जाति का बंधन टूट गया और हिंदुत्व के नाम पर वोट हुआ.

क्या बना रहेगा गठबंधन
अब बड़ा सवाल यह है कि आने वाले दिनों में क्या यह गठबंधन चलता रहेगा. क्योंकि मायावती इस चुनाव में खुद को प्रधानमंत्री की दावेदार समझ रही थी. इस बात की चर्चा थी कि मायावती दिल्ली जाएंगी और अखिलेश यूपी में सीएम के लिए लड़ेंगे. वहीं अब मायावती दिल्ली नहीं जा पाईं है, प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं है तो क्या वह खुद को 2022 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का कैंडिडेट घोषित करेंगीं. वहीं चर्चाओं के मुताबिक क्या अखिलेश यादव को 2022 में दोनों दल मिलकर मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में स्वीकार करेंगें. अगर नहीं कर सकेंगे तो इन दोनों का का अलग जाना लगभग तय है.

Intro:लखनऊ। यूपी में 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त खाने के बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने करीब ढाई दशक बाद एक बार फिर गठबंधन कर बीजेपी को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने वाले दोनों दल खुद अपना पैर ना जमा सके। इस गठबंधन से समाजवादी पार्टी को कोई लाभ नहीं हुआ लेकिन बहुजन समाज पार्टी जरूर 10 सीढ़ियां चढ़कर एक मुकाम पर पहुंच गई। बसपा का यही मुकाम समाजवादी पार्टी को उससे दूर कर सकता है। बुआ और बबुआ के संबंधों में दरार पड़ सकती है।


Body:सपा बसपा गठबंधन को लेकर लोगों के मन में पहले से ही सवाल था कि जो इन लोगों में गठबंधन किया है। क्या इनके मतदाता भी एक दूसरे के साथ आएंगे। समाजवादी पार्टी का यादव बसपा को वोट करेगा ? बीएसपी का दलित समाजवादी पार्टी को को वोट करेगा ? इसके साथ ही इसमें देखा गया कि बसपा ने अच्छी सीटों को ले लिया था। खासकर उन सीटों को जहां पर मुस्लिम ज्यादा संख्या में थे। मुस्लिम और दलित मिलकर के बसपा को पूरा वोट किया साथ में यादवों का वोट मिल गया। ऐसे में बसपा की ज्यादा सीटें निकल गई। वह 10 सीटें जीतने में सफल रही। इसमें बसपा का फायदा हुआ। सपा नुकसान में चली गई।

सपा के पास पिछली बार पांच सीटें थी। इस बार भी पांच है। बसपा पिछली बार खाली हाथ थी। इस बार 10 सीटें उसके खाते में गई। सपा को नुकसान ज्यादा हुआ। क्योंकि सपा ज्यादातर सीटें शहरी क्षेत्रों में लड़ी। बसपा को ज्यादा लाभ इसलिए हुआ क्योंकि उसने ज्यादातर सीटें ग्रामीण अंचल में लड़ी। दरअसल भारतीय जनता पार्टी शहरी क्षेत्रों में परंपरागत तरीके से मजबूत स्थिति में बनी हुई है। शहरों में उसका मजबूत तंत्र है।

बड़ा सवाल यह है कि अब आने वाले दिनों में क्या यह गठबंधन चलता रहेगा। क्योंकि मायावती इस चुनाव में खुद को प्रधानमंत्री की दावेदार समझ रही थी। बात हुई थी कि मायावती दिल्ली जाएंगी। अखिलेश यूपी में सीएम के लिए लड़ेंगे। अब वह दिल्ली नहीं गईं। प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं। तो क्या वह खुद को 2022 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का कैंडिडेट घोषित करेंगी। वादों के मुताबिक अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री के रूप में 2022 में दोनों दल मिलकर प्रोजेक्ट कर सकेंगे। अगर नहीं कर सकेंगे तो इन दोनों लोगों का अलग जाना लगभग तय है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सपा के लिए मजबूरी थी। अखिलेश यादव ने अपने घर में ही इतने मोहरे खोल लिए थे। उन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए मजबूरी थी। इसलिए गठबंधन किया। उनको लग रहा था कि अकेले वह अपना अस्तित्व बचा नहीं पाएंगे। इसलिए अस्तित्व बचाने के लिए अखिलेश यादव ने आगे हाथ बढ़ाकर बसपा का सहारा लिया। उनके साथ गठबंधन किया। अखिलेश को लगने लगा कि बसपा का सहारा लेने के बाद उनका मत प्रतिशत इतना ज्यादा हो जाएगा कि उसी से वह आगे बढ़ जाएंगे। भाजपा को रोक सकेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हुआ इसके उलट। इस बार के लोकसभा चुनाव में ऐसा लग रहा है कि जाति का बंधन टूट गया और हिंदुत्व के नाम पर वोट हुआ। बीजेपी के पास हिंदुत्व का वोट ज्यादा चला गया।

बाईट-मनोज भद्रा, राजनीतिक विश्लेषक
बाईट-सुरेश बहादुर सिंह ,राजनीतिक विश्लेषक


Conclusion:
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