नई दिल्ली : उत्तरप्रदेश के बारे में चर्चित कहावत है कि दिल्ली के तख्त का रास्ता उत्तरप्रदेश की गलियों से निकलता है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो जिस पार्टी ने यूपी में परचम लहराया, उसकी ताजपोशी ही दिल्ली के दरबार में हुई. अभी तक के राजनीतिक इतिहास में सीटों के अंकगणित के कारण यह कहावत सही ही साबित हुई है.
सिर्फ 1991 का चुनाव ऐसा था, जब यूपी में ज्यादा सीट नहीं जीतने वाले दल ने केंद्र में सरकार बनाई थी. 1991 में कांग्रेस को यूपी में ज्यादा सीटें नहीं मिली मगर नरसिंह राव ने केंद्र में अल्पतमत की सरकार बनाई थी. यूपी कि सियासी ताकत यह है कि अभी तक उत्तरप्रदेश ने जवाहर लाल नेहरू से नरेंद्र मोदी तक देश को 9 प्रधानमंत्री दिए हैं. कार्यवाहक प्रधानमंत्री को छोड़ दें तो देश में अभी तक कुल 14 प्रधानमंत्री हुए हैं.
विधानसभा में जीत का असर लोकसभा चुनाव में भी : उत्तरप्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत की सरकार यूपी में भारी जीत की बदौलत बनाई है. सवाल यह है कि लोकसभा सीटों पर जीत से दिल्ली की गद्दी तय होती है तो फिर विधानसभा में चुनाव में जीत दिल्ली के लिए क्या मायने रखते हैं. 2017 में बीजेपी ने यूपी में प्रचंड बहुमत से सत्ता हासिल की थी. तब बीजेपी को 39.67 फीसदी वोट और 312 सीटें मिली थीं. इसके बाद 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी को 61 सीटें मिलीं. 2019 में भाजपा को देश में कुल 303 सीटें मिली थीं. यानी केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार में उत्तरप्रदेश की बड़ी भागीदारी रही.
कोरोना, किसान आंदोलन और महंगाई : यूपी समेत 5 राज्यों का चुनाव बीजेपी के लिए 2024 के आम चुनाव से पहले सेमीफाइनल माना जा रहा है. कोरोना की तीसरी लहर के बीच हो रहे इस चुनाव में किसान आंदोलन का साया है. महंगाई भी अपने चरम पर है. पेट्रोल डीजल से लेकर खाद्यान्न के दाम बढ़ चुके हैं. अगर बीजेपी देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता कब्जाने में सफल रहती है तो यह माना जाएगा कि उसने कोरोना, किसान आंदोलन और महंगाई जैसे बड़ी चुनौती को पार कर लिया है.
हारे तो राज्यसभा में बिगड़ जाएगा बीजेपी का गणित : दूसरा तथ्य यह है कि यूपी विधानसभा चुनाव में जीत से किसी भी दल को न सिर्फ लोकसभा बल्कि राज्यसभा में भी फायदा मिलता है. यूपी से राज्यसभा के 31 सांसद चुने जाते हैं. अभी इनमें से 22 सांसद बीजेपी के हैं. विधायकों की संख्या के आधार पर राज्यसभा में जीत-हार तय होती है. केंद्र में बैठी सरकार को राज्यसभा में भी बहुमत के लिए संख्या की जरूरत होती है. यानी अगर यूपी विधानसभा में बीजेपी हार जाती है तो राज्यसभा में भी इसका असर दिखेगा. संसद के इस उच्च सदन यानी राज्यसभा में बीजेपी के 95 सदस्य हैं. मगर आने वाले समय में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और आंध्रप्रदेश में बीजेपी की सीटें कम होंगी. अगले साल जुलाई में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा की 12 सीटें खाली हो रही हैं, जिनमें से छह सीटें अभी बीजेपी के पास है. अगर विधानसभा चुनाव में बीजेपी को प्रचंड बहुमत नहीं मिला तो उसे राज्यसभा में झटका लगेगा.
राष्ट्रपति चुनाव में भी दिखेगा असर : यूपी विधानसभा चुनाव के बाद जुलाई में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं. अगर विधानसभा में बीजेपी की सदस्यों की संख्या कम हुई तो भाजपा को अपने पसंद के राष्ट्रपति चुनने में दिक्कत हो सकती है. राष्ट्रपति के लिए वोट डालने वाले हर राज्य के सांसद और विधायक के वोट की ताकत अलग-अलग होती है. यूपी के विधायक के वोट का मूल्य 208 है, वहीं सिक्किम के विधायक के वोट का मूल्य महज 7 है. यानी जितने ज्यादा विधायक, उतने ज्यादा वोट.
यूपी में कमजोर होते ही विपक्ष में चली गई बीजेपी : 2004 और 2009 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था. इसका नतीजा यह रहा कि सत्ता की दौड़ में कांग्रेस से काफ़ी पिछड़ गई. आप गौर करेंगे इस दशक में बीजेपी का विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन औसत से भी नीचे था. बीजेपी को 2002 में 88, 2007 में 51 और 2012 में महज 47 सीटें मिली थीं. इस दौरान यूपी में बेहतर परफॉर्म करने वाली समाजवादी पार्टी कभी सीधे तो कभी परोक्ष रुप से केंद्र के सपोर्ट में रही. 2007 के बाद से बसपा ने भी कभी केंद्र सरकार से सीधा टकराव मोल नहीं लिया.
यूपी में मजबूती से मिलती है केंद्र की सत्ता : 1989 में बीजेपी को देश में कुल 85 सीटें मिलीं थी, इनमें से सिर्फ 7 सीट यूपी से मिली. 1996 में ग्यारहवीं लोकसभा के लिए चुनाव हुए. भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. भारतीय जनता पार्टी ने 161 सीटों में से 52 सीटें यूपी से जीतीं. अटल बिहारी के नेतृत्व में 13 दिन की सरकार बनी. 1998 में भाजपा उत्तरप्रदेश में 29 सीट ही जीत सकी. हालांकि केंद्र में उसकी सीटों की संख्या 182 रही.
2004 के 14वीं लोकसभा में बीजेपी को यूपी में महज 10 सीटें जीतीं. नतीजा यह रहा है कि केंद्र से एनडीए की सरकार साफ हो गई. 2009 में भी भाजपा के खाते में उत्तरप्रदेश से सिर्फ 10 सीटें ही आई, जबकि कांग्रेस ने यूपी में 21 सीटें जीतीं. इसके अलावा सपा और बसपा जैसे दल भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संप्रग के पास चले गए. यानी यूपी के सांसदों की बदौलत कांग्रेस ने सरकार बनाई. उत्तरप्रदेश में प्रदर्शन नहीं करने के कारण बीजेपी ने सत्ता गंवाई.
नरेंद्र मोदी और शाह के दौर में भाजपा ने 2014 और 2019 में उत्तरप्रदेश में बड़ी कामयाबी हासिल की. 2014 में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में 71 और 2019 में 62 सीटें जीतीं.
2017 में 41 सीटों पर बहुत कम था जीत का अंतर : उत्तरप्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में 41 सीटें ऐसी थीं, जहां जीत-हार का अंतर एक फीसदी से भी कम था. कड़े मुकाबले वाली अधिकतर सीटें बीजेपी की हिस्से में आई थीं. इनमें से 23 सीटें बीजेपी, सपा ने 13 और बसपा ने 8 सीटें जीती थीं. कांग्रेस, अपना दल और आरएलडी को एक-एक सीटें मिली थीं. इस बीच बीजेपी में काफी खलबली मच चुकी है. गठबंधन के कई साथी पाला बदल चुके हैं. अगर बीजेपी विधानसभा चुनाव हारती है तो 2024 में निश्चित तौर पर लोकसभा में भी उसे नुकसान झेलना होगा. इससे नरेंद्र मोदी के लिए दिल्ली की राह आसान नहीं रहेगी.