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UP विधानसभा चुनाव 2022 में बसपा ने उतारे सोशल इंजीनियर

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Published : Jul 23, 2021, 9:29 PM IST

मायावती ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में फिर सत्ता हासिल करने के लिए फिर से 2007 के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को अपना रही हैं. इसकी शुरुआत बसपा नेता सतीश चंद्र मिश्रा ने अयोध्या में प्रबुद्ध समाज के सम्मान सुरक्षा व तरक्की संगोष्ठी से कर दी है.

बसपा प्रमुख मायावती
बसपा प्रमुख मायावती

लखनऊ: सत्ता से दूर बसपा प्रमुख मायावती (Mayawati) एक बार फिर उत्तर प्रदेश की सियासत का बागडोर संभालने के लिए जुट गई हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) में कुर्सी हासिल करने के लिए मायावती फिर से 2007 के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को अपना रही है. इसकी शुरुआत सतीश चंद्र ने अयोध्या में प्रबुद्ध समाज के सम्मान सुरक्षा व तरक्की की संगोष्ठी से की है.

अयोध्या से सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत
आपको बता दें कि 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया था. 2007 के चुनाव में बसपा ने ब्राम्हणों को साधने के लिए ब्राह्मण सम्मेलन से चुनाव अभियान की शुरुआत की थी. बसपा फिर अपने पुराने फार्मूले पर लौट आई है. मायावती ने 2007 में यूपी के चुनाव में 403 में से 206 सीटें जीतकर और 30 फीसदी वोट के साथ सत्ता हासिल की थी.

मायावती ने ओबीसी, दलितों, ब्राह्मणों, और मुसलमानों के साथ एक मंच पर लाकर सत्ता हासिल की थी. 2007 की तर्ज पर इस बार भी मायावती ब्राह्मणों को साधने के लिए अभियान शुरू कर दी है.

2007 में मायावती ने 81 ब्राह्मण चेहरे को अपना उम्मीदवार बनाया था, जिनमें से 41 विजयी हुए थे. उस समय भी बसपा ने एक साल पहले से ही सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाते हुए उम्मीदवारों का चयन कर लिया था. जिससे उम्मीदवारों को अपने क्षेत्रों का दौरा करने और जनता तक पहुंचने का काफी समय मिल गया था. इसी का फायदा उठाते हुए बसपा ने पूर्ण बहुमत हासिल किया था. इसी तर्ज पर 2022 के विधानसभा चुनाव से लगभग 6 महीने पहले बसपा ने अपनी जड़ो को मजबूत करने की शुरुआत सतीश चंद्र मिश्रा ने अयोध्या से कर दी है.

कैसे कम हुआ बसपा का जनाधार
राजनीतिक विशलेषकों का कहना है कि मायावती ने राजनीति में अपनी शुरुआत बड़े दलित जनाधार के साथ की थी, लेकिन 2012 के बाद से बसपा का जनाधार लगातार खिसकता गया. 2012 में मायावती ने अपनी सत्ता गंवाई और फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता भी नहीं खुला. 2017 में पार्टी 20 सीटों के नीचे सिमट गई, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में वह सपा के साथ गठबंधन कर 10 सीटें जीतने में सफल रही.

इस तरह अब बसपा का आधार जाटव समुदाय और कुछ मुस्लिम वोटो में सिमट गया है. ऐसे में मायावती ओबीसी, ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम वोटों का फॉर्मूला बनाना चाहती हैं. इस फॉर्मूले को ध्यान में रखते हुए सेक्टर प्रभारी प्रत्याशियों का चयन कर रहे हैं.

यूपी की सियासत में ब्राह्मण क्यों जरूरी?
यूपी में लगभग 12 प्रतिशत ब्राह्मण मतदाता हैं. कहा जाता है कि ब्राह्मणों ने जिसका साथ दे दिया उसकी सरकार बन जाती है. 2007 में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तब ब्राह्मणों ने बसपा का साथ दिया था. जिसका परिणाम था कि बसपा ने चुनाव जीतकर पूरे देश की राजनीति में हंगामा मचा दिया था.

वहीं, 2012 में ब्राह्मण समाजवादी पार्टी के साथ चले गए और अखिलेश यादव यूपी के सीएम बन गए. जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव से यूपी के ब्राह्मण मतदाता पूरी तरह बीजेपी के साथ हैं. 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ गए तो यूपी में 325 सीटों के साथ बीजेपी का सरकार बनी थी.

इसे भी पढ़े-एनकाउंटर में ब्राह्मणों को मारा गया, अब बदले का वक्त आ गया है : बसपा

लखनऊ: सत्ता से दूर बसपा प्रमुख मायावती (Mayawati) एक बार फिर उत्तर प्रदेश की सियासत का बागडोर संभालने के लिए जुट गई हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) में कुर्सी हासिल करने के लिए मायावती फिर से 2007 के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को अपना रही है. इसकी शुरुआत सतीश चंद्र ने अयोध्या में प्रबुद्ध समाज के सम्मान सुरक्षा व तरक्की की संगोष्ठी से की है.

अयोध्या से सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत
आपको बता दें कि 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया था. 2007 के चुनाव में बसपा ने ब्राम्हणों को साधने के लिए ब्राह्मण सम्मेलन से चुनाव अभियान की शुरुआत की थी. बसपा फिर अपने पुराने फार्मूले पर लौट आई है. मायावती ने 2007 में यूपी के चुनाव में 403 में से 206 सीटें जीतकर और 30 फीसदी वोट के साथ सत्ता हासिल की थी.

मायावती ने ओबीसी, दलितों, ब्राह्मणों, और मुसलमानों के साथ एक मंच पर लाकर सत्ता हासिल की थी. 2007 की तर्ज पर इस बार भी मायावती ब्राह्मणों को साधने के लिए अभियान शुरू कर दी है.

2007 में मायावती ने 81 ब्राह्मण चेहरे को अपना उम्मीदवार बनाया था, जिनमें से 41 विजयी हुए थे. उस समय भी बसपा ने एक साल पहले से ही सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाते हुए उम्मीदवारों का चयन कर लिया था. जिससे उम्मीदवारों को अपने क्षेत्रों का दौरा करने और जनता तक पहुंचने का काफी समय मिल गया था. इसी का फायदा उठाते हुए बसपा ने पूर्ण बहुमत हासिल किया था. इसी तर्ज पर 2022 के विधानसभा चुनाव से लगभग 6 महीने पहले बसपा ने अपनी जड़ो को मजबूत करने की शुरुआत सतीश चंद्र मिश्रा ने अयोध्या से कर दी है.

कैसे कम हुआ बसपा का जनाधार
राजनीतिक विशलेषकों का कहना है कि मायावती ने राजनीति में अपनी शुरुआत बड़े दलित जनाधार के साथ की थी, लेकिन 2012 के बाद से बसपा का जनाधार लगातार खिसकता गया. 2012 में मायावती ने अपनी सत्ता गंवाई और फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता भी नहीं खुला. 2017 में पार्टी 20 सीटों के नीचे सिमट गई, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में वह सपा के साथ गठबंधन कर 10 सीटें जीतने में सफल रही.

इस तरह अब बसपा का आधार जाटव समुदाय और कुछ मुस्लिम वोटो में सिमट गया है. ऐसे में मायावती ओबीसी, ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम वोटों का फॉर्मूला बनाना चाहती हैं. इस फॉर्मूले को ध्यान में रखते हुए सेक्टर प्रभारी प्रत्याशियों का चयन कर रहे हैं.

यूपी की सियासत में ब्राह्मण क्यों जरूरी?
यूपी में लगभग 12 प्रतिशत ब्राह्मण मतदाता हैं. कहा जाता है कि ब्राह्मणों ने जिसका साथ दे दिया उसकी सरकार बन जाती है. 2007 में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तब ब्राह्मणों ने बसपा का साथ दिया था. जिसका परिणाम था कि बसपा ने चुनाव जीतकर पूरे देश की राजनीति में हंगामा मचा दिया था.

वहीं, 2012 में ब्राह्मण समाजवादी पार्टी के साथ चले गए और अखिलेश यादव यूपी के सीएम बन गए. जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव से यूपी के ब्राह्मण मतदाता पूरी तरह बीजेपी के साथ हैं. 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ गए तो यूपी में 325 सीटों के साथ बीजेपी का सरकार बनी थी.

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