वाराणसी: "तुम मेरा चेहरा-मेरा शरीर जला सकते हो. मुझे तकलीफ पहुंचा सकते हो. मुझे दर्द दे सकते हो. मगर तुम नहीं छीन सकते हो मेरा हौंसला. मेरी अपनी ताकत. मेरा हौंसला तुम्हारे लिए डर बन जाएगा और मेरी जीत का रास्ता." कुछ यही जुनून लेकर आगे बढ़ीं काशी की 12 साल की वो छोटी बच्ची, जिसका चेहरा तेजाब से जला दिया गया था. 37 से ज्यादा ऑपरेशन कराने पड़े. परिवार ने आर्थिक तंगी झेली. लोग 'नककटी' जैसे ताने मारते थे. आसपास लोग थे, लेकिन अंदर की जो चीख थी उसे सुनने वाला कोई नहीं था. आज वही छोटी बच्ची मंगला कपूर कई महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई हैं.
प्रो. मंगला कपूर ने ईटीवी भारत से रूंधे हुए गले से अपना दर्द साझा किया. बताया, 'मैं करीब साढ़े ग्यारह-बारह साल की थी. घर में बनारसी साड़ी का बिजनेस था. उसके कारण कुछ विरोधी थे. लोगों में द्वेष था. रात के करीब 2:00-2:30 बजे के बीच की यह घटना थी. मैं उस समय सो रही थी. कुछ लोगों ने नौकर को पैसा देकर के हमारे ऊपर एसिड अटैक करवाया था. मुझे तो यह भी नहीं पता था कि एसिड अटैक क्या होता है. तेजाब किसे कहते हैं. उस समय जमाना इतना आगे नहीं निकला था. स्कूल जाना वहां से घर आना यही जिंदगी होती थी. जब मेरे साथ ये हुआ मैं अस्पताल में एडमिट हुई. करीब 6 साल तक मैं 37 ऑपरेशन पर ऑपरेशन झेलती गई.'
समाज की मानसिकता से लड़ी एक बड़ी जंगः हम जिन मंगला कपूर की बात कर रहे हैं वह आज प्रोफेसर मंगला कपूर के नाम से जानी जाती हैं. मंगला कपूर अपनी आवाज के लिए जानी जाती हैं. मंगला कपूर जानी जाती हैं, अपने हुनर और अपनी किताब 'सीरत' के लिए. एक एसिड अटैक सर्वाइवर बनकर, दीन-हीन बनकर जीना प्रो. मंगला कपूर ने कभी स्वीकार नहीं किया. उन्होंने खुद को उस दर्द से बाहर निकाला और अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से जीना शुरू किया. उन्होंने एक बड़ी जंग लड़ी इस समाज की मानसिकता से, इस समाज के ठेकेदारों से. खुद को इतना मजबूत बनाया कि उन्हें किसी की दया की जरूरत नहीं पड़ी. प्रो. मंगला अपने लिए खुद ही एक मजबूत लाठी बनकर खड़ी हुईं.
अस्पताल के बेड पर बच्ची से जवान हुईं मंगला कपूरः प्रो. मंगला ने बताया, 'मुझसे डॉक्टरों ने कहा कि एक दिन तुम पहले से ज्यादा सुंदर हो जाओगी. यही वजह थी कि मैं ऑपरेशन पर ऑपरेशन कराती चली गई. मैं 6 साल अस्पताल में भर्ती रही. बेड पर पड़े-पड़े बच्ची से जवान हो गई. उस समय मैं 18 साल की थी. तब मुझे लगा कि मेरे साथ बहुत कुछ भयानक हुआ है.' वह बताती हैं, 'मेरा चेहरा इतना खराब हो गया था कि मैं डर के मारे घर से नहीं निकलती थी. जब एसिड अटैक हुआ उस समय मैं 7वीं कक्षा में पढ़ती थी. मगर जमाने वालों ने इतने ताने कसे कि मैं पढ़ने के लिए नहीं निकल सकी. मैं संगीत का शौक रखती थी. इसलिए घर में रहकर मैंने संगीत का सफर शुरू किया.'
BHU से पीएचडी की पर, चेहरे के कारण नौकरी में दिक्कतः 'प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद की प्रभाकर की परीक्षा मैंने पास की. इसके साथ-साथ मैंने प्राइवेट फॉर्म भरकर अपनी पढ़ाई पूरी की. मैंने बीएचयू के संगीत एवं कला संकाय से संगीत में पीएचडी की. इसके लिए मुझे UGC स्कॉलरशिप भी मिली. इसके बाद नौकरी की समस्या भी सामने आई. कई जगह पर कोशिश की, लेकिन फिर मेरा चेहरा आड़े आ जाता और मुझे कहीं पर रखा नहीं जाता था. BHU में ही महिला महाविद्यालय है. उसमें वेकेंसी आई. वहां बतौर लेक्चरर मेरी नियुक्ति हो गई और मैं वहां पढ़ाने लगी.' प्रो. मंगला ने अपनी उपलब्धि गिनाई जरूर, लेकिन उनकी आंखों में समाज से मिला वो दर्द साफ झलक रहा था. जहां उन्हें सिर्फ ताने ही मिले थे. किसी का समर्थन नहीं मिला था.
रिश्तेदारों ने मां को सलाह दी थी कि इसको जहर का इंजेक्शन लगा दोः 'समाज ने उस समय कभी मुझे स्वीकारा ही नहीं. रिश्तेदार तक कहते थे कि कहीं ये मत बताना कि तुम लोग मेरे रिश्तेदार हो. कुछ जो वेल विशर थे, उन्होंने मेरी मां को सलाह दी थी कि इसको एक बार में जहर का इंजेक्शन लगवा दो काम खत्म हो जाए. जीवन भर इसको कहां ढोती फिरोगी. समाज मुझे बड़ी हेय दृष्टि से देखता था. उस 11-12 साल की बच्ची को किसी प्रेमी के साथ कोई कहानी को जोड़कर बताया जाता था. 1965 की बात है ये. उस जमाने में कहा जाता था कि इसका कहीं अफेयर था. उस समय ये सब सोचना ही हमारे दिमाग से बाहर था. ये सब भी मुझे सहना पड़ा.', प्रो. मंगला ने समाज के उस दुर्दांत चेहरे को सामने रख दिया और एक काली हकीकत बताई.
मेरी आवाज ऐसी थी कि लोग लता जी की आवाज कहतेः आपको पता है? प्रो. मंगला ने शादी नहीं की है. वे बताती हैं, 'शादी का सवाल ही नहीं उठता था. लोग सुंदर-सुंदर लड़कियों से शादी करते हैं और बाद में कहीं न कहीं किसी न किसी तरीके से रिश्ता तोड़ देते हैं. उन्हें जला देते हैं मार देते हैं. मैं ये सब चीजें सुना करती थी. मैं शादी के नाम से चिढ़ती थी. मुझे लगता था कि एक परित्यकता कहे जाने से अच्छा है कि मैं स्वच्छंद रहूं. मैं अपने पैरों पर खड़ी रहूं.'
प्रो. मंगला के जीवन में एक नया मोड़ 'सीरत' के आने के बाद आया. वे बताती हैं, 'इससे पहले जब मैं बीए में थी और पढ़ा रही थी. तब कुछ लोगों ने मेरी आवाज को सुना उन्होंने मुझे गाने के लिए प्रस्ताव दिया. मैंने स्टेज पर गाना शुरू किया. कई हजार स्टेज कार्यक्रम मैंने किए. जहां से मुझे प्रसिद्धि मिली. लोग मेरी आवाज को लता जी की आवाज से मिलाते थे. वे लता जी का ही गाना कहते थे.'
साल 2018 में आई सीरत पर दो भाषाओं में बन रही फिल्मः 'बीएचयू में मुझे बड़े लोगों से सम्मान मिला. वहां से रिटायर होने से पहले मैंने अपनी कहानी लिखनी शुरू की थी. 2018 में वह किताब पूरी हुई, जिसका नाम 'सीरत' रखा. जब किताब समाज में सबके सामने आई तो लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं मिलीं. लोगों ने यह कहा कि आपकी 'सीरत' बिना रोए हम एक बार में कभी नहीं पढ़ पाए.' प्रो. मंगला अपनी प्रस्तावित फिल्म को लेकर बताती हैं, 'मुझे अचानक ही मुंबई से डायरेक्टर-प्रोड्यूसर अपर्णा का एक दिन फोन आया. वे मुझसे मिलना चाहती थीं. वह मेरे ऊपर डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहती थीं. इसके बाद सितंबर में उनकी टीम आई और 4-5 दिन शूटिंग के बाद डॉक्यूमेंट्री बनी है. इसी पर फिल्म लिखी जा रही है. यह मराठी और हिन्दी दो भाषाओं में बनाई जाएगी.'
सरकार की तरफ से दिव्यांगता में नहीं मिला कोई लाभः बात एसिड सर्वाइवर्स के लिए सरकार की जिम्मेदारी की आई तो उन्होंने जो कहा वह पांव के नीचे से जमीन खिसकाने वाला था. सरकार एसिड सर्वाइवर्स को दिव्यांग की श्रेणी में रखती है. उन्हें इसका क्या लाभ मिला? वे कहती हैं, 'मुझे कोई लाभ इसका नहीं मिला. असल में मुझे इसके बारे में पता ही नहीं था. एक दिन एक दिव्यांग बंधु से संपर्क हुआ. सरकार ने विकलांग को दिव्यांग का नाम दिया ये अच्छा है. इसमें एसिड अटैक पीड़िताओं को भी जोड़ा गया, लेकिन उसका लाभ सिर्फ कागजों पर ही है. हमने इसके लिए प्रयास भी किया, लेकिन कभी भी इसका लाभ हमें मिला ही नहीं. डॉक्टर्स ने बनाया ही नहीं. हालांकि मैंने अपना जीवन बिना मदद के जी लिया तो अब यह मिले या न मिले कोई जरूरत नहीं.'
पुलिस ने केस को दबा दियाः साल 1965 में ये दुर्दांद घटना घटी. ये देश के लिए पहली घटना थी. इस पर वह कहती हैं, 'मेरे साथ इस घटना को अंजाम देने वाले दोषी कभी भी पकड़े नहीं जा सके. पुलिस ने दिखावा किया और केस को दबा दिया गया. जो डॉक्टर मेरा इलाज कर रहे थे उन्हें भी खिला-पिलाकर कहा गया कि यह किसी तरह बच न पाए. कोई बयान न देने पाए. उस दौरान समाज के किसी व्यक्ति ने मेरी सहायता नहीं की. मेरे माता-पिता ने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया. आज लोग मुझे प्रोफेसर मंगला कपूर के नाम से पूछते हैं या फिर मेरी आवाज के कारण पूछते हैं. लोगों का नजरिया आज भी नहीं बदला है. मुझे किसी की दया नहीं चाहिए. मैं बेचारी नहीं हूं. सही सलामत लोगों से ठीक हूं. 70 साल की उम्र में भी मैं आज काम कर रही हूं. मैं उस समाज के लिए काम कर रही हूं, जिसने मेरे लिए कुछ नहीं किया.'