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'कॉलेजियम व्यवस्था ठीक, पर स्क्रीनिंग कमेटी जरूरी'

क्या कॉलेजियम व्यवस्था जारी रहनी चाहिए, इस पर लंबे समय से बहस चल रही है. एक ओर सुप्रीम कोर्ट जहां इसे सबसे अच्छी व्यवस्था मानती है, वहीं दूसरी ओर सरकार चाहती है कि इसकी जगह पर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन किया जाए. इस मामले पर याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. इस विषय पर ईटीवी भारत संवाददाता मैत्री झा ने कानूनी मामलों के जानकार अश्विनी उपाध्याय से बातचीत की है. वह खुद याचिकाकर्ता भी हैं. पढ़ें पूरी खबर.

Ashwini upadhyay
अश्विनी उपाध्याय
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Published : Dec 28, 2022, 5:33 PM IST

Updated : Dec 28, 2022, 6:37 PM IST

नई दिल्ली : हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है, लेकिन पिछले कुछ समय से टकराव गहराता दिख रहा है. कॉलेजियम को लेकर सरकार और न्यायपालिका आमने-सामने हैं. क्योंकि सरकार चाहती है कि राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन किया जाए जिसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार शामिल हो और न्यायपालिका चाहती है कि कॉलेजियम प्रणाली जारी रहे, क्योंकि उसे लगता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप प्रणाली को बाधित करेगा.

इसी मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) भी लंबित है, जिसमें कॉलेजियम प्रणाली को जारी रखने की मांग की गई है लेकिन एक सचिवालय और स्वतंत्र जांच समिति के साथ, ताकि व्यवस्था और अधिक कुशल बन सके. यह जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है. उन्होंने पूरे मामले को लेकर ईटीवी भारत से बात की और कॉलेजियम की व्यवस्था का समर्थन किया. उपाध्याय ने कहा कि कॉलेजियम को जारी रहना चाहिए लेकिन एनजेएसी के फैसले के बाद एक सचिवालय और स्क्रीनिंग कमेटी होनी चाहिए.

उन्होंने कहा कि वर्तमान में केवल हाई कोर्ट के मामले में वरिष्ठतम तीन न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के मामले में वरिष्ठतम पांच न्यायाधीश कॉलेजियम का गठन करते हैं, जो शायद हर एक को नहीं जानते हैं और नामों पर विचार करते समय कुछ अच्छे अधिवक्ताओं को छोड़ दिया जाता है जो अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ होते हैं. एक उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि वर्तमान में इलाहाबाद हाई कोर्ट में 150 से अधिक न्यायाधीश हैं और उन्होंने आपराधिक, कर, दीवानी मामलों आदि को आपस में बांट लिया है.

उन्होंने कहा कि अधिवक्ता किसी विशेष क्षेत्र में प्रैक्टिस करते हैं और संभव है कि वह उन जजों की अदालत में न जाएं जो वरिष्ठतम हैं और जो कॉलेजियम का गठन करते हैं. उसे और अच्छा किया जा सकता है लेकिन कोई बातचीत नहीं होने के कारण कॉलेजियम को पता नहीं चलेगा इसलिए जज के लिए नामों पर विचार नहीं किया जाएगा. अधिवक्ता उपाध्याय ने कहा कि इससे बचने के लिए फुल कोर्ट मीटिंग होनी चाहिए जिसमें सभी जज बैठ कर नामों पर चर्चा करें और फिर आम सहमति से नहीं तो वोटिंग के जरिए जजशिप के लिए नामों को अंतिम रूप दें.

उन्होंने कहा कि अगर लोकसभा में जहां 500 लोग किसी कानून के लिए वोट करते हैं तो यह संभव है, यह अदालतों में भी बहुत संभव है. इसके अलावा उन्होंने कहा कि हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले लोगों को उसी अदालत में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए और राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति के लिए अंतिम मंजूरी दिए जाने के बाद उनका तबादला कर दिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि अधिवक्ता एक-दूसरे को जानते हैं, 15-20 साल एक साथ बिताए हैं, एक साथ खाते हैं, एक साथ टेबल टेनिस खेलते हैं और आखिरकार वे इंसान हैं और उनके दिमाग में पक्षपात हो सकता है जब उनके दोस्त किसी मामले के बारे में उनके सामने बहस करते हैं.

उपाध्याय ने कहा, जहां वे प्रैक्टिस करते हैं तो उन्हें वहां नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए. शीर्ष अदालत में नियुक्तियों के मामले में उपाध्याय ने कहा कि पिछले 10 वर्षों में केवल 3 अधिवक्ताओं को सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया है ताकि न्याय वितरण प्रणाली को नुकसान पहुंचाए बिना आवृत्ति को प्रबंधित किया जा सके. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में वे खंडपीठों में बैठते हैं न कि एकल न्यायाधीशों की पीठ में कि यह मामले को पूरी तरह से प्रभावित करेगा. एनजेएसी प्रणाली की कमियों के बारे में बात करते हुए उपाध्याय ने कहा कि यह हाई कोर्ट में आरक्षण प्रणाली शुरू करेगा जो न्याय वितरण प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा. उन्होंने कहा कि जिला अदालतों के मामले में आरक्षण मौजूद है, लेकिन आदेशों पर नजर रखने के लिए हाई कोर्ट हैं.

उन्होंने कहा कि ऐसे में मुश्किल हो जाएगा अगर हाई कोर्ट में भी सिर्फ योग्यता के बजाय आरक्षण पर आधारित लोग हों. उन्होंने सुझाव दिया कि यूपीएससी जैसे पैटर्न का पालन किया जाना चाहिए जिसमें अखिल भारतीय परीक्षा आयोजित की जाती है, देश भर से अधिवक्ता आवेदन करते हैं और इसे उत्तीर्ण करते हैं. इससे मेधावी प्रतिभाओं को बढ़ावा मिल सकेगा.

ये भी पढ़ें - उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को वापस भेजे 20 नाम- कानून मंत्री

नई दिल्ली : हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है, लेकिन पिछले कुछ समय से टकराव गहराता दिख रहा है. कॉलेजियम को लेकर सरकार और न्यायपालिका आमने-सामने हैं. क्योंकि सरकार चाहती है कि राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन किया जाए जिसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार शामिल हो और न्यायपालिका चाहती है कि कॉलेजियम प्रणाली जारी रहे, क्योंकि उसे लगता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप प्रणाली को बाधित करेगा.

इसी मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) भी लंबित है, जिसमें कॉलेजियम प्रणाली को जारी रखने की मांग की गई है लेकिन एक सचिवालय और स्वतंत्र जांच समिति के साथ, ताकि व्यवस्था और अधिक कुशल बन सके. यह जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है. उन्होंने पूरे मामले को लेकर ईटीवी भारत से बात की और कॉलेजियम की व्यवस्था का समर्थन किया. उपाध्याय ने कहा कि कॉलेजियम को जारी रहना चाहिए लेकिन एनजेएसी के फैसले के बाद एक सचिवालय और स्क्रीनिंग कमेटी होनी चाहिए.

उन्होंने कहा कि वर्तमान में केवल हाई कोर्ट के मामले में वरिष्ठतम तीन न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के मामले में वरिष्ठतम पांच न्यायाधीश कॉलेजियम का गठन करते हैं, जो शायद हर एक को नहीं जानते हैं और नामों पर विचार करते समय कुछ अच्छे अधिवक्ताओं को छोड़ दिया जाता है जो अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ होते हैं. एक उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि वर्तमान में इलाहाबाद हाई कोर्ट में 150 से अधिक न्यायाधीश हैं और उन्होंने आपराधिक, कर, दीवानी मामलों आदि को आपस में बांट लिया है.

उन्होंने कहा कि अधिवक्ता किसी विशेष क्षेत्र में प्रैक्टिस करते हैं और संभव है कि वह उन जजों की अदालत में न जाएं जो वरिष्ठतम हैं और जो कॉलेजियम का गठन करते हैं. उसे और अच्छा किया जा सकता है लेकिन कोई बातचीत नहीं होने के कारण कॉलेजियम को पता नहीं चलेगा इसलिए जज के लिए नामों पर विचार नहीं किया जाएगा. अधिवक्ता उपाध्याय ने कहा कि इससे बचने के लिए फुल कोर्ट मीटिंग होनी चाहिए जिसमें सभी जज बैठ कर नामों पर चर्चा करें और फिर आम सहमति से नहीं तो वोटिंग के जरिए जजशिप के लिए नामों को अंतिम रूप दें.

उन्होंने कहा कि अगर लोकसभा में जहां 500 लोग किसी कानून के लिए वोट करते हैं तो यह संभव है, यह अदालतों में भी बहुत संभव है. इसके अलावा उन्होंने कहा कि हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले लोगों को उसी अदालत में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए और राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति के लिए अंतिम मंजूरी दिए जाने के बाद उनका तबादला कर दिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि अधिवक्ता एक-दूसरे को जानते हैं, 15-20 साल एक साथ बिताए हैं, एक साथ खाते हैं, एक साथ टेबल टेनिस खेलते हैं और आखिरकार वे इंसान हैं और उनके दिमाग में पक्षपात हो सकता है जब उनके दोस्त किसी मामले के बारे में उनके सामने बहस करते हैं.

उपाध्याय ने कहा, जहां वे प्रैक्टिस करते हैं तो उन्हें वहां नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए. शीर्ष अदालत में नियुक्तियों के मामले में उपाध्याय ने कहा कि पिछले 10 वर्षों में केवल 3 अधिवक्ताओं को सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया है ताकि न्याय वितरण प्रणाली को नुकसान पहुंचाए बिना आवृत्ति को प्रबंधित किया जा सके. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में वे खंडपीठों में बैठते हैं न कि एकल न्यायाधीशों की पीठ में कि यह मामले को पूरी तरह से प्रभावित करेगा. एनजेएसी प्रणाली की कमियों के बारे में बात करते हुए उपाध्याय ने कहा कि यह हाई कोर्ट में आरक्षण प्रणाली शुरू करेगा जो न्याय वितरण प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा. उन्होंने कहा कि जिला अदालतों के मामले में आरक्षण मौजूद है, लेकिन आदेशों पर नजर रखने के लिए हाई कोर्ट हैं.

उन्होंने कहा कि ऐसे में मुश्किल हो जाएगा अगर हाई कोर्ट में भी सिर्फ योग्यता के बजाय आरक्षण पर आधारित लोग हों. उन्होंने सुझाव दिया कि यूपीएससी जैसे पैटर्न का पालन किया जाना चाहिए जिसमें अखिल भारतीय परीक्षा आयोजित की जाती है, देश भर से अधिवक्ता आवेदन करते हैं और इसे उत्तीर्ण करते हैं. इससे मेधावी प्रतिभाओं को बढ़ावा मिल सकेगा.

ये भी पढ़ें - उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को वापस भेजे 20 नाम- कानून मंत्री

Last Updated : Dec 28, 2022, 6:37 PM IST
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