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बेलगाम आपराधिक राजनीति : क्या निर्वाचन आयोग की कोई जिम्मेदारी नहीं? - सुप्रीम कोर्ट

बिहार चुनाव में 89 प्रतिशत से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तीन से अधिक उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा. आपराधिक राजनीति को खत्म न कर पाने के लिए दोषी कौन और कैसे मिलेगी इससे निजात को जानने के लिए पढ़ें पूरी रिपोर्ट.

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आपराधिक राजनीति
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Published : Nov 20, 2020, 7:38 PM IST

हैदराबाद: बिहार चुनाव दो कारणों से निराले कहे जा सकते हैं – पहला कारण ये कि वे कोविड संकट के दौरान आयोजित किए गए और दूसरा कि वे ऐसे समय में हुए, जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजनीतिक दलों पर आपराधिक राजनीति को खत्म करने का पूरा दारोमदार सौंप दिया गया है. 13 फरवरी को, न्यायपालिका ने स्पष्ट तौर पर कहा कि उम्मीदवारों के चयन के लिए एकमात्र मापदंड चुनाव में सफलता की संभावना नहीं है और यह भी कि राजनीतिक दलों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को टिकट क्यों दिया है.

राजनीतिक दलों ने इन आदेशों की परवाह नहीं की. यह तथ्य इस बात से साफ हो जाता है कि 89 प्रतिशत से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तीन से अधिक उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा है. जिन दलों ने बाहुबलियों को बाहुबल और धन शक्ति के साथ एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने के लिए चुनाव के मैदान में उतारा, उन्होंने बाहुबलियों की लोकप्रियता, सामाजिक सेवा, शैक्षिक योग्यता, कोविड संकट से निपटने में कुशल प्रदर्शन आदि गुणों और योग्यता का प्रायोजित तरीके से प्रचार किया.

साथ ही आपराधिक मामलों को विरोधियों द्वारा राजनीति से प्रेरित आरोप बताते हुए दरकिनार कर दिया. उन्होंने कुछ अलोकप्रिय हिंदी अखबारों में अपने उम्मीदवारों की विशेषताओं और आपराधिक मामलों के ब्यौरे को प्रकाशित किया और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का पालन करने की औपचारिकता पूरी कर दी. चुनाव आयोग के आदेशों की यह भावना कि उम्मीदवारों को मतदान की तारीख से पहले मीडिया के माध्यम से बार-बार अपने आपराधिक रिकॉर्ड के इतिहास की घोषणा करनी चाहिए कहीं खो सी गई.

नतीजतन, आज बिहार विधानसभा में आपराधिक रिकॉर्ड के साथ 68 प्रतिशत सदस्यों ने प्रवेश कर लिया है – जोकि पिछली विधानसभा की तुलना में दस प्रतिशत अधिक है. हत्या, अपहरण और महिलाओं पर अत्याचार जैसे जघन्य अपराधों के आरोपों का सामना कर रहे नए विधायकों की कुल संख्या में 51 प्रतिशत की रिकॉर्ड बढ़त देखी गई है, जिसमें 73 प्रतिशत राजद के सदस्य हैं. 64% भाजपा के, 43 में से 20 जद (यू) के और 19 में से 18 कांग्रेस के विधायक अपराधी हैं. बिहार के अच्छे दिनों को आपराधिक राजनीतिक दीमकों द्वारा चाट लिया गया है.

जिस राज्य में आपराधिक राजनीति व्याप्त है, वहां विकास एक उथला शब्द मालूम होता है. बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और यूपी की प्रति व्यक्ति आय 1980 के दशक में लगभग एक सी थी. 1990 के आर्थिक सुधारों का लाभ उठाते हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश ने सुधार करते हुए बिहार को पीछे छोड़ दिया. बिहार में आपराधिक राजनीति के उदय के साथ औद्योगिक प्रगति थम गई है. बेरोजगारों का आंकड़ा और श्रमिकों का प्रवासन साल दर साल बढ़ता जा रहा है.

एक जनहित याचिका भी दायर की गई है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि निर्वाचन आयोग भी आपराधिक राजनीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से जारी किए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को निष्प्रभावी बनाने के लिए जिम्मेदार है. अगर चुनाव आयोग, जिसके पास स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की संवैधानिक जिम्मेदारी है, सर्वोच्च न्यायलय के आदेशों का सख्ती से पालन करता तो क्या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग चुनाव जीतकर विधानसभा के सदस्यों के तौर पर इस तरह आजादी से घूमने का दुस्साहस करने के बारे में सोच भी पाते?

पढ़ें- बिहार : पद संभालते ही शिक्षा मंत्री मेवालाल चौधरी की सेवा समाप्त

संवैधानिक न्यायाधिकरण का सुझाव है कि भ्रष्टाचार और आपराधिक राजनीति लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर उन्हें नुकसान पहुंचा रही है और इस खतरे का मुकाबला करने के लिए संसद को एक विशेष अधिनियम पारित करना चाहिए, जिस पर आज तक कभी विचार नहीं किया गया है. यह इस धारणा के खिलाफ है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों में आशावाद व्यक्त किया जा रहा है कि अगर कोई ऐसा माहौल तैयार किया जाए, जहां लोग अपने उम्मीदवारों के बारे में पूरी तरह से जानकारी रखे और सतर्कता से मतदान करे, तो आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों से मुक्ति पाई जा सकती है.

ऐसे मामलों में चुनाव आयोग को उम्मीदवारों के व्यापक विवरण प्राप्त करने और मीडिया के माध्यम से अपराधियों की पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार के बारे में जनता को सूचित करने की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेनी चाहिए? यदि यह जानना लोगों का अधिकार है, तो उन्हें सूचित करना चुनाव आयोग का कर्तव्य होना चाहिए. यदि सही मायने में आपराधिक राजनीति को नियंत्रित कर और उसे मिटाना है तो इस प्रकार के सुधार आवश्यक हैं.

हैदराबाद: बिहार चुनाव दो कारणों से निराले कहे जा सकते हैं – पहला कारण ये कि वे कोविड संकट के दौरान आयोजित किए गए और दूसरा कि वे ऐसे समय में हुए, जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजनीतिक दलों पर आपराधिक राजनीति को खत्म करने का पूरा दारोमदार सौंप दिया गया है. 13 फरवरी को, न्यायपालिका ने स्पष्ट तौर पर कहा कि उम्मीदवारों के चयन के लिए एकमात्र मापदंड चुनाव में सफलता की संभावना नहीं है और यह भी कि राजनीतिक दलों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को टिकट क्यों दिया है.

राजनीतिक दलों ने इन आदेशों की परवाह नहीं की. यह तथ्य इस बात से साफ हो जाता है कि 89 प्रतिशत से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तीन से अधिक उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा है. जिन दलों ने बाहुबलियों को बाहुबल और धन शक्ति के साथ एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने के लिए चुनाव के मैदान में उतारा, उन्होंने बाहुबलियों की लोकप्रियता, सामाजिक सेवा, शैक्षिक योग्यता, कोविड संकट से निपटने में कुशल प्रदर्शन आदि गुणों और योग्यता का प्रायोजित तरीके से प्रचार किया.

साथ ही आपराधिक मामलों को विरोधियों द्वारा राजनीति से प्रेरित आरोप बताते हुए दरकिनार कर दिया. उन्होंने कुछ अलोकप्रिय हिंदी अखबारों में अपने उम्मीदवारों की विशेषताओं और आपराधिक मामलों के ब्यौरे को प्रकाशित किया और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का पालन करने की औपचारिकता पूरी कर दी. चुनाव आयोग के आदेशों की यह भावना कि उम्मीदवारों को मतदान की तारीख से पहले मीडिया के माध्यम से बार-बार अपने आपराधिक रिकॉर्ड के इतिहास की घोषणा करनी चाहिए कहीं खो सी गई.

नतीजतन, आज बिहार विधानसभा में आपराधिक रिकॉर्ड के साथ 68 प्रतिशत सदस्यों ने प्रवेश कर लिया है – जोकि पिछली विधानसभा की तुलना में दस प्रतिशत अधिक है. हत्या, अपहरण और महिलाओं पर अत्याचार जैसे जघन्य अपराधों के आरोपों का सामना कर रहे नए विधायकों की कुल संख्या में 51 प्रतिशत की रिकॉर्ड बढ़त देखी गई है, जिसमें 73 प्रतिशत राजद के सदस्य हैं. 64% भाजपा के, 43 में से 20 जद (यू) के और 19 में से 18 कांग्रेस के विधायक अपराधी हैं. बिहार के अच्छे दिनों को आपराधिक राजनीतिक दीमकों द्वारा चाट लिया गया है.

जिस राज्य में आपराधिक राजनीति व्याप्त है, वहां विकास एक उथला शब्द मालूम होता है. बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और यूपी की प्रति व्यक्ति आय 1980 के दशक में लगभग एक सी थी. 1990 के आर्थिक सुधारों का लाभ उठाते हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश ने सुधार करते हुए बिहार को पीछे छोड़ दिया. बिहार में आपराधिक राजनीति के उदय के साथ औद्योगिक प्रगति थम गई है. बेरोजगारों का आंकड़ा और श्रमिकों का प्रवासन साल दर साल बढ़ता जा रहा है.

एक जनहित याचिका भी दायर की गई है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि निर्वाचन आयोग भी आपराधिक राजनीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से जारी किए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को निष्प्रभावी बनाने के लिए जिम्मेदार है. अगर चुनाव आयोग, जिसके पास स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की संवैधानिक जिम्मेदारी है, सर्वोच्च न्यायलय के आदेशों का सख्ती से पालन करता तो क्या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग चुनाव जीतकर विधानसभा के सदस्यों के तौर पर इस तरह आजादी से घूमने का दुस्साहस करने के बारे में सोच भी पाते?

पढ़ें- बिहार : पद संभालते ही शिक्षा मंत्री मेवालाल चौधरी की सेवा समाप्त

संवैधानिक न्यायाधिकरण का सुझाव है कि भ्रष्टाचार और आपराधिक राजनीति लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर उन्हें नुकसान पहुंचा रही है और इस खतरे का मुकाबला करने के लिए संसद को एक विशेष अधिनियम पारित करना चाहिए, जिस पर आज तक कभी विचार नहीं किया गया है. यह इस धारणा के खिलाफ है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों में आशावाद व्यक्त किया जा रहा है कि अगर कोई ऐसा माहौल तैयार किया जाए, जहां लोग अपने उम्मीदवारों के बारे में पूरी तरह से जानकारी रखे और सतर्कता से मतदान करे, तो आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों से मुक्ति पाई जा सकती है.

ऐसे मामलों में चुनाव आयोग को उम्मीदवारों के व्यापक विवरण प्राप्त करने और मीडिया के माध्यम से अपराधियों की पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार के बारे में जनता को सूचित करने की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेनी चाहिए? यदि यह जानना लोगों का अधिकार है, तो उन्हें सूचित करना चुनाव आयोग का कर्तव्य होना चाहिए. यदि सही मायने में आपराधिक राजनीति को नियंत्रित कर और उसे मिटाना है तो इस प्रकार के सुधार आवश्यक हैं.

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