सवाल: बहुत से सवाल उठ रहे हैं कि अफ्रीका से लाए गए चीते भारत में एडजस्ट नहीं कर पाएंगे, सच्चाई क्या है ?
जवाब: पहली बात तो ये कि जब हम किसी भी वन्य प्राणी का ट्रांस लोकेशन करते हैं, तो सबसे पहले हम ये देखते हैं कि उनके लायक अनुकूल आबोहवा है या नहीं. सबसे पहले तीन चीज़ों का आकलन करते हैं. वहां की जलवायु उसके अनुकूल है या नहीं, उसके लिए पर्याप्त भोजन है या नहीं और तीसरा ऐसे जानवरों की संख्या कितनी है जो उसे मार सकते हैं. तीनों बातों का अध्ययन करने के बाद हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि उसे लाया जाना चाहिए या नहीं. जहां तक चीते की बात है, मैं साफ कर दूं कि हम लोगों ने चीते के हैबिटेट को स्टडी करने के लिए न केवल भारत में कोशिश की, बल्कि नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका के भी वैज्ञानिक इस कोशिश में लगातार भागीदारी करते रहे और जब तक वो कन्फर्म नहीं हो गए कि यहां की आबो-हवा, यहां का हैबिटेट उपयुक्त है, तब तक उन्होंने भी अनुमति नहीं दी. इसलिए चीते को रीइंट्रोड्यूस करने का जो प्रयास किया गया है, वो बिलकुल सफल होगा, क्योंकि इसके सारे तकनीकी पहलुओं पर ध्यान दिया गया है.
सवाल: क्या वाइल्ड लाइफ में इस तरह का रीलोकेशन कहीं और भी हुआ है इससे पहले?
जवाब: हम देश के भीतर एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश ट्रांसलोकेट कर रहे हैं. हम कई जानवरों को रीलोकेट कर चुके हैं. असम से एक सींग वाले गैंडों को हम लखीमपुर ले आए, जो सफल रहा. एक ही प्रदेश में एक नेशनल पार्क से दूसरे नेशनल पार्क ट्रांसलोकेशन करते रहे हैं, जो सफल रहा है. किंतु किसी भी मैमल का एक महादेश से दूसरे महादेश में ट्रांसलोकेशन आज तक के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है. इससे पहले दुनिया भर में कहीं भी इस तरह का ट्रांसलोकेशन नहीं हुआ. ये पहली घटना है जहां किसी जानवर को अफ्रीका महाद्वीप से एशिया महाद्वीप लाया गया है.
सवाल: सवाल उठ रहे हैं कि चीते को यहां रीलोकेट करना जनता के पैसों का बेजा इस्तेमाल है. साथ ही ये भी कहा जा रहा है कि कूनो की ज़मीन शायद चीते के लिए उपयुक्त न हो.
जवाब: हमने सबसे पहले चीते की उपयोगिता के बारे में प्रदेश सरकारों से बात की, कि कहां उसे रखा जा सकता है. हर प्रदेश से प्रस्ताव आने के बाद वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने इनका अध्ययन किया. इसका मतलब वैज्ञानिक तथ्य और मत दोनों लिए गए. तथ्यों के आधार पर हमने शॉर्ट लिस्टिंग की कि ये हमारा सबसे उपयुक्त स्थल है. इसके बाद चीता मैनेजमेंट के लोग विदेश से हमारे देश आए और उन्होंने इसका अध्ययन किया. कई सप्ताह तक वो लोग यहां बैठे रहे और अध्ययन करते रहे कि क्या प्रजातियां हैं यहां, क्या-क्या जानवर हैं इस इलाके में, क्या-क्या खाने के जानवर हैं, पानी की व्यवस्था क्या है, सुरक्षा की व्यवस्था क्या है, आसपास कितने गांव हैं, चीते को मार सकने वाले जानवर कितने हैं, उससे कैसे बचा जाएगा, बीमारियां क्या होती हैं, इन सब बातों का तकनीकी रूप से अध्ययन किया गया. उन लोगों का कहना था कि यहां की जलवायु अफ्रीका के जंगलों से चीते के लिए ज़्यादा मुफीद है.
सवाल: इन चीतों पर निगाह रखने के लिए क्या किया जा रहा है
जवाब: हमने अभी चीतों को तीस दिन तक के लिए छोटे बाड़े में क्वारंटीन के लिए छोड़ा है. इसकी 24 घंटे मॉनिटरिंग की व्यवस्था की गई है. देखेंगे कि वो हमारी आबोहवा स्वीकार कर रहा है या नहीं, उसमें किस तरह के परिवर्तन आ रहे हैं. देखेंगे कि क्या वे चीते स्ट्रेस से गुज़र रहे हैं. वेटरेनियन और रिसर्चर्स, दोनों के ग्रुप बने हुए हैं और हर चीते को एक ग्रुप वॉच कर रहा है. तीस दिन के बाद हम इनको बड़े बाड़े में छोड़ेंगे. एक बाड़ा दो स्क्वायर किलोमीटर का होगा और उसमें एक ही चीता रहेगा. चूंकि सभी चीतों पर रेडियो कॉलर लगाया गया है, हम उसके व्यवहार में, उसके खानपान में, उसके शिकार करने की हैबिट में क्या परिवर्तन दिख रहे हैं, वो शिकार करने लायक हुआ या नहीं, इस पर ध्यान रखेंगे, क्योंकि जंगल में छोड़े जाने से पहले उसे शिकार करना आना चाहिए. हम निरंतर उसकी निगरानी करेंगे, जब तक वो शिकार करने योग्य न हो जाए.
सवाल: तो उसके शिकार की भी व्यवस्था करनी पड़ी होगी ?
जवाब: किसी भी जानवर को जब हम जंगल में छोड़ते हैं, तो ये भी देखते हैं कि उसके लायक आहार यानी वे जानवर जिनको वो खा सकता है, उसकी डेंसिटी उस इलाके में कितनी है. उन जानवरों के आकार क्या हैं, उपलब्धता कितनी है. इन चीतों को लाने से पहले हमने इन सब बातों का अध्ययन किया था. उसी के बाद हमने पाया कि ये इलाका इन चीतों के लिए अत्यधिक उपयोगी है.
सवाल: ऐसा कहा जाता है कि चीतों को यहां लाने से इस इलाके की डीग्रेडेड ग्रासलैंड रीस्टोर होगी. इसका क्या मतलब है.
जवाब: ये पूरी परियोजना ईको सिस्टम री-स्टोरेशन का जीता जागता सबूत है. हर जगह एक फूड चेन होता है, जो जंगलों में भी है. जंगल में छोटे जानवरों को थोड़ा बड़े जानवर खाते हैं, उसे उससे बड़े जानवर खाते हैं और फिर उस बड़े जानवर को उससे बड़ा जानवर खाता है. चीता उन जानवरों में सबसे बड़ा जानवर है. सबसे नीचे का आहार घास का मैदान हुआ, तो जब तक ये घास के मैदान नहीं होंगे, उसमें छोटे जानवर जैसे खरहे या चिड़ियां नहीं होगी. उन चिड़ियों और खरहों को खाने वाली छोटी बिल्ली नही होगी. बिल्ली को खाने के लिए बाज़ पक्षी होगा, उसे खाने के लिए चीतल होंगे. कुल मिलाकर ये एक तंत्र बना हुआ है. अगर किसी हैबिटेट में सबसे ऊपर का जानवर उपलब्ध है, तो इसका मतलब है आपका तंत्र सुव्यवस्थित है. मतलब उसके आहार के लिए वहां जानवर हैं. इसका मतलब पर्याप्त ग्रासलैंड है और पानी भी.
सवाल: क्या फिलहाल इन चीतों के आहार के लिए कूनो में चीतल भी छोड़े गए हैं ?
जवाब: हम उनको पकड़ कर नहीं दे सकते. कूनो के जंगलों में 17 तरह के जानवर चीतों के खाने के लिए उपलब्ध हैं. बाहर से किसी और जानवर को इसके लिए रीलोकेट करने की आवश्यकता नहीं है. प्रे-एस्टीमेशन के आधार पर ही हमने चीतों को यहां रखने का फैसला किया है.
सवाल: चीतों को लेकर अगले दो साल का प्लान क्या है?
जवाब: जब तक हमारा ये मेटा-पापुलेशन (बाहर से लाए गए जानवर) स्थापित नहीं हो जाते, ब्रीड नहीं करने लगते, एक अलग ईको सिस्टम में फैल नहीं जाते, तब तक हम इसको स्थापित पापुलेशन नहीं मानते. हम अगले पांच सालों में 40 से 45 चीते और लाएंगे. इन पांच सालों में देखेंगे कि इनमें प्रजनन क्षमता क्या है, बच्चे कितने पैदा हुए, जीवित कितने रहे. हो सकता है कोई और जानवर इनको मार दे, लेकिन जब तक इनका पापुलेशन स्थापित नहीं होगा, हम इसको चालू रखेंगे. अगर लाए गए चीते स्थापित हो गए तो हम इनको कूनो के ही बड़े मैदान में छोड़ेंगे, यानी 748 वर्ग किलोमीटर में फैले नेशनल पार्क में इन्हें छोड़ेंगे. अगर इन चीतों का परिवार और बढ़ा तो इसी वन्य क्षेत्र से लगा हुआ जो इलाका 5000 वर्ग किलोमीटर का है, उसमें हम इन्हें छोड़ देंगे.
सवाल: चीता मित्रों का क्या रोल है इसमें ?
जवाब: बहुत अहम भूमिका होगी चीता मित्रों की. प्रधानमंत्री ने भी इन से अलग से मुलाकात की है. ये हमारे वो पार्टनर हैं, जो हमारे चीता प्रबंधन में सहयोग करेंगे. प्रबंधन और स्थानीय लोगों के बीच में वे एक मुख्य कड़ी होंगे. सुरक्षा के लिए, प्रबंधन के लिए और लोगों के आर्थिक विकास के लिए वे महत्वपूर्ण कड़ी हैं. किसी जानवर को लाना तब तक सफल नहीं हो पाता, जब तक कि स्थानीय लोगों की भागीदारी और उनका आर्थिक विकास नहीं होता. जब ईको टूरिज़्म वहां बढ़ेगा, तो ये योजना भी सफल होगी. जैसे राजस्थान में अधिकांश टूरिज्म वन्य जीवों पर आधारित है. हर प्रदेश चाहता है कि उनके यहां टूरिज़्म से इनकम हो. आने वाले समय में चीता मध्य प्रदेश में टूरिज्म का बहुत बड़ा केंद्र होने जा रहा है. इसलिए चीता प्रबंधन और स्थानीय लोगों की भागीदारी के बीच की कड़ी के तौर पर मैं चीता मित्रों को देखता हूं.
सवाल: क्या भारत के किसी और इलाके में भी आपने इस तरह के री-लोकेशन की बात सोची है?
जवाब: फिलहाल जब तक हमारे ये चीते यहां स्थापित नहीं हो जाएंगे, कोई और निर्णय नहीं लिया जाएगा, बेशक विचार इस बारे में चलता रहेगा.
सवाल: चीतों को री-लोकेट करने में इन चीतों को क्या खतरे हो सकते हैं?
जवाब: लगभग 72 साल बाद इनको री इंट्रोड्यूस किया गया है. इसका सहयोगी जानवर तेंदुआ भी इसी जंगल में है. तंदुए से इन चीतों को खतरा होता है, परंतु इस ज़ोन को तेंदुआ - फ्री ज़ोन किया गया है. दूसरी बात जो जंगली कुत्ते आसपास हैं, वो भी इसके लिए खतरनाक हो सकते हैं. तीसरी बात जो आसपास के गांवो में मवेशी हैं, उनको होने वाली बीमारियां भी चीतों में फैसने का डर है. हमने पिछले एक साल में आसपास के जंगली कुत्तों की नसबंदी कर दी है और उनको वैक्सीनेट भी कर दिया गया है. मवेशियों का भी वैक्सीनेशन कर दिया गया है.
सवाल: यानी कह सकते हैं कि दुनिया में पहली बार किसी वन्य जीव का एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप कोई रीलोकेशन हुआ है.
जवाब: जी, पूरा विश्व इसको इस नज़र से देख रहा है कि क्या भारत इसे सफलतापूर्वक करेगा. मैं कह सकता हूं कि हमारे जीन्स में, हमारे एथोस में, हमारे कल्चर में जानवरों और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति प्रेम और श्रद्धा है. अथर्ववेद में चीते का वर्णन बताता है कि हम उससे पहले से परिचित थे. भारत में ये प्रयास सफल होगा.
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