नई दिल्ली : दें या न दें, विलियम शेक्सपियर अपनी कब्र को बदल रहे हैं लेकिन यह हेमलेट की प्रसिद्ध दुविधापूर्ण कहानी से कम नहीं है, जिसे भारत सरकार रक्षा (Government of India Defense Outlay) परिव्यय के मामले में महसूस करने वाली है. इस क्लासिक कहानी को करीने से समझने के लिए एकांत की जरूरत पड़ सकती है.
शायद अतीत में केवल कुछ ही बार ऐसा हुआ होगा जब राष्ट्रीय राजधानी के नॉर्थ ब्लॉक स्थित वित्त मंत्रालय में रक्षा बजट तैयार करते समय इतनी बड़ी चुनौती दी गई होगी. जैसा कि वित्त मंत्री मंगलवार को संसद में 2022-23 का केंद्रीय बजट पेश करने वाली हैं, हो सकता है कि बजट में इसे तैयार करने वालों के सामने आने वाले कष्टों का थोड़ा सा भी खुलासा न हो.
दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ-साथ कोरोना वायरस महामारी ने वैश्विक प्रकोप जारी रखा है, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह प्रभावित हुई है. हालांकि आर्थिक सुधार के हरे रंग के अंकुर वहां दिख रहे हैं. चीन एकमात्र अपवाद है, बाकी अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं को अभी भी गहरे लाल रंग से उबरना बाकी है.
स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्रों की ओर सरकारी प्रयासों के मुख्य जोर के साथ रक्षा जरूरतों को वास्तव में वंचित करना होगा. लेकिन सवाल यह है कि अधिकांश देश अभी भी ऐसा करने में सक्षम नहीं हो सकते. भारत इसको वहन करने में सक्षम नहीं हो सकता है. चीन को मौजूदा संकट की पृष्ठभूमि में प्रमुख विरोधी माना जा रहा है. जो दो सेनाओं के सैनिकों के बीच सीमा विवाद से लेकर पूरी तरह से विशाल सैन्य लामबंदी और हिमालय की कठिन सीमा पर तैनाती तक फैला हुआ है. भारत को इस पर गौर करना पड़ सकता है. चीन के पहलू को ध्यान में रखते हुए इसका तत्काल रक्षा खर्च भी जरुरी है.
चीन के खतरे का सामना करने के लिए रक्षा खर्च के चार प्रमुख मदों राजस्व व्यय (नियमित खर्च, रखरखाव और पुर्जों के लिए), पूंजीगत व्यय (हथियारों, प्लेटफार्मों और प्रणालियों के नए अधिग्रहण के लिए), और विविध (प्रशासनिक) के लिए बढ़े हुए परिव्यय की आवश्यकता होगी. इसके अतिरिक्त भारत को तेजी से चीनी निर्माण और सीमा पर सड़कों, हवाई अड्डों और पुलों सहित बुनियादी ढांचे के निर्माण के कारण सीमा के बुनियादी ढांचे को पहले से कहीं अधिक सावधानी से देखना होगा.
इस दुर्दशा का सबसे बुरा हिस्सा यह है कि चीन के साथ मुद्दे कब और कैसे हल होंगे यह कोई नहीं जानता. ऐसा होने तक भारत के रक्षा खर्च को बढ़ाना पड़ सकता है. पाकिस्तान अभी भी अपने छद्म युद्ध में लिप्त है और कश्मीर में उलझा रहा है. एलएसी-एलओसी के त्रिभुज का खतरा जल्द ही एक घातक वास्तविकता में बदल सकता है जो भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान की गंभीर चिंताओं को बढ़ा देगा.
अफगानिस्तान से पाकिस्तान के रास्ते भारत में घुसपैठ करने वाले आतंकी तत्वों की संभावना एक और आयाम जोड़ती है कि रक्षा जरूरतों को प्राथमिकता देने की मांग क्यों होनी चाहिए. मध्य एशिया में विकास केवल चिंताजनक बोझ को बढ़ाता है. इसका मतलब यह भी है कि विदेशी हथियारों पर भारत की निर्भरता स्वदेशीकरण और आत्मनिर्भर होने के प्रयास के बावजूद जारी रहेगी. हालांकि हाल के वर्षों में नकारात्मक सूची लाने के अलावा विक्रेताओं की सूची को व्यापक आधार देने के लिए एक अलग कदम उठाया गया है और रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया को बदल दिया गया है.
भविष्य के हथियारों, प्लेटफार्मों, प्रणालियों और प्रौद्योगिकियों पर खर्च करने की आवश्यकता के कारण राष्ट्र के सामने चुनाव अधिक कठिन है. हाइपरसोनिक्स, साइबर वारफेयर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, उन्नत ड्रोन और अन्य विशिष्ट तकनीकों की तरह, जहां हर बड़ी अर्थव्यवस्था निवेश को बढ़ाने की कोशिश कर रही है, क्योंकि सीधे शब्दों में कहें तो यह भविष्य में निवेश करने जैसा है, जो एक महत्वाकांक्षी शक्ति के बिना नहीं हो सकता.
भारतीय सशस्त्र बलों का आधुनिकीकरण इस तथ्य के कारण भी अधिक चुनौतीपूर्ण है कि भारत के 68 प्रतिशत युद्ध उपकरण पुराने हैं. 24 प्रतिशत वर्तमान तकनीक और 8 प्रतिशत अत्याधुनिक श्रेणी में हैं. दूसरे शब्दों में रक्षा के लिए बजट 2022-23 परिव्यय एक व्यापक नीति की रूपरेखा तैयार करेगा.