नागौर. रोजी-रोटी की तलाश में अपना गांव और घर छोड़कर दूसरे राज्यों में गए नागौर के कई लोग कोरोना काल में लॉकडाउन के बीच वापस अपने गांव लौट आए हैं. यहां रोजगार का कोई जरिया नहीं मिला तो मनरेगा में जॉब कार्ड बनवाकर लग गए मिट्टी की खुदाई में. हालांकि, प्रदेश में मनरेगा मजदूरी की दर 199 रुपए प्रतिदिन है. लेकिन काम के हिसाब से एक मजदूर को 130-150 रुपए तक ही मिल पा रहे हैं. इससे परिवार का पेट भरना भी मुश्किल है.
नागौर के कई लोग 10-15 साल या इससे भी ज्यादा समय से दूसरे राज्यों के बड़े शहरों में मेहनत मजदूरी कर अपना और परिवार का पेट भर रहे थे. वहां हर महीने 25-30 हजार रुपए मिल जाते तो बचत का कुछ हिस्सा गांव भेजते थे. लेकिन कोरोना संक्रमण खतरे के बीच जारी लॉकडाउन के कारण काम-धंधा छिन गया तो खुद ही वापस गांव आ गए. यहां रोजगार का कोई जरिया नहीं था, इसलिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार योजना (मनरेगा) में जॉब कार्ड बनवाकर मजदूरी करने लगे.
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नागौर के ग्रामीण इलाकों में मनरेगा कार्यस्थल पर जींस, टीशर्ट, शर्ट और ब्रांडेड जूते पहने कई युवा इन दिनों काम करते हुए दिख जाएंगे, ये वही प्रवासी कामगार हैं. जो लॉकडाउन में काम-धंधा बंद होने के कारण अपनी कर्म भूमि छोड़कर वापस गांव आ गए हैं. वैसे तो सरकार ने मनरेगा में मजदूरी की दर रोज 199 रुपए तय कर रखी है. लेकिन काम के माप के हिसाब से एक मजदूर को औसत 130 से 150 रुपए रोज ही मिल पा रहे हैं. ऐसे में इन लोगों के लिए इस राशि से अपना और परिवार का गुजारा करना भी मुश्किल साबित हो रहा है.
महाराष्ट्र के पुणे से अपने गांव भुंडेल लौटे हनुमान गौड़ और खेमाराम बताते हैं कि वे वहां कैटरिंग का काम करते थे. सीजन में 25-30 हजार रुपए कमा लेते थे. ऑफ सीजन में भी 15-20 हजार रुपए की कमाई हो जाती थी. लेकिन लॉकडाउन हुआ तो काम बंद हो गया. आखिरकार गांव लौटना पड़ा. यहां रोजगार का कोई दूसरा जरिया नहीं था तो मनरेगा में मजदूरी करने लगे. जहां 130 से 150 रुपए हर दिन के हिसाब से मिलते हैं. इतने में परिवार का गुजारा तो नहीं होता. लेकिन दूसरा कोई उपाय नहीं है. इसलिए फिलहाल यहीं पर मजदूरी कर रहे हैं.
मध्यप्रदेश के बैतूल से अपने घर लौटे छोटू सिंह का भी कमोबेश यही कहानी है. वे बताते हैं कि मिठाई की दुकान पर 20-25 हजार रुपए हर महीने कमा लेते थे. लॉकडाउन में सब बंद हुआ तो गांव आना पड़ा. अब यहां मनरेगा में मजदूरी करने के अलावा दूसरे कोई विकल्प नहीं है. दलपत सिंह बेंगलुरू में कारपेंटर का काम करते थे. लेकिन लॉकडाउन में काम बंद हुआ तो गांव लौटने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा. यहां भी रोजगार का कोई जरिया नहीं था तो मनरेगा में जॉब कार्ड बनवाकर मजदूरी करने लगे. इससे जो कुछ मिलता है, उससे परिवार का पेट भरना तो मुश्किल है. लेकिन जब तक कोई विकल्प नहीं मिलता, यही काम कर रहे हैं. खींवसर पंचायत समिति की भुंडेल ग्राम पंचायत में तालाब खुदाई के काम में लगे मेट चंपालाल बताते हैं कि इस कार्यस्थल पर 154 मजदूरों में से करीब 60 प्रवासी कामगार हैं. सरपंच धर्मेंद्र गौड़ का कहना है कि पूरी ग्राम पंचायत में कारण 700 मनरेगा मजदूर हैं. इनमें 150 से 200 प्रवासी कामगार हैं.
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महाराष्ट्र के पुणे से आए हनुमान और खेमाराम, मध्य प्रदेश के बैतूल से लौटे छोटू सिंह और बेंगलुरू से वापस आए दलपत सिंह तो बानगी मात्र हैं. जिले भर में हजारों ऐसे कामगार हैं, जो अपनी कर्म भूमि छोड़कर घर लौटे हैं. यहां वे अपना और परिवार का पेट पालने की मशक्कत में लगे हैं. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि कोरोना काल में एक लाख से ज्यादा प्रवासियों ने नागौर लौटने के लिए पंजीयन करवाया है. इनमें से करीब 70 हजार प्रवासी लौट चुके हैं. अब यहां रोजगार की तलाश और परिवार को पालने की जुगत करने इनके लिए बड़ी चुनौती होगी.