कोटा. महाशिवरात्रि पर देशभर के शिव मंदिरों में पूजा अर्चना शुरू हो गई है. कोटा में भी एक अनूठा और प्राचीन शिव मंदिर है. इसका निर्माण सातवीं शताब्दी में हुआ था, लेकिन आज भी ये पहले जैसा ही है. यहां भगवान शिव अपने पूरे परिवार के साथ विराजे हुए हैं. इस मंदिर में शंकर भगवान की पुत्री अशोकासुंदरी और उनकी पहली पत्नी देवी सती भी मौजूद हैं. करीब 1500 साल पहले मौर्य शासन में 738 वीं शताब्दी में बना यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है.
क्यों पड़ा कंसुआ नाम ? : मंदिर की वंशानुगत पूजा अर्चना और सेवा से जुड़े महंत श्याम गिरी गोस्वामी का कहना है कि पुरानी मान्यता यह है कि मंदिर परिसर की जगह पर ऋषि कण्व का आश्रम हुआ करता था. इस आश्रम में एक शकुंतला नाम की कन्या रहती थी. उसकी उत्पत्ति विश्वामित्र की तपस्या भंग करने आई मेनका से हुई थी. मेनका इंद्रलोक चली गई, जबकि विश्वामित्र ने इस बालिका को ऋषि कण्व के आश्रम में छोड़ दिया था.
उन्होंने बताया कि युवावस्था में इस आश्रम में राजा दुष्यंत पहुंचे थे. यहां पर उन्होंने शकुंतला से गंधर्व विवाह किया और उसके माध्यम से ही पुत्र भरत का जन्म हुआ. उसके नाम से ही देश का नाम भारत हुआ है. भरत के बाद शांतुन, भीष्म, कौरव व पांडव हुए. कौरव पांडव की पिछली पांचवी पीढ़ी से इस मंदिर का इतिहास जुड़ा हुआ है. ऋषि कण्व के आश्रम होने के चलते ही इसका नाम बदलते हुए कंसुआ हो गया.
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मौर्य शासक शिवगण ने करवाया था मंदिर निर्माण : महंत श्याम गिरी का कहना है कि कण्व ऋषि आश्रम में संवत 738 यानी कि करीब 1500 साल पहले मौर्य काल के दौरान राजा शिवगण के अधीन आ गया था. इसमें ही मंदिर का निर्माण करवाया गया है. वर्तमान में मंदिर को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 1972 में अपने अधीन कर लिया और तब से उन्हीं के अधीन यह मंदिर है. यहां पर पुरातत्व विभाग का स्टाफ मॉनिटरिंग रखता है. मंदिर परिसर में दाईं तरफ शिलालेख है. यह कुटिला लिपि में लिखा हुआ है. इसमें मंदिर के इतिहास से जुड़ी पूरी जानकारी दी गई है.
यहां सभी मूर्तियां करीब 1500 साल पहले की है : मंदिर परिसर में ही गार्डन, कुंड, भैरव मंदिर, हनुमान की प्रतिमा और डेढ़ दर्जन शिवलिंग बने हुए हैं. यहां पर तीज-त्योहार और महाशिवरात्रि पर हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. मंदिर सूर्य उदय से लेकर सूर्यास्त तक खुला रहता है. शिवरात्रि पर तीन दिवसीय मेले का भी आयोजन होता है. इसके अलावा कार्तिक पूर्णिमा, सोमवती अमावस्या व सावन के महीने में भी मेला आयोजित होता है, जिसे देखने विदेशी टूरिस्ट भी आते हैं.
मंदिर की यह है चार खासियत :
1. ये विश्व का अनोखा मंदिर है, जहां पर शंकर भगवान अपने पूरे परिवार के साथ विराजित हैं. इनमें शंकर भगवान के साथ मां पार्वती, पुत्र गणेश व कार्तिकेय, पहली पत्नी और राजा दक्ष की पुत्री देवी सती और पुत्री अशोकासुंदरी शामिल हैं. यह सभी भगवान की प्रतिमा अलग-अलग हैं. साथ ही सभी मंदिर स्थापना के समय की ही है.
2. मंदिर की बनावट और स्थापना इस तरह की है, जब भी सूर्य की पहली किरण आती है तब वह मंदिर के गर्भ गृह में भगवान शंकर का अभिषेक करती है. ऐसा उत्तरायण और दक्षिणायन दोनों समय होता है.
3. मंदिर के गर्भ गृह में तीन नंदी विराजे हुए हैं. इनमें एक विशाल नंदी मंदिर में प्रवेश करते ही गर्भ गृह में विराजित हैं. दूसरे नंदी पर भगवान शंकर विराजे हुए हैं. वहीं तीसरे नंदी भगवान शंकर की प्रतिमा और शिवलिंग के बीच में स्थित हैं. गर्भ गृह में तीन नंदी भी दुनिया के किसी भगवान शिव के मंदिर में नहीं हैं.
4. मंदिर के पुजारी महंत श्याम गिरी गोस्वामी के अनुसार भगवान शंकर की प्रतिमा भी अनूठी है. इसमें भगवान नंदी पर विराजे हुए हैं और उनकी जांघ पर ही माता पार्वती विराजी हुई हैं, जो शंकर भगवान को निहार रही हैं. जबकि शंकर भगवान मंदिर के परिसर में बने शिवलिंग की जलाधारी को देख रहे हैं.
पहले जंगल से घिरा हुआ था, अब बस्ती से : महंत श्यामगिरी का कहना है कि मंदिर जब बना था तब कोटा शहर नहीं बसा था. आज से डेढ़ सौ साल पहले भी यह पूरा इलाका जंगल जैसा ही था. कोटा के गढ़ से यह करीब 6 से 7 किलोमीटर के आसपास है. इसके बावजूद रात के समय यहां पर आवाजाही पूरी तरह से बाधित रहती थी, क्योंकि जंगली जानवरों का खतरा हुआ करता था. राजा महाराजा भी तांगे से ही यहां पर आया करते थे और उनकी सवारियां भी दोपहर में ही पूजा-अर्चना के लिए पहुंचती थी. मंदिर परिसर में अलग-अलग जगह पर शिवलिंग बने हुए हैं. ऐसे करीब डेढ़ दर्जन शिवलिंग अलग-अलग जगह पर विराजित हैं. यह गार्डन भैरवनाथ मंदिर के बाहर मंदिर परिसर में मंदिर के पीछे की तरफ कई जगह पर स्थित है.
कचौरी-इमरती चढ़ाते हैं लोग : मंदिर परिसर में ही भैरव नाथ का बड़ा मंदिर बना हुआ है. इसमें एक आदम कद मूर्ति भी विराजित है. पुजारी महंत अनिल गिरी गोस्वामी का कहना है कि यह हाड़ौती का सबसे बड़ा और प्राचीन भैरव नाथ का मंदिर है. इस मंदिर की स्थापना शंकर भगवान के मंदिर के साथ-साथ ही हुई है. बाबा भैरवनाथ इस पूरे परिसर के कोतवाल के रूप में विराजे हुए हैं. रविवार के दिन मंदिर में बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं. साथ ही वह भगवान को चोला चढ़ाने के साथ और पूजा-अर्चना करते हैं. इसके अलावा कचौरी और इमरती का भोग लगाते हैं.
कुंड में नहाने से चर्म रोगों से मुक्ति : मंदिर में एक कुंड है जिसका जल स्रोत भूगर्भ ही है. यहां कभी भी जल सूखता नहीं होता है. साथ ही अधिकांश समय इससे जल निकलता ही रहता है और ओवरफ्लो होकर यह पूर्व दिशा की तरफ बहता है. माना जाता है कि विशालकाय मलनी नदी पूर्व दिशा में बहती थी. लेकिन बस्ती बढ़ जाने के चलते यह नदी विलुप्त जैसी हो गई. इसी जगह पर यह कुंड है. मान्यता है कि इस कुंड में नहाने से लोगों को चर्म रोग से मुक्ति मिलती है. यहां चौदस, अमावस्या, कार्तिक पूर्णिमा, सोमावती अमावस्या और सावनी अमावस पर स्नान करने के लिए आते हैं.