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Sharadiya Navratri 2022: मारवाड़ की रक्षक मेहरानगढ़ की चामुंडा माता...राव जोधा ने स्थापित की थी मूर्ति - चामुंडा माता मां काली का स्वरूप

कुलदेवी के रूप में अराधना की जाने वाली चामुंडा देवी को जोधपुर का रक्षक भी (Chamunda Mataji Temple​​) कहा जाता है. माता के मंदिर को लगभग 561 साल पहले स्थापित किया गया था. कई बार माता ने शहरवासियों की रक्षा की है. पढ़िए आदिशक्ति का इतिहास...

Guardian deity of Jodhpur
मेहरानगढ़ की चामुंडा माता
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Published : Sep 28, 2022, 6:03 AM IST

जोधपुर. शहर की रक्षक मानी जाने वाली चामुंडा माता मेहरानगढ़ दुर्ग स्थित मंदिर (Chamunda Mataji Temple​​) में विराजमान हैं. करीब 561 साल पहले विक्रम संवत 1517 में जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने मंडोर से लाकर माता को स्थापित किया था. परिहारों की कुलदेवी चामुंडा को राव जोधा ने भी अपनी इष्टदेवी स्वीकार किया था. जबकि राठौडों की कुलदेवी नागणेच्या माता हैं.

जोधपुरवासी मां चामुंडा को जोधपुर की रक्षक मानते हैं. कहा जाता है कि 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान जोधपुर पर गिरे बम से मां चामुंडा ने शहर की रक्षा की थी. इतना ही नहीं मेहरानगढ़ में 9 अगस्त 1857 को गोपाल पोल के पास बारूद के ढ़ेर पर बिजली गिरने के कारण चामुंडा मंदिर कण-कण होकर उड़ गया, लेकिन मूर्ति सही सलामत रही. किसी भी तरह से खंडित नहीं हुई. इस मूर्ति को आदिशक्ति माना जाता है. यही कारण है कि लगभग सारा शहर अपनी कुलदेवी के रूप में इनकी आरधना करता है.

मेहरानगढ़ की चामुंडा माता का मंदिर

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यहां श्येन (चील) पक्षी को मां दुर्गा का स्वरूप मानते हैं. माना जाता है कि राव जोधा को (Chamunda Mata of Mehrangarh) माता ने आशीर्वाद दिया था कि जब तक मेहरानगढ़ दुर्ग पर चीलें मंडराती रहेंगी तब तक दुर्ग पर कोई विपत्ति नहीं आएगी. यही कारण है कि राजपरिवार के ध्वज में भी चील चित्रित है. जोधपुर के दुर्ग पर हमेशा चील मंडराती रहती है. इसके लिए प्रतिदिन उनके भोजन की भी व्यवस्था की गई है.

नक्काशी का उत्कृष्ट नमूना है मंदिर : 561 वर्ष पूर्व मेहरानगढ़ के निर्माण के साथ ही मेहरानगढ़ (History of Chamunda Mata temple) के दक्षिणी छोर के तलहटी में चामुंडा माता का विशालकाय मंदिर महाराजा अजीतसिंह ने बनवाया था. यह मंदिर जोधपुरी पत्थर से बनाया गया है. मंदिर की छत और खंभों पर पत्थर की नक्काशी अकल्पनीय स्थापत्य कला का अनुभव देता है. मंदिर की छत और मुख्य द्वार पर अंग रक्षक की मूर्तियों की नक्काशी की हुई है. मंदिर निर्माण के लिए पत्थर और चूने का उपयोग किया गया है. जोधपुर शहर के बीचों-बीच बना मेहरानगढ़ दुर्ग की सुंदरता बाकी दुर्गों से अलग है. ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां से पूरा शहर दिखाई देता है. मंदिर से शहर का नजारा और मंदिर के झरोखों से नीले शहर को निहारना पर्यटकों को भी एक अलग अनुभव देता है.

पढ़ें. सीने पर 21 कलश : 9 दिन का निर्जला उपवास, हठयोग के सामने मेडिकल साइंस भी हैरान

ध्वजा के दर्शन भी करते हैं लोग : मंदिर के राजपुजारी बताते हैं कि चामुंडा माता मां काली का स्वरूप (Guardian deity of Jodhpur) है. इसी स्वरूप में पूजा होती है. नवरात्र में लोग कुलदेवी के रूप में धोक लगाने यहां आते हैं. मेहरानगढ़ चामुंडा मंदिर के ऐसे भी भक्त हैं जो प्रतिदिन यहां दर्शन के लिए आते हैं. इसके अलावा भीतरी शहर के लोग सुबह मंदिर की ध्वजा के दर्शन कर अपने दिन की शुरूआत करते हैं. इसके अलावा यहां नवरात्र की ज्योत के दर्शन भी दूर से किए जाते हैं. मंदिर जाने वालों के लिए किले में किसी तरह का शुल्क नहीं लिया जाता है.

2008 के बाद व्यवस्थाओं में लगातार सुधार : मेहरानगढ़ मंदिर के इतिहास से एक घटना भी जुड़ी हुई है. वर्ष 2008 में यहां नवरात्र के पहले दिन अलसुबह मची भगदड़ में 216 युवाओं की यहां मौत हो गई थी. लेकिन उस दिन भी मंदिर बंद नहीं हुआ था. इसके बाद से मंदिर में दर्शन के लिए किले में प्रवेश अलसुबह बंद कर दिया. इसके अलावा कतारबद्ध प्रवेश की व्यवस्था लागू की गई, जो अभी तक कायम है. इस बार कोरोना के दो साल बाद मंदिर पूरी तरह से खुला है. श्रद्धालु बताते हैं कि इस बार व्यवस्था बहुत अच्छी है.

जोधपुर. शहर की रक्षक मानी जाने वाली चामुंडा माता मेहरानगढ़ दुर्ग स्थित मंदिर (Chamunda Mataji Temple​​) में विराजमान हैं. करीब 561 साल पहले विक्रम संवत 1517 में जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने मंडोर से लाकर माता को स्थापित किया था. परिहारों की कुलदेवी चामुंडा को राव जोधा ने भी अपनी इष्टदेवी स्वीकार किया था. जबकि राठौडों की कुलदेवी नागणेच्या माता हैं.

जोधपुरवासी मां चामुंडा को जोधपुर की रक्षक मानते हैं. कहा जाता है कि 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान जोधपुर पर गिरे बम से मां चामुंडा ने शहर की रक्षा की थी. इतना ही नहीं मेहरानगढ़ में 9 अगस्त 1857 को गोपाल पोल के पास बारूद के ढ़ेर पर बिजली गिरने के कारण चामुंडा मंदिर कण-कण होकर उड़ गया, लेकिन मूर्ति सही सलामत रही. किसी भी तरह से खंडित नहीं हुई. इस मूर्ति को आदिशक्ति माना जाता है. यही कारण है कि लगभग सारा शहर अपनी कुलदेवी के रूप में इनकी आरधना करता है.

मेहरानगढ़ की चामुंडा माता का मंदिर

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यहां श्येन (चील) पक्षी को मां दुर्गा का स्वरूप मानते हैं. माना जाता है कि राव जोधा को (Chamunda Mata of Mehrangarh) माता ने आशीर्वाद दिया था कि जब तक मेहरानगढ़ दुर्ग पर चीलें मंडराती रहेंगी तब तक दुर्ग पर कोई विपत्ति नहीं आएगी. यही कारण है कि राजपरिवार के ध्वज में भी चील चित्रित है. जोधपुर के दुर्ग पर हमेशा चील मंडराती रहती है. इसके लिए प्रतिदिन उनके भोजन की भी व्यवस्था की गई है.

नक्काशी का उत्कृष्ट नमूना है मंदिर : 561 वर्ष पूर्व मेहरानगढ़ के निर्माण के साथ ही मेहरानगढ़ (History of Chamunda Mata temple) के दक्षिणी छोर के तलहटी में चामुंडा माता का विशालकाय मंदिर महाराजा अजीतसिंह ने बनवाया था. यह मंदिर जोधपुरी पत्थर से बनाया गया है. मंदिर की छत और खंभों पर पत्थर की नक्काशी अकल्पनीय स्थापत्य कला का अनुभव देता है. मंदिर की छत और मुख्य द्वार पर अंग रक्षक की मूर्तियों की नक्काशी की हुई है. मंदिर निर्माण के लिए पत्थर और चूने का उपयोग किया गया है. जोधपुर शहर के बीचों-बीच बना मेहरानगढ़ दुर्ग की सुंदरता बाकी दुर्गों से अलग है. ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां से पूरा शहर दिखाई देता है. मंदिर से शहर का नजारा और मंदिर के झरोखों से नीले शहर को निहारना पर्यटकों को भी एक अलग अनुभव देता है.

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ध्वजा के दर्शन भी करते हैं लोग : मंदिर के राजपुजारी बताते हैं कि चामुंडा माता मां काली का स्वरूप (Guardian deity of Jodhpur) है. इसी स्वरूप में पूजा होती है. नवरात्र में लोग कुलदेवी के रूप में धोक लगाने यहां आते हैं. मेहरानगढ़ चामुंडा मंदिर के ऐसे भी भक्त हैं जो प्रतिदिन यहां दर्शन के लिए आते हैं. इसके अलावा भीतरी शहर के लोग सुबह मंदिर की ध्वजा के दर्शन कर अपने दिन की शुरूआत करते हैं. इसके अलावा यहां नवरात्र की ज्योत के दर्शन भी दूर से किए जाते हैं. मंदिर जाने वालों के लिए किले में किसी तरह का शुल्क नहीं लिया जाता है.

2008 के बाद व्यवस्थाओं में लगातार सुधार : मेहरानगढ़ मंदिर के इतिहास से एक घटना भी जुड़ी हुई है. वर्ष 2008 में यहां नवरात्र के पहले दिन अलसुबह मची भगदड़ में 216 युवाओं की यहां मौत हो गई थी. लेकिन उस दिन भी मंदिर बंद नहीं हुआ था. इसके बाद से मंदिर में दर्शन के लिए किले में प्रवेश अलसुबह बंद कर दिया. इसके अलावा कतारबद्ध प्रवेश की व्यवस्था लागू की गई, जो अभी तक कायम है. इस बार कोरोना के दो साल बाद मंदिर पूरी तरह से खुला है. श्रद्धालु बताते हैं कि इस बार व्यवस्था बहुत अच्छी है.

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