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स्पेशल स्टोरी : 'जय जवान, जय किसान' ने भरा ऐसा जोश....चौगुने उत्साह से लड़े सैनिक

देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का 11 जनवरी को निधन हुआ था. प्रधानमंत्री नेहरू की मौत के बाद 9 जून 1964 को शास्त्री ने प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया था. जिसके कुछ समय बाद पाकिस्तान के साथ 1965 का युद्ध आ गया. जिसमें शास्त्री के 'जय किसान, जय जवान' के नारे ने देश के लोगों में जोश भरा था.

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शास्त्री के नारे ने भरा था सैनिकों में जोश
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Published : Jan 11, 2020, 1:42 PM IST

झुंझुनू. सैनिकों और शहीदों की धरती कहा जाने वाला शेखावाटी का झुंझुनू जिला आजादी के बाद अजीब कशमकश से गुजर रहा था. उद्योग नाम की कोई चीज इस क्षेत्र में नहीं थी. जिसके कारण यहां केवल खेती होती थी और खेतों में काम करने की वजह से यहां के लोग काफी हटे-कट्टे और लंबे कद के हुआ करते हैं. ऐसे में प्राकृतिक रूप से सेना के प्रति उनका रुझान बढ़ा और आजादी के बाद के 15 सालों में यहां के लोग सेना की लगभग सभी यूनिटों में दिखाई देने लगे.

शास्त्री के नारे ने भरा था सैनिकों में जोश

इसके साथ ही पाकिस्तान के साथ 1965 का युद्ध आ गया और देश की कमान, गुदड़ी के लाल कहे जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में थी. देश के हालात बहुत बेहतर नहीं थे. ऐसे में युद्ध के दौरान ही करीब सवा 5 फीट के शास्त्री ने नारा दिया 'जय जवान जय किसान'. जिसके बाद देश के जवानों में जोश भर गया था.

'घर वाले खेत में तो हम फौज में'

झुंझुनू के फौजी बताते हैं, कि शास्त्री के इस नारे के साथ ही हम लोगों का देश प्रेम के साथ-साथ युद्ध को जीतना व्यक्तिगत जुड़ाव सा महसूस होने लगा. शेखावाटी के सैनिक ये समझ रहे थे, कि हम यहां बॉर्डर पर देश के लिए जान दे रहे हैं तो दूसरी ओर हमारे गांव वाले खेतों में जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं, ताकि खुद के साथ अन्य लोगों को भी अन्न मिल सके.

ऐसे में 'जय जवान, जय किसान' के नारे ने जवानों में नया जोश भर दिया और वह चार गुनी ताकत के साथ युद्ध में भाग लेने लगे. बता दें, कि आजादी से पहले भी जिले के कई लोग सेना में हुआ करते थे और आजाद हिंद फौज सहित अंग्रेजों की सेना में भी उनकी उपस्थिति हुआ करती थी.

यह भी पढ़ें : आबकारी विभाग में खत्म होगा Inspector राज, 30 फीट के रास्ते पर बार लाइसेंस की अधिसूचना होगी निरस्त

'बुजुर्ग देते थे सांत्वना'

उन्होंने बताया, कि समय ऐसा था, कि उस समय ना तो कोई संचार के साधन हुआ करते थे और देश भी इतना विकसित नहीं हुआ था, कि गांव ढाणियों तक डाक सेवा हो. ऐसे में परिजनों के पास जवान जब सेना में जाते थे और वहां से वापस लौटते थे, उस बीच की कोई सूचना नहीं हुआ करती थी. इसलिए चिंता तो बहुत हुआ करती थी, लेकिन एक विश्वास था. जिसके बल पर घर के बड़े बुजुर्ग अन्य लोगों को सैनिकों के बारे में सांत्वना देते रहते थे.

'परिवार की चिंता'

दूसरी ओर सैनिकों को भी परिवार की चिंता रहती थी, लेकिन उनके लिए भी देश सेवा से बड़ा कुछ नहीं था. लेकिन जय जवान और जय किसान के नारे ने सैनिकों और यहां खेतों में काम करने वाले उनके परिजनों को भावनात्मक रूप से काफी जोड़ दिया था. इस बीच यदि कोई सैनिक शहीद हो जाता था तो प्रशासन के अधिकारी ही जाकर परिजनों को सूचना दे पाते थे. उन्होंने बताया, कि शास्त्री के 'जय जवान जय किसान' के नारे में इतना जोश था, कि उस दौरान जवान चौगुने उत्साह से लड़ाई लड़ा था.

झुंझुनू. सैनिकों और शहीदों की धरती कहा जाने वाला शेखावाटी का झुंझुनू जिला आजादी के बाद अजीब कशमकश से गुजर रहा था. उद्योग नाम की कोई चीज इस क्षेत्र में नहीं थी. जिसके कारण यहां केवल खेती होती थी और खेतों में काम करने की वजह से यहां के लोग काफी हटे-कट्टे और लंबे कद के हुआ करते हैं. ऐसे में प्राकृतिक रूप से सेना के प्रति उनका रुझान बढ़ा और आजादी के बाद के 15 सालों में यहां के लोग सेना की लगभग सभी यूनिटों में दिखाई देने लगे.

शास्त्री के नारे ने भरा था सैनिकों में जोश

इसके साथ ही पाकिस्तान के साथ 1965 का युद्ध आ गया और देश की कमान, गुदड़ी के लाल कहे जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में थी. देश के हालात बहुत बेहतर नहीं थे. ऐसे में युद्ध के दौरान ही करीब सवा 5 फीट के शास्त्री ने नारा दिया 'जय जवान जय किसान'. जिसके बाद देश के जवानों में जोश भर गया था.

'घर वाले खेत में तो हम फौज में'

झुंझुनू के फौजी बताते हैं, कि शास्त्री के इस नारे के साथ ही हम लोगों का देश प्रेम के साथ-साथ युद्ध को जीतना व्यक्तिगत जुड़ाव सा महसूस होने लगा. शेखावाटी के सैनिक ये समझ रहे थे, कि हम यहां बॉर्डर पर देश के लिए जान दे रहे हैं तो दूसरी ओर हमारे गांव वाले खेतों में जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं, ताकि खुद के साथ अन्य लोगों को भी अन्न मिल सके.

ऐसे में 'जय जवान, जय किसान' के नारे ने जवानों में नया जोश भर दिया और वह चार गुनी ताकत के साथ युद्ध में भाग लेने लगे. बता दें, कि आजादी से पहले भी जिले के कई लोग सेना में हुआ करते थे और आजाद हिंद फौज सहित अंग्रेजों की सेना में भी उनकी उपस्थिति हुआ करती थी.

यह भी पढ़ें : आबकारी विभाग में खत्म होगा Inspector राज, 30 फीट के रास्ते पर बार लाइसेंस की अधिसूचना होगी निरस्त

'बुजुर्ग देते थे सांत्वना'

उन्होंने बताया, कि समय ऐसा था, कि उस समय ना तो कोई संचार के साधन हुआ करते थे और देश भी इतना विकसित नहीं हुआ था, कि गांव ढाणियों तक डाक सेवा हो. ऐसे में परिजनों के पास जवान जब सेना में जाते थे और वहां से वापस लौटते थे, उस बीच की कोई सूचना नहीं हुआ करती थी. इसलिए चिंता तो बहुत हुआ करती थी, लेकिन एक विश्वास था. जिसके बल पर घर के बड़े बुजुर्ग अन्य लोगों को सैनिकों के बारे में सांत्वना देते रहते थे.

'परिवार की चिंता'

दूसरी ओर सैनिकों को भी परिवार की चिंता रहती थी, लेकिन उनके लिए भी देश सेवा से बड़ा कुछ नहीं था. लेकिन जय जवान और जय किसान के नारे ने सैनिकों और यहां खेतों में काम करने वाले उनके परिजनों को भावनात्मक रूप से काफी जोड़ दिया था. इस बीच यदि कोई सैनिक शहीद हो जाता था तो प्रशासन के अधिकारी ही जाकर परिजनों को सूचना दे पाते थे. उन्होंने बताया, कि शास्त्री के 'जय जवान जय किसान' के नारे में इतना जोश था, कि उस दौरान जवान चौगुने उत्साह से लड़ाई लड़ा था.

Intro:झुंझुनू। सैनिकों और शहीदों की धरती कहा जाने वाला शेखावाटी का झुंझुनू जिला आजादी के बाद अजीब कशमकश से गुजर रहा था। उद्योग धंधे नाम की कोई चीज इस क्षेत्र में थी नहीं और केवल खेती का ही सहारा था। खेतों में काम करने की वजह से यहां के लोग काफी हटे कट्टे और लंबे कद के हुआ करते हैं। ऐसे में प्राकृतिक रूप से सेना के प्रति उनका रुझान बढ़ा और आजादी के बाद के 15 सालों में यहां के लोग सेना की लगभग सभी यूनिटों में दिखाई देने लगे। इसके साथ ही पाकिस्तान के साथ 1965 का युद्ध आ गया और देश की कमान गुदड़ी के लाल कहे जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में थी। देश के हालात बहुत बेहतर नहीं थे और ऐसे में युद्ध के दौरान ही करीब सवा 5 फीट के शास्त्री ने नारा दिया जय जवान जय किसान।



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घर वाले खेत में तो हम फौज में

झुंझुनू के फौजी बताते हैं कि इस नारे के साथ ही हम लोगों का देश प्रेम के साथ-साथ युद्ध को जीतना व्यक्तिगत जुड़ाव सा महसूस होने लगा। शेखावाटी के सैनिक के समझ रहे थे कि हम यहां बॉर्डर पर देश के लिए जान दे रहे हैं तो दूसरी ओर हमारे गांव में बूढ़े पिता, जवान भाई और बच्चे, घर की वीरांगना खेतों में जी तोड़ मेहनत कर रही है ताकि खुद के साथ अन्य लोगों को भी अन्न मिल सके। ऐसे में जय जवान जय किसान के नारे नौजवानों में नया जोश भर दिया और वह चार गुनी ताकत के साथ युद्ध में भाग लेने लगे। आजादी से पहले भी कई लोग यहां से सेना में हुआ करते थे और आजाद हिंद फौज सहित अंग्रेजों की सेना में भी उनकी उपस्थिति हुआ करती थी। ऐसे में सैनिकों को यह भी साफ नजर आ रहा था कि उन्होंने यदि देश सेवा के लिए अपनी जान भी दे देगी तो हमारी खुद की भारत सरकार हमारे परिजनों का पूरा ध्यान रखेगी।



कुछ पता नहीं होता था कि हुआ क्या है
समय ऐसा था कि उस समय ना तो कोई संचार के साधन हुआ करते थे और देश भी इतना विकसित नहीं हुआ था कि गांव ढाणियों तक डाक सेवा भी पहुंच गई हो। ऐसे में परिजनों के पास जब सेना में जाते थे और वहां से वापस लौटते थे उस बीच की कोई सूचना नहीं हुआ करती थी। इसलिए चिंता तो बहुत हुआ करते थे लेकिन एक विश्वास ही था जिसके बल पर घर के बड़े बुजुर्ग अन्य लोगों को सैनिकों के बारे में सांत्वना देते रहते थे। दूसरी ओर सैनिकों को भी परिवार की चिंता रहती थी लेकिन उनके लिए भी देश सेवा से बड़ा कुछ नहीं था। लेकिन जय जवान और जय किसान के नारे ने सैनिकों और यहां खेतों में काम करने वाले उनके परिजनों को भावनात्मक रूप से काफी जोड़ दिया था। इस बीच यदि कोई सैनिक शहीद हो जाता था तो प्रशासन के अधिकारी ही जाकर परिजनों को सूचना दे पाते थे।



बाइट वन रिटायर्ड कैप्टन मोहनलाल

बाइक दो रिटायर्ड
सूबेदार अमर सिंह




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