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झालावाड़ के गांवों में आज भी 'माटी से जुड़ाव'...कुंवारी कन्याएं मनाती हैं संझा - कुंवारी कन्याएं मनाती है संझा

वर्तमान में जहां धीरे-धीरे लोक संस्कृतियां लुप्त होती जा रही हैं, वहीं झालावाड़ में ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी कुंवारी कन्याएं श्राद्ध पक्ष में गोबर से संझा बनाती हैं और माटी में रचे बसे गीत गाती हैं.

राजस्थान न्यूज, झालावाड़ न्यूज, rajasthan news, jhalawar news
कुंवारी कन्याएं मनाती है संझा
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Published : Sep 16, 2020, 1:47 PM IST

झालावाड़: इन दिनों श्राद्ध पक्ष चल रहा है. श्राद्ध पक्ष में जहां पहले कुंवारी कन्याएं गोबर से संझा बनाती थी और माटी में रचे बसे गीत गाती थी, वहीं धीरे-धीरे शहरी क्षेत्र के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में संझा बनाने का प्रचलन लगभग समाप्त हो चुका है. लेकिन आज भी झालावाड़ के कई गांवों में पूरे उत्साह व उमंग के साथ संझा बनाई जाती है. जिले के सरड़ा, खजूरी, घाटोली सहित कई गावों में आज भी संध्या के समय संझा गीत सुनने को मिलते हैं. जिसमें गांव मोहल्ले की कई बालिकाएं एकत्रित होकर गोबर की अनेक आकृतियां बनाती हैं, साथ ही गीत गाती हैं.

कुंवारी कन्याएं मनाती हैं संझा

रोजाना गोबर से बनाई जाती हैं अलग-अलग आकृतियां...

भाद्रपद माह के शुक्ल पूर्णिमा से पितृ मोक्ष अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष में कुंआरी कन्याओं की ओर से संझा पर्व मनाया जाता है. ये मुख्यतः मालवा-निमाड़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र में प्रचलित है. इस पर्व में कुंवारी बालिकाएं घर की दीवार पर गोबर से श्राद्ध पक्ष में रोजाना नई-नई आकृतियों से संझा बनाती हैं और गोबर से बनाई गई आकृतियों को फूल-पत्तियों से सजाती हैं.

पढ़ें: जयपुर: आमेर की मावठा झील में शख्स ने कूदकर की जान देने की कोशिश, सकुशल बचाया

इसके बाद बालिकाओं की ओर से संझा की आरती करते हुए भोग लगाया जाता है. इसको लेकर झालावाड़ के बालकवि मनीष कुमार सेन ने बताया कि इतिहास गढ़ने के लिए पौराणिक लोक कला और लोक संस्कृति को वर्तमान में जीवित रख भविष्य के लिए सुरक्षित रखना जरूरी है. संझा उसी लोक कला और लोक संस्कृति का अभिन्न अंग है. ऐसे में उन्होंने हाल ही में 'माटी से दूर होती बालिकाएं, गुमनाम होते संझा गीत' लिखा था. जिसमें उन्होंने लुप्त होती जा रही संझा के प्रति अपनी संवेदना अभिव्यक्त की थी.

झालावाड़: इन दिनों श्राद्ध पक्ष चल रहा है. श्राद्ध पक्ष में जहां पहले कुंवारी कन्याएं गोबर से संझा बनाती थी और माटी में रचे बसे गीत गाती थी, वहीं धीरे-धीरे शहरी क्षेत्र के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में संझा बनाने का प्रचलन लगभग समाप्त हो चुका है. लेकिन आज भी झालावाड़ के कई गांवों में पूरे उत्साह व उमंग के साथ संझा बनाई जाती है. जिले के सरड़ा, खजूरी, घाटोली सहित कई गावों में आज भी संध्या के समय संझा गीत सुनने को मिलते हैं. जिसमें गांव मोहल्ले की कई बालिकाएं एकत्रित होकर गोबर की अनेक आकृतियां बनाती हैं, साथ ही गीत गाती हैं.

कुंवारी कन्याएं मनाती हैं संझा

रोजाना गोबर से बनाई जाती हैं अलग-अलग आकृतियां...

भाद्रपद माह के शुक्ल पूर्णिमा से पितृ मोक्ष अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष में कुंआरी कन्याओं की ओर से संझा पर्व मनाया जाता है. ये मुख्यतः मालवा-निमाड़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र में प्रचलित है. इस पर्व में कुंवारी बालिकाएं घर की दीवार पर गोबर से श्राद्ध पक्ष में रोजाना नई-नई आकृतियों से संझा बनाती हैं और गोबर से बनाई गई आकृतियों को फूल-पत्तियों से सजाती हैं.

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इसके बाद बालिकाओं की ओर से संझा की आरती करते हुए भोग लगाया जाता है. इसको लेकर झालावाड़ के बालकवि मनीष कुमार सेन ने बताया कि इतिहास गढ़ने के लिए पौराणिक लोक कला और लोक संस्कृति को वर्तमान में जीवित रख भविष्य के लिए सुरक्षित रखना जरूरी है. संझा उसी लोक कला और लोक संस्कृति का अभिन्न अंग है. ऐसे में उन्होंने हाल ही में 'माटी से दूर होती बालिकाएं, गुमनाम होते संझा गीत' लिखा था. जिसमें उन्होंने लुप्त होती जा रही संझा के प्रति अपनी संवेदना अभिव्यक्त की थी.

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