झालावाड़. कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए सरकार ने सामाजिक और धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजन पर पाबंदी लगी हुई है. जिसके चलते लोग ईद से लेकर कृष्ण जन्माष्टमी और गणेश चतुर्थी के कार्यक्रम भी भव्य रूप से नहीं मना पाए. ऐसे में अब मुहर्रम पर भी कोरोना का साया मंडराने लगा है.
सैंकड़ो वर्षों से झालावाड़ में मुहर्रम पर जुलूस के साथ ताजिए निकाले जाते थे. लेकिन इस बार मुहर्रम पर भी कोरोना का प्रकोप देखने को मिल रहा है. झालावाड़ में कई जगहों पर या तो ताजिये निकाले ही नहीं जाएंगे या कई जगहों पर ताजियों के साइज में भारी बदलाव किया गया है. बात अगर झालावाड़ की करें तो यहां हर साल 15 से 16 फीट तक की ऊंचाई के आकर्षक ताजिए बनाए जाते थे. ऐसे में अबकी बार इनकी साइज 10 फीट और इससे भी कम रहने वाली है ताकि कम लोग ही इन्हें उठा सके और सोशल डिस्टेंसिंग की पालना करते हुए कर्बला में ले जाकर ठंडा कर सके.
ताजिया बनाने वाले अब्दुल हनीफ ने बताया कि उनका परिवार करीब 150 वर्षो से मुहर्रम के ताजिए बनाता आ रहा है. लेकिन इतिहास में पहली बार यह देखने को मिला है कि मोहर्रम को लेकर कोई उत्साह नहीं है. साथ ही ताजिये निकालने को लेकर भी संशय बना हुआ है. अब्दुल हनीफ ने बताया कि ताजिया बनाने के लिए 3 महीने पहले से ही वो तैयारियां शुरू कर देते हैं और एक ताजिया 3 महीने में बनकर तैयार हो पाता है.
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ऐसे में ताजिए बनकर तैयार होने का काम आखिरी चरण में पहुंच चुका है. लेकिन इनको निकालने को लेकर संशय बना हुआ है. उन्होंने बताया कि ताजिया बनाने के लिए करीबन 16 से 20 हजार रुपये का खर्चा आता है. इसमें कई सामानों का इस्तेमाल करना पड़ता है. जिनमें बांस की लकड़ियां, रद्दी, रस्सी, श्रंगार, लच्छे और रंगीन कागज का उपयोग होता है. अब्दुल हनीफ ने बताया कि ताजिया बनाना उनके परिवार का पारंपरिक काम है. ऐसे में आजीविका कमाने के लिए वो दिन में काम करने जाते हैं जबकि रात में बैठकर ताजिया बनाने का काम करते हैं. जिसमें उनके परिवार के लगभग सभी सदस्य भागीदार होते हैं.
ताजिया कारीगर मकसुद्दीन ने बताया कि झालावाड़ राजदरबार के समय से उनका परिवार ताजिए बनाता आ रहा है. जिसमें उनका पूरा परिवार तीन महीने जुट कर ताजिए बनाता है. इस साल मुहर्रम के ताजियों में काफी बदलाव किया गया है. जिसमें सबसे मुख्य तो ताजिए की साइज को कम किया गया है. जिससे लोग बिना भीड़ जुटाए ताजियों को कर्बला में ले जा सके. गौरतलब है कि मोहर्रम के दिन मुस्लिम समुदाय के लोग इमाम हुसैन की शहादत में गमजदा होकर उन्हें याद करते हैं. शौक के प्रतीक के रूप में इस दिन ताजिए के साथ जुलूस निकालने के परंपरा है. ताजियों का जुलूस इमाम बारगाह से निकाला जाता है और कर्बला में जाकर खत्म होता है.