सांचौर (जालोर). होलिका दहन पर पर्यावरण संरक्षण को लेकर कंडा होली और ईको फ्रेंडली होली का भी मैसेज दिया जा रहा है. राजस्थान में तो पूरा बिश्नोई समाज ही पर्यावरण प्रेमी है और सालों से पर्यावरण संरक्षण का काम करता आ रहा है. इसी कड़ी में बिश्नोई समाज होलिका दहन करना तो दूर उसकी लौ भी नहीं देखता.
होली दहन की लौ नहीं देखने के पीछे बिश्नोई समाज की मान्यता है कि यह आयोजन भक्त प्रहलाद को मारने के लिए किया गया था और विष्णु भगवान ने 12 करोड़ जीवों के उद्धार के लिए वचन देकर कलयुग में भगवान जांभोजी के रूप में अवतरित हुए. इसलिए बिश्नोई समाज स्वयं को प्रहलाद पंथी मानते हैं.
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सदियों से चली आ रही यह परंपरा न सिर्फ पानी की बर्बादी रोकता हैं, बल्कि पर्यावरण को बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. ऐसे में बिश्नोई समाज में होलिका दहन के पूर्व से ही शोक शुरू हो जाता है और सुबह प्रहलाद के सुरक्षित लौटने और होलिका दहन के बाद ये समाज खुशियां मनाता है.
बिश्नोई समाज के अनुसार प्रहलाद विष्णु भक्त थे और बिश्नोई पंथ के प्रवर्तक भगवान जंभेश्वर विष्णु के अवतार थे. कलयुग में संवत 1542 कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भगवान जंभेश्वर ने कलश की स्थापना कर पवित्र पाहल पिलाकर विश्नोई पंथ बनाया था. जांभाणी साहित्य के अनुसार तब के प्रहलाद पंथ के अनुयायी ही आज के विश्नोई समाज के लोग है, जो भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं.
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आचार्य संत डॉ. गोवर्धनराम जी ने बताया कि जो व्यक्ति घर में पाहल नहीं करते हैं, वे मंदिर में सामूहिक होने वाले पाहल से पवित्र जल लाकर उसे ग्रहण करते हैं. बिश्नोई समाज में आज भी यह परंपरा मौजूद है, शाम को सूरज छिपने से पहले ही हर घर में शोक स्वरूप खिचड़ा (सादा भोजन) बनता है. सुबह खुशियां मनाई जाती है, तब हवन पाहल ग्रहण करते हैं.