जयपुर. हर साल एक दिसंबर को विश्व एड्स दिवस (World AIDS Day) मनाया जाता है. इस दिन एड्स के बारे में लोगों में जागरूकता फैलाने की कोशिश की जाती है. इस दिन एड्स के बारे में अधिक से अधिक जागरूकता के लिए काम किया जाता है. इस दिन AIDS से बचाव के तरीकों के बारे में लोगों को जागरूक किया जाता है, लेकिन बावजूद इसके आज भी समाज में कुछ भ्रांतियां इन एड्स सर्वाइवल को झेलनी पड़ती है.
विश्व एड्स दिवस पर हम आप को मिलाते हैं जयपुर की सुशीला से जो बिना किसी प्रचार-प्रसार के खामोश जुनून के साथ लड़ रही हैं, जिन्हें सामाजिक सोच ने मौत से पहले ही जीने की आस छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है. यह महिला एचआईवी पॉजिटिव बच्चों और महिलाओं में न केवल जीने की ललक जगा रही है, बल्कि उनके अधिकारों की अलख जगाने की कोशिश में भी जुटी हैं. सुशीला के 18 सालों से जारी संघर्ष की बदौलत अब इन एड्स सर्वाइवल समाज की मुख्यधारा से जुड़ने का मौका भी मिल रहा है तो इन्हे सम्मान जनक जीवन भी.
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पति से मिली प्रेरणा: सुशीला बताती है कि उनकी जब शादी हुई तो बारात में काफी बच्चे भी शामिल हुए, उन बच्चों को देखकर एक बार के लिए अचंभित रह गई थी, क्योंकि वह हमारे किसी रिश्तेदार के बच्चे नहीं थे और न ही उन्होंने शादी के हिसाब से कोई अच्छे कपड़े पहने हुए थे. जब पूछा गया की बारात में बच्चे कौन हैं तो पता लगा कि उनके पति बूटीराम एक सामाजिक कार्यकर्ता है और जिन बच्चों के मां-बाप नहीं होती उनके लिए काम करते हैं और यह वही बच्चे हैं जिनके मां-बाप नहीं है. पहली बार मुझे उस समय इस बात का एहसास हुआ कि वाकई समाज में कुछ अनछुए पहलू ऐसे भी हैं जहां पर कुछ जरूरतमंद लोग रहते हैं, उसे दिन पति के प्रति एक रिस्पेक्ट मन में बन गया और तय कर लिया कि मुझे भी इनके साथ समाज सेवा में काम करना है.
2006 में शुरु हुआ सफर आज भी जारी: सुशीला ने बताया कि उसके बाद एसएमएस अस्पताल में वालंटियर के रूप में काम करने लगी, उसे समय स्किन को लेकर कई तरह की बीमारियां सामने आ रही थी, उस दौरान देखा कि एसएमएस में एक महिला हाथ में मेडिकल पर्ची लेकर नर्स से कुछ मालूम करना चाह रही है और नर्स मुंह बनाते हुए अपने हाथों के इशारे से उसे दूर रहने के लिए कहती है. समझने पर सामने आया कि ये पर्चा एक एचआईवी पॉजिटिव पेशेंट का था. सुशीला ने जब समझा कि क्या वाकई एड्स ऐसी बीमारी है जिसे छुआ भी नहीं जा सकता, तो समझ आया कि ये सब भ्रांतियां है. इस बीमारी के प्रति जागरुकता के आभाव में इनके साथ भेदभाव हो रहा है, उसी दिन मन में तय कर लिया कि अब इनके स्वास्थ्य और अधिकारों के लिए काम करना है. सुशीला के ये सफर 2006 में शुरू हुआ जो आज भी जारी है. सुशीला के जीवन का उद्देश्य एचआईवी पॉजिटिव बच्चों,बालिकाओं और महिलाओं के हक के लिए लड़ना है.
जरूरत पड़ी तो बनाई संस्था: सुशीला कहती हैं कि शुरुआत में तो एसएमएस अस्पताल में ही इन एचआईवी पीड़ितों के साथ में काम करना शुरू किया, लेकिन जब लगा कि उनके हक के लिए जो कानून बने हुए उनके पालन करवानी है और समाज के इनके लिए सम्मानजनक जीवन देना है तो एक संगठन तैयार करना होगा. इसलिए एक PWNR पॉजिटिव वुमन्स नेटवर्क राजस्थान संस्था का गठन किया. आज इस संस्था का पांच जिलों में काम है और करीब 120 से ज्यादा बॉयज और गर्ल्स रह रही हैं. सुशीला बताती है कि यह सभी बच्चे सामान्य बच्चों की तरह स्कूल जाते हैं, सामान्य बच्चों के साथ खेलते-कूदते हैं. आज यह सब बेहतर जिंदगी जी रहे हैं, हालांकि कुछ सावधानियां बरतनी पड़ती है और खासतौर से दवाइयां का विशेष ध्यान रखना पड़ता है. इसके लिए स्टाफ है जो नियमित काम कर रहा है.
सामाजिक सोच में बदलाव आया है: सुशीला कहती हैं बहुत नजदीक से इन बच्चों, बालिकाओं और महिलाओं की स्थिति देखी, मुझे लगा कि इन महिलाओं के लिए एक मंच की जरूरत है, जिसमें वह खुलकर अपने विचार रख सके. यही सोच कर खास कर महिलाओं का हमने पॉजिटिव वुमन्स नेटवर्क का गठन किया. सुशीला ने बताया कि शुरुआत में एचआईवी निगेटिव लोग हमसे जुड़ने में कतराते थे और मुझे भी इन लोगों से दूर रहना की सलाह देते थे, लेकिन समय के साथ जागरूकता बढ़ी है.अब कुछ लोग हमारी संस्था से जुड़ने लगे हैं. लोगों की सामाजिक सोच में बदलाव आया है. सुशीला कहती हैं पहले तो इन बच्चों को रखने के लिए जब मकान किराये पर लेने जाते थे तो एड्स का नाम सुनते ही मना कर देते. कई बार कॉलोनी और आसपास के लोगों के ऑब्जेक्शन को देखते हुए मकान खली भी करना पड़ा, लेकिन अब वो पहले वाली बात नहीं है, जागरूकता की वजह से आज लोग आगे होकर मदद भी करने आते हैं.
सच को को कहने की ताकत होनी चाहिए: सुशीला कहती हैं कि सच में बड़ी ताकत होती है. एचआईवी पेशेंट के प्रति लोगों के नजरिए ने हमें कई बार विचलित किया, लेकिन जब हम समाज के सामने सच को लेकर गए तो बदलाव हमारे सामने है. संस्था के बच्चे सामान्य बच्चों की तरह स्कूल जाते हैं, साथ में खेलते है , आज समाज में उन्हें सम्मानजनक तरीके से जीने का मौका मिल रहा है. सुशीला कहती है कि सबसे ज्यादा दुख इन बच्चों को देखकर होता है जो उस गलती की सजा भोग रहे हैं, जिन्होंने नहीं की. वक्त की मार ने बच्चों को समझदार बना दिया है. वे जानते है कि उन्हें एक-दूसरे के ज्यादा नजदीक नहीं आना है, अगर चोट लगी है तो तुरन्त बताना है. सुशीला कहती है कि एचआईवी होने के कई कारण है, लेकिन सबसे ज्यादा कैरेक्टर को लेकर आंकलन किया जाता है जो कि गलत है. सुशीला का 18 साल का सफर इन एड्स पीड़ितों के अधिकारों के लिए अनवरत जारी है.