जयपुर. 'चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊं, गीदड़ों को मैं शेर बनाऊं, सवा लाख से एक लड़ाऊं, तभी गोविंद सिंह नाम कहाऊं'. गुरू गोविंद सिंह का ये कथन ना सिर्फ उनके लिए बल्कि उनके पुत्रों के जीवन का भी परिचय कराता है, जिन्होंने कम उम्र में बलिदान की एक ऐसी इबारत लिखी जिसे भूलाया नहीं जा सकता. उन्होंने धर्म और राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए अपने साहस का लोहा मनवाया. गर्दन कटा दी, लेकिन कभी सिर नहीं झुकाया. उनकी इसी शहादत को याद दिलाता है वीर बाल दिवस. सिखों के दसवें और अंतिम गुरू गोविंद सिंह के पुत्रों के साहस और शहादत को श्रद्धांजलि देने के लिए 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस मनाया जाने लगा है. मंगलवार को दूसरा मौका होगा जब भारत में वीर बाल दिवस मनाया जा रहा है.
गुरू गोविंद सिंह के पुत्र साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह की शहादत को याद करने के लिए 'वीर बाल दिवस' की घोषणा की गई. हालांकि सिख संगत इसे 'वीर साहिबजादा दिवस' के रूप में मनाने की वकालत करते आए हैं. ज्ञानी गुरदीप सिंह ने बताया कि वीर बाल दिवस पर साहिबजादों और माता गुजरी के साहस को याद करते हैं. साथ ही गुरू गोविंद सिंह के दिखाए गए साहस के मार्ग पर चलने का संकल्प भी लेते हैं. उन्होंने बताया कि दशमेश पिता गुरू गोविंद सिंह को सरबंसदानी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने पूरे वंश को धर्म और देश की रक्षा के लिए कुर्बान कर दिया था.
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ये था वो घटनाक्रम : दरअसल, गुरू गोविंद सिंह के चार पुत्र साहिबजादा अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह थे. दिसंबर 1704 में आनंदपुर साहिब में गुरू गोविंद सिंह के शूरवीरों और मुगल सेना के बीच युद्ध जारी था. तब मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हें आनंदपुर का किला खाली कर देने के लिए पत्र लिखा था. तब किले से निकलते वक्त मुगल सेना ने उन पर हमला कर दिया था, जिसमें उनका परिवार बिछड़ गया. उनके साथ दोनों बड़े साहिबजादे थे, जबकि दोनों छोटे साहिबजादे दादी माता गुजरी जी के साथ चले गए. इसके बाद चमकौर के युद्ध में गुरू गोविंद सिंह के कथन 'सवा लाख से एक लड़ाऊ' को सार्थक करते हुए उनके दोनों बड़े साहिबजादे युद्ध में उतरे. दोनों ने अपने युद्ध कौशल के जौहर दिखाए और लाखों मुगलों पर भारी भी पड़े.
हालांकि, इस युद्ध में उनके दोनों बड़े साहिबजादे 17 वर्ष के अजीत सिंह और 14 वर्ष के जुझार सिंह शहीद हो गए, जबकि गुरू गोविंद सिंह की माताजी और दोनों छोटे साहिबजादों को धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें सरहिंद के बस्सी थाना ले जाया गया और रात भर ठंडे बुर्ज में रखा गया. अगले दिन साहिबजादा 9 वर्ष के जोरावर सिंह और 7 वर्ष के फतेह सिंह को सरहिंद के सूबेदार वजीर खान की कचहरी में लाया गया था, जहां उन्हें लालच दिया गया, डरा-धमकाकर धर्म परिवर्तन के लिए भी कहा गया, लेकिन वो डिगे नहीं और धर्म परिवर्तन से इंकार कर दिया. जिसके चलते फतवा जारी कर उन्हें जिंदा ही नींव में चुनवा दिया गया. नींव की दीवार के अचानक गिरने के बाद उन्हें बाहर निकालकर यातनाएं देकर शहीद कर दिया गया. वहीं, माता गुजरी ने भी ठंडे बुर्ज में शरीर त्याग दिया.
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15 दिन नहीं होता मांगलिक कार्य : राजस्थान सिख समाज यूथ विंग के प्रेसिडेंट देवेंद्र सिंह शंटी ने बताया कि इसी इतिहास को ताजा करने और उनकी शहादत को याद करते हुए इन 15 दिनों में ना तो कोई खुशी का पर्व मनाया जाता है और ना ही कोई मांगलिक कार्य किया जाता है. यहां तक कि मीठा भी नहीं बांटा जाता, सिर्फ सादा लंगर होता है. ये इतिहास जब बना तब से चारों साहिबजादों का शहीदी पर्व सिख संगत दुनिया में मनाती आई है.