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यहां बच्चे स्कूल पहुंचने के लिए पार कर रहे हैं 'मौत का दरिया'...डर के साये में जी रहे गांव के लोग

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Published : Nov 28, 2019, 9:41 PM IST

आदिवासी समाज के बच्चे पीठ पर बस्ता टांग कर जब घर से निकलते हैं तो मां-बाप के कलेजे में सांप लोट जाता है. डर सताता है कि क्या मेरी बेटी या बेटा शाम को घर वापस लौट कर आएगा. कहीं ऐसा तो नहीं की कलेजे के टुकड़े की शाम को मौत की खबर मिले. क्योंकि परजनों को पता है की इन बच्चों को स्कूल तक पहुंचने के लिए पार करना पड़ेगा एक दरिया...'मौत का दरिया'.

students crossing the river, डर के साये में जी रहे गांव के लोग
यहां बच्चे स्कूल पहुंचने के लिए पार कर रहे हैं 'मौत का दरिया'

मनोहरथाना/झालावाड़. कहते हैं कि जब कुछ पाने की ख्वाहिश हो तो समुंदर भी छोटा पड़ जाता है. ऐसा ही कुछ आलम झालावाड़ जिले के समरोल,भूलनखेड़ी विद्यालय देहात के गुराडखेड़ा गांव का है, जहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए नन्हें मुन्हें मासूम बच्चे जान हथेली पर रखकर नदी को पर कर रहे हैं. दरअसल गुराडखेड़ा गांव ,परवन नदी के एक तरफ बसा हुआ है. इस गांव के लोगों को बाजार हो या स्कूल नदी पार करके ही जाना होता है. स्कूल जाने वाले नौनिहाल भी नाव पर सवार होकर स्कूल पहुंचते हैं, जो कभी भी जानलेवा साबित हो सकता है. हालांकि बताया जाता है कि कई बार नाव पलटने की घटना हुई और मल्लाह ने इन बच्चों को बचाया है. लेकिन कोई सड़क या पुल न होने से बच्चे मजबूरन खतरे को दरकिनार कर अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते हैं.

यहां बच्चे स्कूल पहुंचने के लिए पार कर रहे हैं 'मौत का दरिया'.
बारिश के दरमियान नदी का पानी बढ़ जाता है ओर नदी में नांव चलाना भी मुमकिन नही होता. लिहाज़ा मासूम बच्चे स्कूल जाना बंद कर देते है कई बार तो नदी में नांव भी पलट चुकी है. बच्चों के चोटे भी आई है जिससे बच्चे दहशतज़दा होकर के कई हफ्ते स्कूल नही गए. लेकिन जुनून पढ़ने का है तो फिर ये बच्चे डर से निकल कर स्कूल जाना शुरू कर देते है.सर्व शिक्षा अभियान का ये है असली रूप:सब पढ़ें सब बढ़ें स्लोगन की असल परिभाषा देखना है तो झालावाड़ देहात के मनोहरथाना ब्लाक के गुराडखेड़ा गांव आइये, जहां डर के आगे जीत वाला नजारा दिखता है. जहां बच्चों में पढ़ने का जज़्बा और जुनून है. लेकिन अपनी जिंदगी दांव में लगाकर ये बच्चे शिक्षा ले रहे हैं.अभिभावक मजबूर:
बच्चों के अभिभावक भी मजबूर हैं, वो रोज़ अपने बच्चों को ईश्वर से प्रार्थना कर स्कूल भेजते हैं. मानो वो पढ़ने नहीं जंग लड़ने जा रहे हैं और उनके घर वापस आ जाने तक डरे सहमे रहते हैं. गांव के लोगों ने कई बार अपनी समस्या अधिकारियों से बतायी और नदी पार करने के लिए एक पुल बनाने की मांग की लेकिन नतीजा सिफर निकला. चुनाव आते ही वोट मांगने वाले नेता पुल बनवाने की बात को अपने मेनोफेस्टो मे शामिल करने की बात कहते हैं लेकिन फिर मुड़कर कोई वापस हीं लौटता.नौनिहाल बोले यही उद्देश्य है मेरा:हमने बच्चों से भी बात की, इस दौरान एक मासूम बच्चे ने बताया कि उसे नेताओं और अधिकारियों पर भरोसा नहीं है, लिहाज़ा ये पढ़ाई इस लिहाज से कर रहा है कि पढ़ लिखकर ये अधिकारी बनेगा और सबसे पहले अपने गांव का पुल बनवाएगा. कुछ ऐसी ही ख्वाहिशें गांव के तमाम नौनिहालों की दिलों में हैं. इसलिए ये बच्चे डर को पीछे छोड़ जान जोखिम में डालकर स्कूल पढ़ने जाते हैं. नांव चलाने खुद नौनिहाल बच्चे नाव चला कर ले जाते हैं. जो बेहद खतरनाक और जानलेवा है.

ये भी पढ़ें: प्याज का शतक! जोधपुर में 80 रुपए किलो प्याज...गृहणियां 4 के बदले 1 प्याज से चला रहीं काम, छात्रों ने कहा- इससे अच्छा सेब ही खा लें

नहीं सुन रहे अधिकारी:

ग्रामीण और स्कूल के अध्यापक कहते हैं कि कई बार अधिकारियों को इस विकट समस्या के बारे में बताया और अधिकारियों से मिन्नत-मुरादे भी की लेकिन कुछ नहीं हुआ. मुख्यमंत्री तक को फैक्स कर पुल निर्माण की मांग की लेकिन कुछ नहीं हुआ.

डर और सांसत में जी रहे हैं परिजन:

आदिवासी समाज के यह बच्चे स्कूल पढ़ने के लिए जाते हैं और शिक्षा प्राप्त करके कुछ बनने का ख्वाब देख रहे हैं. परंतु जब स्कूल की ओर जाते हैं तो मां-बाप के कलेजा दर्द से कांप उठता है. बेटी भी स्कूल जा रही हैं क्या वापस सकुशल लौट कर आएगी. इस बात की कोई गारंटी नहीं है. ऐसे में मां बाप टकटकी लगाए हुए परवन नदी के उस छोर पर टकटकी लगाए हुए बैठे रहते हैं. मां-बाप इंतजार करते रहते हैं अब आएगी मेरी लाड़ली बिटिया स्कूल से नदी के मझधार में गुजरती हुई. नाव में सवार होकर जान जोखिम से बचते हुए.

क्या यही है 'शिक्षा का सबको है अधिकार':

इन बच्चों का भगवान ही एक सहारा है मजबूरी भी है. जाए तो कहां जाए पढ़ना तो जरूरी है. एक तरफ सरकार कह रही है बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ, शिक्षा का सबको है अधिकार, परंतु जमीनी हकीकत छुप नहीं सकती. यहां के लोग ये हकीकत बयां करते डरते और घबराते हैं. हाथ में जान हथेली में लेकर इस मझधार में बैठकर उस पार जाते हैं.

बोर्ड परीक्षाओं में अंक भी कम आते हैं:

बता दें, कि झालावाड़ जिले के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय समरोल, और दूसरी ओर राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय भूलनखेड़ी दोनों विद्यालयों के दर्जनों बच्चे जोखिम भरा सफर को तय करके जान जोखिम में डालकर शिक्षा के मंदिर में पहुंचते हैं. सर्दी हो या गर्मी बारिश ही क्यों ना हो स्कूल तो जाना है. कहीं कई बार तेज बारिश या नदी उफान पर होती है उस दिन बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं. उस दिन शिक्षा से वंचित रह जाते हैं. हालत यह है कि जोखिम भरी पढ़ाई करने के बाद भी ये मासूम बच्चे अच्छी शिक्षा से वंचित हो रहे हैं. बच्चों के बोर्ड परीक्षाओं में अंक भी कम आते हैं.

क्या कहता है विद्यालय स्टाफ:
विद्यालय स्टाफ बताता है कि छुट्टी होने के बाद इन बच्चों को नाव में बिठाकर दूसरे किनारे पर छोड़ने के लिए हम साथ में जाते हैं, नाव को यह नन्हें छोटे-छोटे बच्चे खुद स्वयं चलाकर लेकर जाते हैं. आपको बता दें कि विद्यालय के आसपास बनी वॉल बाउंड्री क्षतिग्रस्त है. कई जगह से टूट कर गिर गई है जिसके कारण पास के नाले से जहरीले जीव जंतु विद्यालय में प्रवेश कर जाते हैं. वहीं दूसरी ओर 12वीं कक्षा के विद्यालय के आसपास अभी तक वाल बाउंड्री नहीं बनी जिसके कारण आसपास के जानवर विद्यालय में प्रवेश कर जाते हैं. आदिवासी भील समाज के यह लोग अपने बच्चों को भले ही स्कूल भेज रहे हो लेकिन डर और परेशानियों के बीच जी रहे हैं. और कुछ लोग तो अब अपने बच्चों को लेकर पलायन भी कर रहे हैं.

मनोहरथाना/झालावाड़. कहते हैं कि जब कुछ पाने की ख्वाहिश हो तो समुंदर भी छोटा पड़ जाता है. ऐसा ही कुछ आलम झालावाड़ जिले के समरोल,भूलनखेड़ी विद्यालय देहात के गुराडखेड़ा गांव का है, जहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए नन्हें मुन्हें मासूम बच्चे जान हथेली पर रखकर नदी को पर कर रहे हैं. दरअसल गुराडखेड़ा गांव ,परवन नदी के एक तरफ बसा हुआ है. इस गांव के लोगों को बाजार हो या स्कूल नदी पार करके ही जाना होता है. स्कूल जाने वाले नौनिहाल भी नाव पर सवार होकर स्कूल पहुंचते हैं, जो कभी भी जानलेवा साबित हो सकता है. हालांकि बताया जाता है कि कई बार नाव पलटने की घटना हुई और मल्लाह ने इन बच्चों को बचाया है. लेकिन कोई सड़क या पुल न होने से बच्चे मजबूरन खतरे को दरकिनार कर अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते हैं.

यहां बच्चे स्कूल पहुंचने के लिए पार कर रहे हैं 'मौत का दरिया'.
बारिश के दरमियान नदी का पानी बढ़ जाता है ओर नदी में नांव चलाना भी मुमकिन नही होता. लिहाज़ा मासूम बच्चे स्कूल जाना बंद कर देते है कई बार तो नदी में नांव भी पलट चुकी है. बच्चों के चोटे भी आई है जिससे बच्चे दहशतज़दा होकर के कई हफ्ते स्कूल नही गए. लेकिन जुनून पढ़ने का है तो फिर ये बच्चे डर से निकल कर स्कूल जाना शुरू कर देते है.सर्व शिक्षा अभियान का ये है असली रूप:सब पढ़ें सब बढ़ें स्लोगन की असल परिभाषा देखना है तो झालावाड़ देहात के मनोहरथाना ब्लाक के गुराडखेड़ा गांव आइये, जहां डर के आगे जीत वाला नजारा दिखता है. जहां बच्चों में पढ़ने का जज़्बा और जुनून है. लेकिन अपनी जिंदगी दांव में लगाकर ये बच्चे शिक्षा ले रहे हैं.अभिभावक मजबूर:बच्चों के अभिभावक भी मजबूर हैं, वो रोज़ अपने बच्चों को ईश्वर से प्रार्थना कर स्कूल भेजते हैं. मानो वो पढ़ने नहीं जंग लड़ने जा रहे हैं और उनके घर वापस आ जाने तक डरे सहमे रहते हैं. गांव के लोगों ने कई बार अपनी समस्या अधिकारियों से बतायी और नदी पार करने के लिए एक पुल बनाने की मांग की लेकिन नतीजा सिफर निकला. चुनाव आते ही वोट मांगने वाले नेता पुल बनवाने की बात को अपने मेनोफेस्टो मे शामिल करने की बात कहते हैं लेकिन फिर मुड़कर कोई वापस हीं लौटता.नौनिहाल बोले यही उद्देश्य है मेरा:हमने बच्चों से भी बात की, इस दौरान एक मासूम बच्चे ने बताया कि उसे नेताओं और अधिकारियों पर भरोसा नहीं है, लिहाज़ा ये पढ़ाई इस लिहाज से कर रहा है कि पढ़ लिखकर ये अधिकारी बनेगा और सबसे पहले अपने गांव का पुल बनवाएगा. कुछ ऐसी ही ख्वाहिशें गांव के तमाम नौनिहालों की दिलों में हैं. इसलिए ये बच्चे डर को पीछे छोड़ जान जोखिम में डालकर स्कूल पढ़ने जाते हैं. नांव चलाने खुद नौनिहाल बच्चे नाव चला कर ले जाते हैं. जो बेहद खतरनाक और जानलेवा है.

ये भी पढ़ें: प्याज का शतक! जोधपुर में 80 रुपए किलो प्याज...गृहणियां 4 के बदले 1 प्याज से चला रहीं काम, छात्रों ने कहा- इससे अच्छा सेब ही खा लें

नहीं सुन रहे अधिकारी:

ग्रामीण और स्कूल के अध्यापक कहते हैं कि कई बार अधिकारियों को इस विकट समस्या के बारे में बताया और अधिकारियों से मिन्नत-मुरादे भी की लेकिन कुछ नहीं हुआ. मुख्यमंत्री तक को फैक्स कर पुल निर्माण की मांग की लेकिन कुछ नहीं हुआ.

डर और सांसत में जी रहे हैं परिजन:

आदिवासी समाज के यह बच्चे स्कूल पढ़ने के लिए जाते हैं और शिक्षा प्राप्त करके कुछ बनने का ख्वाब देख रहे हैं. परंतु जब स्कूल की ओर जाते हैं तो मां-बाप के कलेजा दर्द से कांप उठता है. बेटी भी स्कूल जा रही हैं क्या वापस सकुशल लौट कर आएगी. इस बात की कोई गारंटी नहीं है. ऐसे में मां बाप टकटकी लगाए हुए परवन नदी के उस छोर पर टकटकी लगाए हुए बैठे रहते हैं. मां-बाप इंतजार करते रहते हैं अब आएगी मेरी लाड़ली बिटिया स्कूल से नदी के मझधार में गुजरती हुई. नाव में सवार होकर जान जोखिम से बचते हुए.

क्या यही है 'शिक्षा का सबको है अधिकार':

इन बच्चों का भगवान ही एक सहारा है मजबूरी भी है. जाए तो कहां जाए पढ़ना तो जरूरी है. एक तरफ सरकार कह रही है बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ, शिक्षा का सबको है अधिकार, परंतु जमीनी हकीकत छुप नहीं सकती. यहां के लोग ये हकीकत बयां करते डरते और घबराते हैं. हाथ में जान हथेली में लेकर इस मझधार में बैठकर उस पार जाते हैं.

बोर्ड परीक्षाओं में अंक भी कम आते हैं:

बता दें, कि झालावाड़ जिले के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय समरोल, और दूसरी ओर राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय भूलनखेड़ी दोनों विद्यालयों के दर्जनों बच्चे जोखिम भरा सफर को तय करके जान जोखिम में डालकर शिक्षा के मंदिर में पहुंचते हैं. सर्दी हो या गर्मी बारिश ही क्यों ना हो स्कूल तो जाना है. कहीं कई बार तेज बारिश या नदी उफान पर होती है उस दिन बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं. उस दिन शिक्षा से वंचित रह जाते हैं. हालत यह है कि जोखिम भरी पढ़ाई करने के बाद भी ये मासूम बच्चे अच्छी शिक्षा से वंचित हो रहे हैं. बच्चों के बोर्ड परीक्षाओं में अंक भी कम आते हैं.

क्या कहता है विद्यालय स्टाफ:
विद्यालय स्टाफ बताता है कि छुट्टी होने के बाद इन बच्चों को नाव में बिठाकर दूसरे किनारे पर छोड़ने के लिए हम साथ में जाते हैं, नाव को यह नन्हें छोटे-छोटे बच्चे खुद स्वयं चलाकर लेकर जाते हैं. आपको बता दें कि विद्यालय के आसपास बनी वॉल बाउंड्री क्षतिग्रस्त है. कई जगह से टूट कर गिर गई है जिसके कारण पास के नाले से जहरीले जीव जंतु विद्यालय में प्रवेश कर जाते हैं. वहीं दूसरी ओर 12वीं कक्षा के विद्यालय के आसपास अभी तक वाल बाउंड्री नहीं बनी जिसके कारण आसपास के जानवर विद्यालय में प्रवेश कर जाते हैं. आदिवासी भील समाज के यह लोग अपने बच्चों को भले ही स्कूल भेज रहे हो लेकिन डर और परेशानियों के बीच जी रहे हैं. और कुछ लोग तो अब अपने बच्चों को लेकर पलायन भी कर रहे हैं.

Intro:सर्व शिक्षा अभियान का जिता जागता उदाहरण यहाँ देखने को मिलेगा, जहाँ मासूम नौनिहाल जान हथेली पर रखकर रोजाना स्कूल पढने जाते हैं। कभी भी हो सकता बडा हादसा।

झालावाड़ हेमराज शर्मा 9950555135






मनोहरथाना/झालावाड़ /जिले के भूलनखेड़ी राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय भूलनखेड़ी देहात-कहते हैं कि जब कुछ पाने की ख्वाहिश जेहन में हो तो समुंदर भी छोटा पड़ जाता है। ऐसा ही कुछ आलम झालावाड़ जिले के समरोल ,भूलनखेड़ी विद्यालय देहात के गुराडखेड़ा गांव का है, जहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए नन्हे मुन्ने मासूम बच्चे जान हथेली पर रखकर नदी के पार जाते हैं। दरअसल गुराडखेड़ा गांव ,परवन नदी के एक तरफ बसा हुआ है। इस गांव के लोगों को बाजार हो या स्कूल नदी पार करके ही जाना होता है। तब उनको मंजिल मिलती है। फिर वापस इसी तरह नदी पार करके ही वापस घर पहुंचते हैं। इसके लिए स्कूल जाने वाले नौनिहाल भी नाव पर सवार होकर स्कूल पहुंचते हैं, जो कभी भी जानलेवा साबित हो सकता है। हालांकि बताया जाता है कि कई बार नाव पलटने की घटना हुई और मल्लाह ने इन बच्चों को बचाया है लेकिन कोई सड़क या पुल न होने से बच्चे मजबूरन खतरे को दरकिनार कर अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते हैं।



बारिश सर्दी गर्मी तीनों मौसमों
में होती है ये मसक्कत

बारिश के दरमियान नदी का पानी बढ़ जाता है ओर नदी में नांव चलाना मुमकिन नही होता लिहाज़ा मासूम बच्चे स्कूल जाना बंद कर देते है कई बार तो नदी में नांव भी पलट चुकी है बच्चो के चोटे भी आई है जिससे बच्चे दहशतज़दा होकर के कई हफ्ते स्कूल नही गए लेकिन जुनून पढ़ने का है तो फिर ये बच्चे डर से निकल कर स्कूल जाना शुरू कर देते है ये सिलसिला एक ज़माने से चला आ रहा है लेकिन किसी भी नेता या अधिकारी ने इनकी समस्या को समझना भी उचित नही समझा।



सर्व शिक्षा अभियान का ये है असली रूप

सब पड़े सब बड़े इस स्लोगन की असल परिभाषा देखना है तो झालावाड़ देहात के मनोहरथाना ब्लाक के गुराडखेड़ा गांव आइये, जहाँ डर के आगे जीत है। जहां बच्चो में पढ़ने का जज़्बा और जुनून है। दरअसल गुराडखेडा गांव में स्कूल नही है। स्कूल भूलनखेड़ी गांव के सामने बह रही परवन नदी उस पार है। लिहाज़ा नन्हे मुन्ने मासूम बच्चे जान जोखिम में डालकर नांव पर सवार होकर नदी उस पार पढ़ने जाते है। मासूम बच्चे दहशतज़दा रहते है लेकिन मजबूर है। कुछ कर भी नही सकते हैं। लिहाज़ा रोज़ाना जान हथेली पर लिए सब पड़े सब बड़े के नारे को ज़िंदा कर रहे है। लेकिन हालात ज्यों के त्यों हैं।



अभिभावकों की है ये मजबूरी

दरअसल बच्चों के अभिभावक मजबूर है, वो रोज़ अपने बच्चो को ईश्वर से प्रार्थना कर स्कूल भेजते हैं। मानो वो पढ़ने नही जंग लड़ने जा रहे हैं और उनके घर वापस आ जाने तक डरे सहमे रहते हैं लेकिन कर भी क्या सकते हैं। बच्चों का भविष्य भी बनाना है, लिहाज़ा सबकुछ देखकर भी अंजान बने रहते हैं। गांव के लोगो ने तमाम बार अपनी समस्या अधिकारियों से बतायी और नदी पार करने के लिए एक पुल बनाने की मांग की लेकिन नतीजा सिफर निकला चुनाव आते ही वोट मांगने वाले नेता पुल बनवाने की बात को अपने मेनोफेस्टो मे शामिल करने की बात कह कर वोट लेकर चले जाते हैं और दोबारा नज़र नही आते हैं। नेता विधायक सांसद मंत्री बन जाते है और इस गांव के लोग पहले की तरह आदिवासियों वाली ज़िन्दगी गुज़ार रहे है



नौनिहाल बोले यही उद्देश्य है मेरा

एक मासूम बच्चे ने बताया कि उसे नेताओ और अधिकारियों पर भरोसा नही है, लिहाज़ा ये पढ़ाई इस लिहाज से कर रहा है कि पढ़ लिखकर ये अधिकारी बनेगा और सबसे पहले अपने गांव का पुल बनवाएगा। कुछ ऐसी ही ख्वाहिशें गांव के तमाम नौनिहालों की दिलो में हैं। इसलिए ये बच्चे डर को पीछे छोड़ जान जोखिम में डालकर स्कूल पढ़ने जाते हैं। नांव चलाने खुद नौनिहाल बच्चे नाव चला कर ले जाते हैं बताता है कि कई बार नांव पलटी और उसने किस तरह अपनी जान जोखिम में डालकर बच्चों को बचाया। क्योंकि ज़िम्मेदारी उसकी थी। इस गांव के ग्रामीणों ने एवं विद्यालय प्रशासन ने कहीं बाहर उच्चाधिकारियों को अवगत कराया
तमाम बार अधिकारियों को इस विकट समस्या के बारे में बताया और अधिकारियों से मन्नत मुरादे की कि पुल का निर्माण करा दिया जाए। मुख्यमंत्री तक को फैक्स कर पुल निर्माण की मांग की लेकिन गुज़रते वक्त ने सब कुछ ठंडे बस्ते में डाल दिया।Body:जी हां आज हम आपको एक हकीकत से रूबरू करवाएंगे ईटीवी भारत के संवाददाता हेमराज शर्मा झालावाड़ जिले के भूलनखेड़ी गांव में पहुंचे । देश के नौनिहाल बच्चे सपना देख रहे हैं और सपनों की उड़ान भरने के लिए ख्वाहिश से अनेक लेकर बैठे हैं आदिवासी समाज के यह बच्चे स्कूल पढ़ने के लिए जाते हैं और शिक्षा प्राप्त करके कुछ बनने का ख्वाब देख रहे हैं परंतु जब स्कूल की ओर जाते हैं तो मां-बाप के कलेजा दर्द से कांप उठता है बेटी भी स्कूल जा रही है क्या वापस सकुशल लौट कर आएगी किस बात की गारंटी कौन देगा कौन है जिम्मेदार ऐसे में मां बाप टकटकी लगाए हुए परवन नदी के उस छोर पर टकटकी लगाए हुए बैठे रहते हैं मां-बाप इंतजार करते रहते हैं अब आएगी मेरी लाडली बिटिया स्कूल से नदी के मझधार में गुजरती हुई यह बेटियों को आप नाव में सवार होकर जान जोखिम में डालते हुए देख सकते हो । ऐसे में इन बच्चों का भगवान ही एक सहारा है मजबूरी भी है जाए तो कहां जाए पढ़ना तो जरूरी है एक तरफ सरकार कह रही है बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ शिक्षा का सबको है अधिकार परंतु जमीनी हकीकत छुप नहीं सकती भील समाज के जो यह लोग आदिवासी समाज में आते हैं कुछ हकीकत बयां करते हैं डरते घबराते हैं हाथ में जान हथेली में लेकर इस मझधार में बैठकर उस पार जाते हैं।Conclusion:आपको बता दें कि झालावाड़ जिले के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय समरोल, और दूसरी ओर राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय भूलनखेड़ी दोनों विद्यालयों के दर्जनों बच्चे जोखिम भरा सफर को तय करके जान जोखिम में डालकर शिक्षा के मंदिर में पहुंचते हैं। सर्दी हो या गर्मी बारिश ही क्यों ना हो स्कूल में तो जाना ही। कहीं बार तेज बारिश या नदी उफान पर होती है उस दिन बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं उस दिन शिक्षा से वंचित रह जाते हैं जिसके कारण बोर्ड परीक्षाओं में अच्छे अंक भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं उसके कारण कहीं बच्चे अपने आप में दुखी होते रहते हैं इसके कारण कहीं बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं।

वहीं विद्यालय स्टाफ बताता है छुट्टी होने के बाद इन बच्चों को नाव में बिठाकर दूसरे किनारे पर छोड़ने के लिए हम साथ में जाते हैं और नाव को यह नन्हे छोटे-छोटे बच्चे खुद स्वयं इस नाव को चलाते हैं।


आपको बता दें कि विद्यालय के आसपास बनी वॉल बाउंड्री क्षतिग्रस्त हो गई कहीं जगह से टूट कर गिर गई जिसके कारण पास के नाले से जहरीले जीव जंतु विद्यालय में प्रवेश कर जाते हैं वहीं दूसरी ओर बारहवीं कक्षा के विद्यालय के आसपास अभी तक वाल बाउंड्री नहीं बनी जिसके कारण आसपास के जानवर विद्यालय में प्रवेश कर जाते हैं।



वही आपको बता दें कि आदिवासी भील समाज की यह लोग अपने बच्चों को बल्ले स्कूल भेज रहे हो परंतु कुछ लोग तो पलायन कर जाते हैं मजदूरी के लिए


आपको बता दें कि आदिवासी भील समाज के लोग आज भी शिक्षा से वंचित ही नजर आ रहे हैं और जहां पर शिक्षा मिली तो जान जोखिम में डालने वाली शिक्षामित्र नदी के उस छोर तक जाने में कहीं समस्याओं का सामना करना पड़ता है आजादी मिले वर्ष बीत चुके हैं परंतु आज भी आदिवासी भील समाज को शिक्षा के अभाव में कहीं मूलभूत सुविधाओं का वंचित रहना पड़ रहा है जिसकी एक बागी आज ईटीवी भारत ने प्रमुखता से जाकर झालावाड़ जिला मुख्यालय से लगभग 110 किलोमीटर दूरी पर करने के लिए
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