जयपुर. प्रदेश में आज तीन लाख के करीब घरेलू कामगार महिलाएं हैं, जिन्हें सामाजिक सुरक्षा चाहिए. गांव में घटते रोजगार से शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ा है. शिक्षा से वंचित और आर्थिक रूप कमजोर महिलाएं घर चलाने के लिए घरों में काम करती हैं, ताकि उनके परिवार को दो जून की रोटी नसीब हो सके. लेकिन विडंबना है कि कार्य स्थलों पर भी उन्हें शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है. वहीं, प्रदेश में एक ऐसी महिला सामाजिक कार्यकर्ता है, जो आज तीन लाख महिलाओं की आवाज बनकर उभरी है. वो सरकारी तंत्र और अधिकारों के समक्ष कामगार महिलाओं समस्याओं को उठाती है. आज हम नारी शक्ति में बात करेंगे सामाजिक कार्यकर्ता मेवा भारती की, जिन्हें कामगार महिलाएं 'मेवा दीदी' कहती है. मेवा पिछले 15 साल से उन महिलाओं की आवाज बनी हुई हैं, जो राजस्थान से ही नहीं, बल्कि आधा दर्जन राज्यों से यहां काम की तलाश में आई हैं. आज मेवा दीदी घरेलू कामगार महिलाओं के सामाजिक सुरक्षा कानून की लंबी लड़ाई लड़ रही हैं.
'मेवा दीदी' काम से बनी पहचान - मेवा भारती राजस्थान की सिविल सोसायटी का वह नाम हैं, जिन्होंने तमाम संघर्षों के बीच प्रदेश में 'महिला घरेलू कामगार संगठन' की न केवल नींव रखी, बल्कि उनके अधिकारों की आवाज को बुलंद करते हुए उन्हें न्याय दिलाया. झुंझुनू के घरड़ाना खुर्द गांव की मेवा दीदी आज हजारों जरूरतमंद महिलाओं की आवाज बन चुकी हैं. मेवा अपने शुरुआती दौर के बारे में बताती हैं कि उन्होंने एक महिला सोशल एक्टिविस्ट के रूप में अपना काम शुरू किया. इसी दौरान एक 14 साल की बच्ची का केस उनके पास आया, जिसमें मालिक ने उससे दुष्कर्म किया और उसे गर्भवती कर दिया. इस केस में उन्होंने पीड़ता को न्याय दिलाया. उक्त मामले में आरोपी को सजा हुई और वो आज भी जेल में है.
मेवा बताती हैं कि इस घटना ने उन्हें अंदर से झकझोर दिया था. इसके बाद उन्होंने यह तय किया वो कामगार महिलाओं के अधिकार के लिए पूरी सक्रियता से लड़ाई लड़ेंगी. वहीं, इस घटना के बाद उन्होंने 500 घरेलू कामगार महिलाओं की स्टडी की और उसकी रिपोर्ट तैयार की. जिसमें सामने आया कि इन महिलाओं के लिए कोई भी सोशल सिक्योरिटी या नियम कानून नहीं है, जिससे की इन्हें न्याय मिल सके. लिहाजा उन्होंने राजस्थान कामगार महिला यूनियन बनाकर इन महिलाओं को संगठित किया.
इसे भी पढ़ें - पशु 'प्रिया' : राजस्थान की महिला बॉडी बिल्डर प्रिया सिंह हैं स्ट्रीट डॉग्स की मसीहा..
प्रदेश में 3 लाख से ज्यादा घरेलू कामगार महिलाएं - मेवा भारती बताती हैं कि राजस्थान में बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के गांव व कस्बों की करीब तीन लाख घरेलू कामगार महिलाओं का अनुमानित आंकड़ा है. जिनका कोई आधिकारिक सर्वे नहीं है. ऐसे में यह संख्या अधिक भी हो सकती है. ये वो महिलाएं हैं, जो घरों में काम करती हैं और ये भी तीन तरह की कामगार हैं. पहली वो जो 24 घंटे किसी एक घर में रहकर काम करती है तो दूसरी 10 से 12 घंटे काम करती है और फिर अपने घर को लौट जाती है और तीसरी पार्ट टाइम कामगार हैं, जो एक-दो घंटे काम के लिए आती हैं. मेवा बताती हैं कि सरकार ने इनके लिए कोई भी नियम कानून नहीं बनाई है.
काम और दाम दोनों तय कराया - मेवा बताती हैं कि जब उन्होंने काम शुरू किया तब न तो महिला कामगारों का समय तय था और न ही पैसे. ऐसे में उन्होंने सबसे पहली लड़ाई उनके काम और दाम की लड़ी. अब इनके काम के घंटे भी तय हो गए हैं और उन घंटों के आधार पर दाम भी तय हो गए हैं. इसके बाद सबसे बड़ी दिक्कत उनकी छुट्टी की थी. सभी महिलाएं बड़े घरों में काम करती है, जैसे ही छुट्टी मांगों उन्हें लगता अब उनके घर का काम कौन करेगा तो वो छुट्टी नहीं देने के लिए चोरी का आरोप लगा देते थे. ज्यादा कुछ करने पर जबरन रोकने के लिए मारपीट तक पर उतारू हो जाते थे. मेवा कहती हैं 15 साल में उनके पास सैकड़ों चोरी के मामले सामने आए, जो पूरी तरह से निराधार थे और कोई भी केस आज तक प्रमाणित नहीं हो सका है. इस तरह के मामलों में उन्होंने महिलाओं को न्याय दिलाया.
सेक्सुअल हैरेसमेंट के मामले - मेवा ने बताया कि कामगार महिलाओं के साथ सेक्सुअल हैरेसमेंट की घटनाएं बहुत ज्यादा है. चिंता की बात यह है कि कामगार महिलाएं उनके साथ वाली अप्रिय घटनाओं के बारे में खुलकर बोलती भी नहीं हैं. वो भी जानती है कि न्याय के लिए कोर्ट के चक्कर काटने होंगे, जो उनके बस की बात नहीं है, क्योंकि उन्हें उनका और उनके परिवार का पेट भी पालना है. ऐसे में वो लगातार महिलाओं से संवाद करती हैं और उनसे उनकी समस्याओं पर खुलकर बात करती हैं. उन्होंने कहा कि अब तक एक दर्जन दुष्कर्म के मामलों में आरोपियों को सजा हो चुकी है. 1500 से ज्यादा उन महिलाओं को न्याय दिलाया जा सका है, जिनका मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न हुआ था.
कानून बनाने और श्रमिक का दर्जा देने की मांग - मेवा ने कहा कि यह दुर्भाग्य है कि राजस्थान में 3 लाख के करीब कामगार महिलाएं हैं, जो घरों में काम करती हैं. अकेले जयपुर की बात करें तो यहां डेढ़ लाख के करीब कामगार महिलाएं हैं, लेकिन उनकी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है. इन महिलाओं को न श्रमिक का दर्जा प्राप्त है और न ही इनके लिए कोई नियम कानून है. जिसकी वजह से आज भी इन लाखों महिलाओं को आर्थिक नुकसान के साथ ही शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है. जिसकी सुनवाई कहीं नहीं होती है.
इन अधिकारों के लिए 15 साल से संघर्ष - मेवा ने बताया कि इन महिलाओं के लिए कोई कानून नहीं है. महाराष्ट्र में 2008 में कामगार महिलाओं के लिए कानून बना था. उसी तरह से हम भी राज्य सरकार से कामगार महिलाओं के लिए कानून की मांग कर रहे हैं. ताकि उनकी सामाजिक सुरक्षा बहाल हो सके.