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जयपुर में 'जन साहित्य पर्व' में सिनेमा, साहित्य और सियासत पर कार्यक्रम आयोजित

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Published : Nov 16, 2019, 10:02 PM IST

जयपुर के राजस्थान विश्वविद्यालय में जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की ओर से 'जन साहित्य पर्व' नामक कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम में सिनेमा के रास्ते, साहित्य के रास्ते और सियासत के रास्ते विषय पर सत्र का संचालन किया गया.

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जयपुर. जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की ओर से राजस्थान विश्वविद्यालय में 'जन साहित्य पर्व' नामक कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम के दूसरे दिन सिनेमा के रास्ते, साहित्य के रास्ते और सियासत के रास्ते विषय पर सत्र का संचालन किया गया.

जयपुर में साहित्य से जुड़े विषय पर कार्यक्रम का आयोजन

इस दौरान साहित्यकार आलोक श्रीवास्तव ने मंच से संबोधित करते हुए कहा कि हिंदुस्तान में एक नए वैचारिक जागरण की आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि संकीर्णता ने हिंदी साहित्य को बंजर बना दिया है. हमने केवल सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को ही प्रगतिशील का प्रतीक मान लिया है, लेकिन जयशंकर प्रसाद के साहित्य के बिना क्या कल्पना की जा सकती है.

उन्होंने कहा कि हिंदी की प्रगतिशील पर जो सामंती प्रभाव है, उससे निकलना होगा. हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी साहित्य की पहुंच को सुगम करना पड़ेगा. हिंदी पूरे जीवन की आवश्यकता है. उन्होंने देश के मौजूदा समय के हालात पर बोलते हुए कहा कि जंजीर जेवर बन जाए और उसको पहनने वाले उसमें ही अपनी मुक्ति समझे कुछ ऐसी ही हालात हमारे देश का है.

यह भी पढ़ें- अंता में जुटे हाड़ौती के ख्यातनाम साहित्यकार, गिरधारी लाल मालव की राजस्थानी कहानियों का विमोचन

वहीं सिनेमा के रास्ते पर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे जवरीमल्ल पारेख ने कहा कि सिनेमा हमेशा एक महंगा माध्यम रहा है. सिनेमा को बिना तकनीकी और संसाधनों के नहीं बनाया जा सकता. उन्होंने भारतीय सिनेमा की शुरुआत से 123 साल के सफर को बताते हुए कहा कि दादा साहब फाल्के ने एक अंग्रेजी फिल्म ईशा मसीह देखकर ही पौराणिक हिंदी फिल्म बनाने का विचार किया था और पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई, जो एक मूक फिल्म थी.

जयपुर. जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की ओर से राजस्थान विश्वविद्यालय में 'जन साहित्य पर्व' नामक कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम के दूसरे दिन सिनेमा के रास्ते, साहित्य के रास्ते और सियासत के रास्ते विषय पर सत्र का संचालन किया गया.

जयपुर में साहित्य से जुड़े विषय पर कार्यक्रम का आयोजन

इस दौरान साहित्यकार आलोक श्रीवास्तव ने मंच से संबोधित करते हुए कहा कि हिंदुस्तान में एक नए वैचारिक जागरण की आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि संकीर्णता ने हिंदी साहित्य को बंजर बना दिया है. हमने केवल सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को ही प्रगतिशील का प्रतीक मान लिया है, लेकिन जयशंकर प्रसाद के साहित्य के बिना क्या कल्पना की जा सकती है.

उन्होंने कहा कि हिंदी की प्रगतिशील पर जो सामंती प्रभाव है, उससे निकलना होगा. हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी साहित्य की पहुंच को सुगम करना पड़ेगा. हिंदी पूरे जीवन की आवश्यकता है. उन्होंने देश के मौजूदा समय के हालात पर बोलते हुए कहा कि जंजीर जेवर बन जाए और उसको पहनने वाले उसमें ही अपनी मुक्ति समझे कुछ ऐसी ही हालात हमारे देश का है.

यह भी पढ़ें- अंता में जुटे हाड़ौती के ख्यातनाम साहित्यकार, गिरधारी लाल मालव की राजस्थानी कहानियों का विमोचन

वहीं सिनेमा के रास्ते पर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे जवरीमल्ल पारेख ने कहा कि सिनेमा हमेशा एक महंगा माध्यम रहा है. सिनेमा को बिना तकनीकी और संसाधनों के नहीं बनाया जा सकता. उन्होंने भारतीय सिनेमा की शुरुआत से 123 साल के सफर को बताते हुए कहा कि दादा साहब फाल्के ने एक अंग्रेजी फिल्म ईशा मसीह देखकर ही पौराणिक हिंदी फिल्म बनाने का विचार किया था और पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई, जो एक मूक फिल्म थी.

Intro:जयपुर- जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच द्वारा राजस्थान विश्वविद्यालय में जन साहित्य पर्व आयोजित किया जा रहा है। इस पर्व के दूसरे दिन सिनेमा के रास्ते, साहित्य के रास्ते और सियासत के रास्ते पर सत्र हुआ। साहित्यकार आलोक श्रीवास्तव ने मंच से संबोधित करते हुए कहा कि हिंदुस्तान में एक नए वैचारिक जागरण की आवश्यकता है। संकीर्णता ने हिंदी साहित्य को बंजर बना दिया और साम्यवाद को मध्यम वर्गीय बना दिया। हमने केवल सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को ही प्रगतिशील का प्रतीक मान लिया लेकिन जयशंकर प्रसाद के साहित्य के बिना क्या कल्पना की जा सकती है। हिंदी की प्रगतिशील पर जो सामंती प्रभाव है उससे निकलना होगा। हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी साहित्य की पहुंच को सुगम करना पड़ेगा। हिंदी के पूरे जीवन की आवश्यकता है वहीं उन्होंने देश के आज के हालात पर बोलते हुए कहा कि जंजीर जेवर बन जाए और उसको पहनने वाले उसमें ही अपनी मुक्ति समझे कुछ ऐसी ही हालत आज हमारे देश के है। अंग्रेजों के अधीन होते हुए भी हम स्वशासन की ओर अग्रसर होने की लड़ाई लड़ रहे थे।


Body:सिनेमा के रास्ते पर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे जव्वरीमल पारेख ने कहा कि सिनेमा हमेशा एक महंगा माध्यम रहा है। सिनेमा को बिना तकनीकी और संसाधनों के नहीं बनाया जा सकता। उन्होंने भारतीय सिनेमा की शुरुआत से 123 साल के सफर को बताते हुए कहा कि दादा साहब फाल्के ने एक अंग्रेजी फिल्म ईशा मसीह देखकर ही पौराणिक हिंदी फिल्म बनाने का विचार किया था और पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र जो एक मुख्य फिल्म थी और इस फिल्म में कोई अभिनेत्री नहीं थीं पुरुष किरदारों नहीं स्त्री अभिनेत्री के रोल निभाए थे।

बाईट- संदीप मिल, आयोजक


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