हनुमानगढ़: अब न मिट्टी के खिलौनों की मांग है ना भोज और दावतों में मिट्टी के कुल्हड़ का प्रचलन. दीपावली पर मिट्टी के दीये बस नाम मात्र को जलते है. वर्तमान में कुंभकारों की रोजी-रोटी का सहारा नहीं रहा. उनका चाक, चाइनीज बाजार ने कुंभकारों के रोजगार पर पहरा लगा दिया है. कुंभकार अपना रोजगार छोड़ने को मजबूर है. वे सरकार से मांग कर रहे हैं कि मिट्टी के दीपक की तरफ लोगों के रुझान के लिए कार्य करें. चाइनीज सामानों पर रोक लगाएं वरना वो दिन दूर नहीं जब मिट्टी से जुड़ी कोई भी वस्तु नजर नहीं आएगी.
जैसे-जैसे आज के दौर में चाइनीज सामान ने बाजारों में रौनक बढ़ाई है. वैसे-वैसे कुंभकारों का रोजगार छिनता जा रहा है. पहले दीपावली के दो ढाई माह पहले कुंभ कारों के चेहरे पर एक अलग सी रौनक होती थी. उन्हें उम्मीद होती थी कि वह मिट्टी के दीपक बेचकर इस दिवाली को खुशियों से मनाएंगे. लेकिन अब मिट्टी के दीपक नहीं बिकते हैं. उतनी मात्रा में उतनी संख्या में मिट्टी के दीपक भी नहीं बनाए जाते क्योंकि लोग अब मिट्टी के दीपक नहीं खरीदते हैं. वे खरीदते हैं तो चाइनीज लड़ियां और दूसरे सामान.
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हनुमानगढ़ के कुंभ कारों का कहना है कि धीरे-धीरे उनका रोजगार समाप्त हो रहा है. 70 फीसदी कुंभकार यह रोजगार छोड़ चुके हैं. क्योंकि उनके सामने रोजी-रोटी के लाले पड़ चुके हैं. वे सरकार से मांग करते हैं कि मिट्टी के दीपक की तरफ लोगों का रुझान बढ़े. इसके लिए कुछ योजना चलाई जाए. सामाजिक संस्थाएं कुछ ऐसे कार्यक्रम आयोजित करें जिनमें चायनीज सामानों के बहिष्कार का संदेश हो.
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इस कला के माहिर अब बुजुर्ग ही बस चाक और आंवा से जुडे़ है. युवा वर्ग ने रोजी-रोटी के अन्य विकल्प अपना लिया है. ऐसे में यह कला अब विलुप्त होने की कगार पर आ पहुंची है. कभी हर कुम्हार परिवार सिर्फ इस व्यवसाय में लिप्त था. लेकिन समय बदला, जमाना बदला और अब स्थिति यह है कि यह व्यवसाय विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुका है. अगर इसी तरह चाइनीज सामान हमारे बाजारों में आता रहा तो मिट्टी के दीपक एक इतिहास बन जाएंगे.