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चूरू: होली में यहां चढ़ता है चंग ढप की थाप का खुमार, मिलिए एक परिवार से जो संजोए बैठा है 101 साल पुरानी विरासत - होली में यहां चढ़ता है चंग ढप की थाप का खुमार

101 साल कम नहीं होते लेकिन जब विरासत सहेजनी हो तो कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है. वो भी बात अगर संगीत की हो. चूरू का एक ऐसा ही परिवार पीढ़ियों से अपने बाप दादा की सिखाई को अपना, कानों में रस घोल रहा है. लोकवाद्य चंग-ढप (Churu ka Dhap ) से. ऐसा वाद्य यंत्र जिसकी मांग फागुन में सबसे ज्यादा बढ़ जाती है.

Churu ka Dhap
होली में यहां चढ़ता है चंग ढप की थाप का खुमार
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Published : Mar 17, 2022, 11:31 AM IST

चूरू. शेखावटी की लोककला में (Shekhawati Ki Holi) रंग भरने वाले लोक वाद्य चंग या ढप (Churu ka Dhap ) शामिल हैं. इनके बिना इस अंचल की होली अधूरी मानी जाती है. चंग ढप की थाप के साथ ही लोगों में जो सुरूर उठता है वो देखते ही बनता है. चंग ढप वाद्य यंत्र मिट्टी से जुड़ाव का एहसास कराते हैं. इस एहसास को जिंदा रखने में एक अहम किरदार निभा रही हैं 82 साल की झिमकू देवी. एक ऐसी महिला जो अपने पुरखों के गढ़े को उसी अंदाज में नया आकार दे रही हैं.

101 साल से इनका परिवार इसमें रमता, रचता और बसता आया है. यही वजह है कि परिवार की पांचवी पीढ़ी ने भी कानों में मिठास घोलते वाद्य यंत्र से नाता नहीं तोड़ा है. आलम ये है कि इस परिवार के हाथों से सजे ढपो चंग दुबई, सऊदी अरब तक पहुंचते हैं, वहां इनकी खूब मांग है.

होली में यहां चढ़ता है चंग ढप की थाप का खुमार

पढ़ें. होली पर फिर चढ़ेगा रम्मतों का रंग...400 साल पुरानी परंपरा आज भी जिंदा रखे हैं बीकानेर के कलाकार

झिमकू देवी पिछले 35 वर्षों से ढप बना रही हैं और उस परम्परा को आगे बढ़ा रही हैं जिसे पुरखों ने बड़े अदब से इनके हाथों में सौंपा. ढप चंग नगाड़ा फागोत्सव में अपना विशेष महत्व रखता है. फाग माह की शुरुआत से ही जहां रसिए और सामाजिक संस्थायें फाग उत्सव के आयोजन में सक्रिय हो जाते हैं. वाद्य यंत्र को बनाने वाले होली के एक महीने पहले से ही इसके निर्माण में जुट जाते हैं.

फाल्गुन की दस्तक के साथ ढप निर्माण: डीजे युग की चपेट में न केवल लोक कला बल्कि ढप-चंग जैसे वाद्य भी आए हैं. इसके बावजूद चूरू शहर के वार्ड नम्बर 34 की 82 वर्षीय झिमकू देवी का परिवार पीढ़ियों से इन Instruments को बना रहा है और यही इनकी आजीविका का एक मात्र जरिया भी है. 11 माह मेहनत-मजदूरी कर इस परिवार के सदस्य अपने बच्चों का लालन-पालन करते हैं लेकिन फाल्गुन आते ही ये चंग निर्माण (Churu ka Dhap ) में जुट जाते हैं. एक माह तक ढप निर्माण का कार्य चलता है जिनकी बिक्री से ही इनका गुजारा चलता है और घर-परिवार के आवश्यक काम निपट जाते हैं.

ढप के जतन: चंग और नगाड़ों को तैयार करने में कारीगरों को भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. फागुन से एक-दो माह पूर्व ही कारीगर इनको तैयार करने में जुट जाते हैं. ढप और नगाड़े भेड़ बकरे की खाल का बनाया जाता है. इसे गंगानगर से लाया जाता है. खाल को धोकर सुखाया जाता है फिर लकड़ी की फ्रेम पर खाल को चढाया जाता है. और आंकड़े के दूध से फिर से धोया जाता है. जब यह सुखकर तैयार हो जाता है तो इस पर विभिन्न रंगों से चित्र बनाये जाते हैं.

होली से पूर्व एक चंग की कीमत साइज के अनुसार आठ सौ रुपए से एक हजार रुपए तक होती है. होली के दिन चंग की खरीदारी करने वाले की संख्या बढ़ जाने पर एक चंग की कीमत एक हजार रुपए से ऊपर पहुंच जाती है.

चूरू. शेखावटी की लोककला में (Shekhawati Ki Holi) रंग भरने वाले लोक वाद्य चंग या ढप (Churu ka Dhap ) शामिल हैं. इनके बिना इस अंचल की होली अधूरी मानी जाती है. चंग ढप की थाप के साथ ही लोगों में जो सुरूर उठता है वो देखते ही बनता है. चंग ढप वाद्य यंत्र मिट्टी से जुड़ाव का एहसास कराते हैं. इस एहसास को जिंदा रखने में एक अहम किरदार निभा रही हैं 82 साल की झिमकू देवी. एक ऐसी महिला जो अपने पुरखों के गढ़े को उसी अंदाज में नया आकार दे रही हैं.

101 साल से इनका परिवार इसमें रमता, रचता और बसता आया है. यही वजह है कि परिवार की पांचवी पीढ़ी ने भी कानों में मिठास घोलते वाद्य यंत्र से नाता नहीं तोड़ा है. आलम ये है कि इस परिवार के हाथों से सजे ढपो चंग दुबई, सऊदी अरब तक पहुंचते हैं, वहां इनकी खूब मांग है.

होली में यहां चढ़ता है चंग ढप की थाप का खुमार

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झिमकू देवी पिछले 35 वर्षों से ढप बना रही हैं और उस परम्परा को आगे बढ़ा रही हैं जिसे पुरखों ने बड़े अदब से इनके हाथों में सौंपा. ढप चंग नगाड़ा फागोत्सव में अपना विशेष महत्व रखता है. फाग माह की शुरुआत से ही जहां रसिए और सामाजिक संस्थायें फाग उत्सव के आयोजन में सक्रिय हो जाते हैं. वाद्य यंत्र को बनाने वाले होली के एक महीने पहले से ही इसके निर्माण में जुट जाते हैं.

फाल्गुन की दस्तक के साथ ढप निर्माण: डीजे युग की चपेट में न केवल लोक कला बल्कि ढप-चंग जैसे वाद्य भी आए हैं. इसके बावजूद चूरू शहर के वार्ड नम्बर 34 की 82 वर्षीय झिमकू देवी का परिवार पीढ़ियों से इन Instruments को बना रहा है और यही इनकी आजीविका का एक मात्र जरिया भी है. 11 माह मेहनत-मजदूरी कर इस परिवार के सदस्य अपने बच्चों का लालन-पालन करते हैं लेकिन फाल्गुन आते ही ये चंग निर्माण (Churu ka Dhap ) में जुट जाते हैं. एक माह तक ढप निर्माण का कार्य चलता है जिनकी बिक्री से ही इनका गुजारा चलता है और घर-परिवार के आवश्यक काम निपट जाते हैं.

ढप के जतन: चंग और नगाड़ों को तैयार करने में कारीगरों को भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. फागुन से एक-दो माह पूर्व ही कारीगर इनको तैयार करने में जुट जाते हैं. ढप और नगाड़े भेड़ बकरे की खाल का बनाया जाता है. इसे गंगानगर से लाया जाता है. खाल को धोकर सुखाया जाता है फिर लकड़ी की फ्रेम पर खाल को चढाया जाता है. और आंकड़े के दूध से फिर से धोया जाता है. जब यह सुखकर तैयार हो जाता है तो इस पर विभिन्न रंगों से चित्र बनाये जाते हैं.

होली से पूर्व एक चंग की कीमत साइज के अनुसार आठ सौ रुपए से एक हजार रुपए तक होती है. होली के दिन चंग की खरीदारी करने वाले की संख्या बढ़ जाने पर एक चंग की कीमत एक हजार रुपए से ऊपर पहुंच जाती है.

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