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इंद्रदेव को रिझाने मेवाड़ में खेड़ा देवत पूजन की अनूठी परंपरा, गांव के बाहर बनता है चूरमा, दाल और बाटी

अच्छी बारिश को रिझाने के लिए मेवाड़ क्षेत्र में खेड़ा देवत पूजन की परंपरा निभाई जाती है. इसके तहत खेड़ा देवत का पूजन कर गांव के बाहर चूरमा, दाल और बाटी बनाई जाती है.

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Published : Jun 28, 2023, 7:55 PM IST

ritual for better rain and good health in Chittorgarh
इंद्रदेव को रिझाने मेवाड़ में खेड़ा देवत पूजन की अनूठी परंपरा, गांव के बाहर बनता है चूरमा, दाल, बाटी
मेवाड़ में मानसून से पहले खेड़ा देवत पूजन का रिवाज

चित्तौड़गढ़. मेवाड़ इलाके को परंपराओं का गढ़ कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. इनमें एक परंपरा है खेड़ा देवत पूजन. अच्छी बारिश की कामना को लेकर इंद्रदेव को रिझाने के लिए इस परंपरा का निर्वहन किया जाता है. यह परंपरा कब शुरू हुई, इस बारे में ग्रामीणों को भी पता नहीं. बताया जाता है कि लम्बे समय से यह रिवाज चल रहा है, जिसने धीरे-धीरे एक परंपरा का रूप ले लिया.

खासकर ग्रामीण इलाकों में हर गांव में मानसून से पहले खेड़ा देवत पूजन का रिवाज है. खेड़ा देवत पूजन के दिन लोग घरों से बाहर खाना बनाते हैं. इस दौरान मुख्य तौर पर बड़े चाव से मेवाड़ का प्रमुख व्यंजन चूरमा, बाटी और दाल बनाया जाता है. भगवान इंद्र देव के साथ सभी देवी- देवताओं को चूरमे का भोग लगाकर परिवार के सारे लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं. इसके पीछे एक मात्र मान्यता यह है कि खेड़ा देव पूजन से अच्छी बारिश होती है.

पढ़ें: Strange Rituals for Rain: इंद्र भगवान को मनाने की अनोखी परंपरा, सीधे गाय से शिवलिंग पर दुग्धाभिषेक

अच्छी बारिश और निरोग रहने की कामना: अच्छी बारिश से खेतों में खूब पैदावार होती है जो गांव की समृद्धि का आधार मानी जाती है. अच्छी बारिश के साथ गांव के सारे लोग और मवेशियों के निरोग रहने की कामना भी इसके साथ जुड़ी है. इस परंपरा के अंतर्गत खेड़ा देवत पूजन का दिन गांव के पंच-पटेलों द्वारा बैठक करने के साथ तय होता है. जब खेड़ा देव पूजन का दिन निर्धारित हो जाता है, तो पूर्व संध्या को घर-घर इस बारे में सूचना करवाई जाती है ताकि सुबह किसी भी घर पर चूल्हा नहीं जले.

पूरे गांव की परिक्रमा: निर्धारित दिन पर गांव के पंच-पटेल ग्रामीणों के साथ ढोल-धमाकों के गोमूत्र का छिड़काव करते हुए सभी देवी देवताओं को नौतने जाते हैं. इस दरमियान सभी देवी-देवताओं के सिंदुर लगाकर व धूप ध्यान कर अलग- अलग देव मंदिरों पर पर झंडे लगाकर देवी-देवताओं को नौतने जाते है. इसके जरिए पूरे गांव की परिक्रमा हो जाती है. इसके बाद सब लोग अपने-अपने घरों से खाद्य सामग्री लेकर पिकनिक प्वाइंट या खेतों पर निकल जाते हैं. इस दौरान महिलाएं गीत गाते हुए अपने खेतों पर पहुंचती हैं, जहां चूरमा बाटी आदि बनाने के काम में पुरुष भी उनका हाथ बंटाते हैं.

पढ़ें: Strange Rituals For Rain: मानसून के लिए कब्रों को खोदा, लाशों को पिलाया पानी

शहर में बसे लोग लौटते हैं गांवः कई परिवार सामूहिक तौर पर गांव के बाहर किसी प्रमुख स्थान पर एक साथ खाना बनाकर अपने-अपने देवी-देवताओं को भोग लगाकर इस अनूठी परंपरा का निर्वहन करते हैं. हालांकि अब यह परंपरा गांव तक ही सीमित रह गई है. शहरों से यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है. इसके चलते शहरों में रहने वाले गांव के लोग इस दिन अपने पैतृक गांव पहुंचकर खेड़ा देवत की पूजा में शामिल होते हैं.

पढ़ें: धणी की भविष्यवाणीः बीमारी, मौसम और राजनीति को लेकर दिए ये संकेत

सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परंपरा: गांव के पटेल शंकर लाल जाट के अनुसार बारिश की कामना को लेकर खेड़ा देव की पूजा की परंपरा चली आ रही है. इसके अलावा मवेशियों को निरोग रखने के लिए भी इसका निर्वाहन किया जाता है. 85 वर्षीय उदय लाल पुरबिया ने बताया कि गांव के पंच-पटेल खेड़ा देव पूजन के दिन का निर्धारण करते हैं और उस दिन पूरे गांव की परिक्रमा लगा कर देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है. यह परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है. ओंकार लाल के मुताबिक इस दिन गांव के बाहर सार्वजनिक स्थान या फिर अपने खेतों पर चूरमा, दाल और बाटी बना कर देवी- देवताओं को भोग लगाने का रिवाज है.

मेवाड़ में मानसून से पहले खेड़ा देवत पूजन का रिवाज

चित्तौड़गढ़. मेवाड़ इलाके को परंपराओं का गढ़ कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. इनमें एक परंपरा है खेड़ा देवत पूजन. अच्छी बारिश की कामना को लेकर इंद्रदेव को रिझाने के लिए इस परंपरा का निर्वहन किया जाता है. यह परंपरा कब शुरू हुई, इस बारे में ग्रामीणों को भी पता नहीं. बताया जाता है कि लम्बे समय से यह रिवाज चल रहा है, जिसने धीरे-धीरे एक परंपरा का रूप ले लिया.

खासकर ग्रामीण इलाकों में हर गांव में मानसून से पहले खेड़ा देवत पूजन का रिवाज है. खेड़ा देवत पूजन के दिन लोग घरों से बाहर खाना बनाते हैं. इस दौरान मुख्य तौर पर बड़े चाव से मेवाड़ का प्रमुख व्यंजन चूरमा, बाटी और दाल बनाया जाता है. भगवान इंद्र देव के साथ सभी देवी- देवताओं को चूरमे का भोग लगाकर परिवार के सारे लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं. इसके पीछे एक मात्र मान्यता यह है कि खेड़ा देव पूजन से अच्छी बारिश होती है.

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अच्छी बारिश और निरोग रहने की कामना: अच्छी बारिश से खेतों में खूब पैदावार होती है जो गांव की समृद्धि का आधार मानी जाती है. अच्छी बारिश के साथ गांव के सारे लोग और मवेशियों के निरोग रहने की कामना भी इसके साथ जुड़ी है. इस परंपरा के अंतर्गत खेड़ा देवत पूजन का दिन गांव के पंच-पटेलों द्वारा बैठक करने के साथ तय होता है. जब खेड़ा देव पूजन का दिन निर्धारित हो जाता है, तो पूर्व संध्या को घर-घर इस बारे में सूचना करवाई जाती है ताकि सुबह किसी भी घर पर चूल्हा नहीं जले.

पूरे गांव की परिक्रमा: निर्धारित दिन पर गांव के पंच-पटेल ग्रामीणों के साथ ढोल-धमाकों के गोमूत्र का छिड़काव करते हुए सभी देवी देवताओं को नौतने जाते हैं. इस दरमियान सभी देवी-देवताओं के सिंदुर लगाकर व धूप ध्यान कर अलग- अलग देव मंदिरों पर पर झंडे लगाकर देवी-देवताओं को नौतने जाते है. इसके जरिए पूरे गांव की परिक्रमा हो जाती है. इसके बाद सब लोग अपने-अपने घरों से खाद्य सामग्री लेकर पिकनिक प्वाइंट या खेतों पर निकल जाते हैं. इस दौरान महिलाएं गीत गाते हुए अपने खेतों पर पहुंचती हैं, जहां चूरमा बाटी आदि बनाने के काम में पुरुष भी उनका हाथ बंटाते हैं.

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शहर में बसे लोग लौटते हैं गांवः कई परिवार सामूहिक तौर पर गांव के बाहर किसी प्रमुख स्थान पर एक साथ खाना बनाकर अपने-अपने देवी-देवताओं को भोग लगाकर इस अनूठी परंपरा का निर्वहन करते हैं. हालांकि अब यह परंपरा गांव तक ही सीमित रह गई है. शहरों से यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है. इसके चलते शहरों में रहने वाले गांव के लोग इस दिन अपने पैतृक गांव पहुंचकर खेड़ा देवत की पूजा में शामिल होते हैं.

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सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परंपरा: गांव के पटेल शंकर लाल जाट के अनुसार बारिश की कामना को लेकर खेड़ा देव की पूजा की परंपरा चली आ रही है. इसके अलावा मवेशियों को निरोग रखने के लिए भी इसका निर्वाहन किया जाता है. 85 वर्षीय उदय लाल पुरबिया ने बताया कि गांव के पंच-पटेल खेड़ा देव पूजन के दिन का निर्धारण करते हैं और उस दिन पूरे गांव की परिक्रमा लगा कर देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है. यह परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है. ओंकार लाल के मुताबिक इस दिन गांव के बाहर सार्वजनिक स्थान या फिर अपने खेतों पर चूरमा, दाल और बाटी बना कर देवी- देवताओं को भोग लगाने का रिवाज है.

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