कपासन (चित्तौड़गढ़). मेवाड़ की अनूठी संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला भील समाज का यह धर्मिक लोकनृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से प्रारंभ होता है. क्षेत्र के प्रमुख आदिवासी नृत्य को देखने के लिये बड़ी संख्या में लोग उमड़ते हैं.
मेवाड़ यु तो यहां के गौरवशाली इतिहास को लेकर पूरे विश्व में अपनी अनूठी छाप छोड़ चूका है. लेकिन इसके अलावा इस धरती की ऐसी कई लोक कलाएं और परम्पराए है. जिसकी वजह से इस क्षेत्र को राजस्थान में कुछ अलग पहचान दिलाई है. ऐसी ही एक अनूठी लोककला को सैंकड़ों सालों से जीवित कर रखा है मेवाड़ के आदिवासी समाज के कलाकारों ने.
दरअसल, मेवाड़ में इन दिनों आदिवासी समाज के प्रमुख लोकनृत्य गवरी की खासी धूम देखी जा रही है. इस गवरी लोकनृत्य के तहत गवरी कलाकार 40 दिनों तक बिना नहाए और नंगे पैर रहकर इस विरासत रूपी परम्परा को सहेजने में जुटे हुए हैं. कलाकरो की ओर से गवरी नृत्य के दौरान हठिया, शंकरिया, वरजु कांजरी, बंजारा मीणा, खेतुडी सहीत कई मनोरंजक कथानक प्रस्तुत किये जाते है.
बता दें कि, मेवाड़ की अनूठी संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला भील समाज का यह धर्मिक लोकनृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से प्रारंभ होता है. शिव के तांडव और गौरी के लास्य नृत्य से मिले जुले स्वरुप से जुड़े इस नृत्य के मंचन से पहले गांव की देवी से इसके आयोजन करने का आशीर्वाद मांगा जाता है. गांव की देवी की ओर से आशीर्वाद मिलने पर गवरी की तैयारिया प्रारंभ हो जाती है, जो करीब सवा महीने तक अनवरत रूप से चलता है.