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चित्तौड़गढ़: लोक नृत्य गवरी देखने उमड़ा लोगों का हुजूम - gawri folk dance

चित्तौड़गढ़ के कपासन में मेवाड़ अंचल के प्रमुख लोक नृत्य गवरी को देखने लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा. भील जाति के लोगों की ओर से 40 दिन तक अलग-अलग गांवो में किया जाता है लोक नृत्य.

चित्तौड़गढ़ की खबर, gawri folk dance
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Published : Sep 22, 2019, 11:06 PM IST

कपासन (चित्तौड़गढ़). मेवाड़ की अनूठी संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला भील समाज का यह धर्मिक लोकनृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से प्रारंभ होता है. क्षेत्र के प्रमुख आदिवासी नृत्य को देखने के लिये बड़ी संख्या में लोग उमड़ते हैं.

लोकनृत्य गवरी को देखने लोगों का हुजूम उमड़ा

मेवाड़ यु तो यहां के गौरवशाली इतिहास को लेकर पूरे विश्व में अपनी अनूठी छाप छोड़ चूका है. लेकिन इसके अलावा इस धरती की ऐसी कई लोक कलाएं और परम्पराए है. जिसकी वजह से इस क्षेत्र को राजस्थान में कुछ अलग पहचान दिलाई है. ऐसी ही एक अनूठी लोककला को सैंकड़ों सालों से जीवित कर रखा है मेवाड़ के आदिवासी समाज के कलाकारों ने.

पढ़ें- जनजातीय क्षेत्र के विद्यार्थियों को निशुल्क मिलेगी तकनीकी शिक्षा, मंत्री सुभाष गर्ग ने क्या कहा सुनिए

दरअसल, मेवाड़ में इन दिनों आदिवासी समाज के प्रमुख लोकनृत्य गवरी की खासी धूम देखी जा रही है. इस गवरी लोकनृत्य के तहत गवरी कलाकार 40 दिनों तक बिना नहाए और नंगे पैर रहकर इस विरासत रूपी परम्परा को सहेजने में जुटे हुए हैं. कलाकरो की ओर से गवरी नृत्य के दौरान हठिया, शंकरिया, वरजु कांजरी, बंजारा मीणा, खेतुडी सहीत कई मनोरंजक कथानक प्रस्तुत किये जाते है.

बता दें कि, मेवाड़ की अनूठी संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला भील समाज का यह धर्मिक लोकनृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से प्रारंभ होता है. शिव के तांडव और गौरी के लास्य नृत्य से मिले जुले स्वरुप से जुड़े इस नृत्य के मंचन से पहले गांव की देवी से इसके आयोजन करने का आशीर्वाद मांगा जाता है. गांव की देवी की ओर से आशीर्वाद मिलने पर गवरी की तैयारिया प्रारंभ हो जाती है, जो करीब सवा महीने तक अनवरत रूप से चलता है.

कपासन (चित्तौड़गढ़). मेवाड़ की अनूठी संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला भील समाज का यह धर्मिक लोकनृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से प्रारंभ होता है. क्षेत्र के प्रमुख आदिवासी नृत्य को देखने के लिये बड़ी संख्या में लोग उमड़ते हैं.

लोकनृत्य गवरी को देखने लोगों का हुजूम उमड़ा

मेवाड़ यु तो यहां के गौरवशाली इतिहास को लेकर पूरे विश्व में अपनी अनूठी छाप छोड़ चूका है. लेकिन इसके अलावा इस धरती की ऐसी कई लोक कलाएं और परम्पराए है. जिसकी वजह से इस क्षेत्र को राजस्थान में कुछ अलग पहचान दिलाई है. ऐसी ही एक अनूठी लोककला को सैंकड़ों सालों से जीवित कर रखा है मेवाड़ के आदिवासी समाज के कलाकारों ने.

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दरअसल, मेवाड़ में इन दिनों आदिवासी समाज के प्रमुख लोकनृत्य गवरी की खासी धूम देखी जा रही है. इस गवरी लोकनृत्य के तहत गवरी कलाकार 40 दिनों तक बिना नहाए और नंगे पैर रहकर इस विरासत रूपी परम्परा को सहेजने में जुटे हुए हैं. कलाकरो की ओर से गवरी नृत्य के दौरान हठिया, शंकरिया, वरजु कांजरी, बंजारा मीणा, खेतुडी सहीत कई मनोरंजक कथानक प्रस्तुत किये जाते है.

बता दें कि, मेवाड़ की अनूठी संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला भील समाज का यह धर्मिक लोकनृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से प्रारंभ होता है. शिव के तांडव और गौरी के लास्य नृत्य से मिले जुले स्वरुप से जुड़े इस नृत्य के मंचन से पहले गांव की देवी से इसके आयोजन करने का आशीर्वाद मांगा जाता है. गांव की देवी की ओर से आशीर्वाद मिलने पर गवरी की तैयारिया प्रारंभ हो जाती है, जो करीब सवा महीने तक अनवरत रूप से चलता है.

Intro:कपासन-मेवाड अंचल के प्रमुख लोकनृत्य गवरी को देखने उमड़ा जन सैलाब,भील जाति के लोगो द्वारा40 दिन तक अलग अलग गांवो में किया जाता है लोकनृत्य,Body:कपासन -एंकर विज्वल
क्षैत्र के प्रमुख आदिवासी नृत्य को देखने के लिये उमडे लोग। मेवाड़ की अनूठी संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला भील समाज का यह धर्मिक लोकनृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से प्रारंभ होता है.

मेवाड़ यु तो यहां के गौरवशाली इतिहास को लेकर पूरे विश्व में अपनी अनूठी छाप छोड़ चूका है, लेकिन इसके अलावा इस धरती की ऐसी कई लोक कलाएं और परम्पराए है जिसकी वजह से इस क्षेत्र को राजस्थान में कुछ अलग पहचान दिलाई है. ऐसी ही एक अनूठी लोककला को सैंकड़ों सालों से जीवित कर रखा है मेवाड़ के आदिवासी समाज के कलाकारों ने. दरअसल, मेवाड में इन दिनों आदिवासी समाज के प्रमुख लोकनृत्य गवरी की खासी धूम देखी जा रही है. इस गवरी लोकनृत्य के तहत गवरी कलाकार 40 दिनों तक बिना नहाए और नगे पैर रहकर इस विरासत रूपी परम्परा को सहेजने में जुटे हुए हैं.
कलाकरो द्वारा गवरी नृत्य के दौरान हठिया, शंकरिया, वरजु कांजरी, बंजारा मीणा, खेतुडी सहीत कई मनोरंजक कथानक प्रस्तुत किये जाते है।

बता दें कि, मेवाड़ की अनूठी संस्कृति में अपना महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला भील समाज का यह धर्मिक लोकनृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से प्रारंभ होता है. शिव के तांडव और गौरी के लास्य नृत्य से मिले जुले स्वरुप से जुड़े इस नृत्य के मंचन से पहले गांव की देवी से इसके आयोजन करने का आशीर्वाद मांगा जाता है. गांव की देवी द्वारा आशीर्वाद मिलने पर गवरी की तैयारिया प्रारंभ हो जाती है, जो करीब सवा महीने तक अनवरत रूप से चलता है.
-Conclusion:-------------
बाइट- 1- गवरी कलाकार किशन लाल भील
2- डॉ केशव पथिक राजस्थानी भाषा के लेखक व साहीत्यकार
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