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राजस्थान में यहां टीचर और स्टूडेंट्स दोनों नाव में बैठकर जाते हैं स्कूल...आप खुद देखिए - life

जिले के गांव बरूंधन में स्थित सरकारी स्कूल तक आने के लिए सैंकड़ों बच्चे रोजाना अपनी जान जोखिम में डालकर जाते हैं.

जिले के गांव बरूंधन में स्थित सरकारी स्कूल तक आने के लिए सैंकड़ों बच्चे रोजाना अपनी जान जोखिम में डालकर जाते हैं.
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Published : Apr 11, 2019, 11:34 AM IST

बूंदी. जिले के गांव बरूंधन में स्थित सरकारी स्कूल तक आने के लिए सैंकड़ों बच्चे रोजाना अपनी जान जोखिम में डालकर जाते हैं. बच्चों को मजबूरन टूटी नाव के सहारे नदी पार करके स्कूल जाना पड़ रहा हैं. बरूंधन और अन्य गांवों के बीच में मांगली नदी पड़ती है. इस नदी में बारह महीनों पानी रहता है. अन्य गांवों में कोई स्कूल नहीं है इस कारण आस -पास के गांवों का शैक्षणिक केंद्र बरूंधन ही है.

जिले के गांव बरूंधन में स्थित सरकारी स्कूल तक आने के लिए सैंकड़ों बच्चे रोजाना अपनी जान जोखिम में डालकर जाते हैं.

राज्य सरकार और जिला प्रशासन ने मांगली नदी पर एक छोटा पुल बनाने की जहमत नहीं उठाई है. राज्य में कितनी ही सरकारें बदल गयी परन्तु किसी ने भी जिला मुख्यालय से मात्र 12 किलोमीटर दूर स्थित इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया.
सरकारी स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चों कतार बनाकर नदी के किनारे पर उस पार गांवों में जाने के लिए इकट्ठे हो गए. नदी किनारे बिना नाविक के खड़ी नाव तक पहुंचने के लिए बच्चों को अपने जूते चप्पल उतारकर कीचड़ में चलना पड़ता है.

वहीं बच्चों के साथ आये अध्यापकों ने उनको एक -एक करके नाव में बिठाया और नाव को खुद बच्चे ही धकेलते हुए नदी के पार लेकर गए. बिना नाविक के नाव को बच्चे ही नदी के पार लेकर जाते हैं.यह बच्चों का रोजाना का नियम बन चूका है. नाव से नदी पार करके पढ़ने आने वाले बच्चों में चार साल से लेकर पंद्रह साल तक के बच्चे शामिल हैं.

बूंदी. जिले के गांव बरूंधन में स्थित सरकारी स्कूल तक आने के लिए सैंकड़ों बच्चे रोजाना अपनी जान जोखिम में डालकर जाते हैं. बच्चों को मजबूरन टूटी नाव के सहारे नदी पार करके स्कूल जाना पड़ रहा हैं. बरूंधन और अन्य गांवों के बीच में मांगली नदी पड़ती है. इस नदी में बारह महीनों पानी रहता है. अन्य गांवों में कोई स्कूल नहीं है इस कारण आस -पास के गांवों का शैक्षणिक केंद्र बरूंधन ही है.

जिले के गांव बरूंधन में स्थित सरकारी स्कूल तक आने के लिए सैंकड़ों बच्चे रोजाना अपनी जान जोखिम में डालकर जाते हैं.

राज्य सरकार और जिला प्रशासन ने मांगली नदी पर एक छोटा पुल बनाने की जहमत नहीं उठाई है. राज्य में कितनी ही सरकारें बदल गयी परन्तु किसी ने भी जिला मुख्यालय से मात्र 12 किलोमीटर दूर स्थित इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया.
सरकारी स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चों कतार बनाकर नदी के किनारे पर उस पार गांवों में जाने के लिए इकट्ठे हो गए. नदी किनारे बिना नाविक के खड़ी नाव तक पहुंचने के लिए बच्चों को अपने जूते चप्पल उतारकर कीचड़ में चलना पड़ता है.

वहीं बच्चों के साथ आये अध्यापकों ने उनको एक -एक करके नाव में बिठाया और नाव को खुद बच्चे ही धकेलते हुए नदी के पार लेकर गए. बिना नाविक के नाव को बच्चे ही नदी के पार लेकर जाते हैं.यह बच्चों का रोजाना का नियम बन चूका है. नाव से नदी पार करके पढ़ने आने वाले बच्चों में चार साल से लेकर पंद्रह साल तक के बच्चे शामिल हैं.

Intro:आजादी के साठ साल बाद भी आज भी हमारे देश के कई इलाके विकास की मुख्यधारा से बिलकुल अलग थलग पड़े हुए हैं। सरकार द्वारा शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए बड़ी बड़ी बातें की जाती हैं लेकिन आज भी हमारे देश में बच्चों को स्कूल जाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है। 

बूंदी जिले के गावँ बरूंधन में स्थित सरकारी स्कूल तक आने के लिए सैंकड़ों बच्चे रोजाना अपनी जान जोखिम में डालकर टूटी हुयी नाव के सहारे नदी पार करके स्कूल आते हैं। बरूंधन गावँ बूंदी जिले का आधुनिक गावँ है। यहाँ पर इलाके का सबसे बड़ा सरकारी स्कूल है जहाँ पर नर्सरी क्लास से लेकर बाहरवीं क्लास तक सैंकड़ों बच्चे पड़ते हैं। बरूंधन गावँ के और अन्य गांवों के बीच में मांगली नदी पड़ती है। इस नदी में बारह महीनों पानी रहता है। अन्य गांवों में कोई स्कूल नहीं है इस कारण आस पास के गांवों का शैक्षणिक केंद्र बरूंधन ही है। बरूंधन में पढ़ने के लिए आने वाले सभी छात्र छात्राओं को नाव से नदी पार करके आना पड़ता है। भारी जोखिम उठाकर बच्चे टूटी फूटी नाव पर बैठकर नदी पार करके बरूंधन के स्कूल में पढ़ने आते हैं। आज तक राज्य सरकार और जिला प्रशासन ने मांगली नदी पर एक छोटा पुल बनाने की जहमत नहीं उठाई है। राज्य में कितनी ही सरकारें बदल गयी परन्तु किसी ने भी जिला मुख्यालय से मात्र 12 किलोमीटर दूर स्थित इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया। 



Body:हम बरूंधन गावँ पहुंचे और वहां पढ़ने आने बच्चों के संघर्ष देखा और उनकी पीड़ा को कैमरे में लिया। दोपहर के बारह बजे जैसे ही बरूंधन के सरकारी स्कूल की छुट्टी हुयी तो सैंकड़ों बच्चे कतार बनाकर नदी के किनारे पर उस पार गांवों में जाने के लिए इकट्ठे हो गए। नदी किनारे बिना नाविक के खड़ी नाव तक पहुँचने के लिए बच्चों को अपने जूते चप्पल उतारकर कीचड़ में चलना पड़ता है। बच्चो के साथ आये अध्यापकों ने उनको एक एक करके नाव में बिठाया और नाव को खुद बच्चे ही धकेलते हुए नदी के पार लेकर गए। बिना नाविक के नाव को बच्चे ही नदी के पार लेकर जाते हैं। यह बच्चों का रोजाना का नियम बन चूका है। नाव से नदी पार करके पढ़ने आने वाले बच्चों में चार साल से लेकर पंद्रह साल तक के बच्चे शामिल हैं। देश के आजाद होने के बाद से आज तक सरकार या प्रशासन द्वारा इन बच्चों के संघर्ष की सुध नहीं ली गयी है। 




Conclusion:कई बार नाव से नदी पार करते हुए बच्चों के साथ हादसे भी हो चुके हैं लेकिन बच्चे अब संघर्ष के आदि हो चुके हैं वो जानते हैं की अपनी जान जोखिम में डालकर नदी पार करके ही स्कूल जा सकते है......  नदी पार करने के लिए आये स्कूली बच्चों ने कैमरे पर अपनी पीड़ा बयां की । 

बाईट :-सुनील ,छात्र
बाईट :-लोकेश ,छात्र
बाईट :-महेश ,छात्र
बाईट :- रामजनिक ,बुजुर्ग

स्कूल के बच्चों को नदी पार करने के संघर्ष में देने वाले प्रधानाध्यापक हीरालाल ने भी अपनी पीड़ा कैमरे पर बयां की।  और कहां की बच्चे नाव के सहारे स्कूल में पढ़ने आते हैं तो उनके कपड़े खराब हो जाते हैं साथ ही जोखिम भरा कार्य रहता है कई बार यहां पर जनप्रतिनिधि आते हैं उनसे भी हम बात करते हैं केवल आश्वासन के अलावा और कुछ कहकर नहीं जाते हमारी मांग है कि जल्द इस पुलिया का निर्माण करवाया जाए ताकि सबसे ज्यादा परेशानी चल रहे हैं नोनिहलो को राहत मिल सके ।

बाईट:- हीरालाल ,प्रधानाध्यापक ,

बूंदी जिले में एक यही गावं नहीं है जहां छात्र एंव आमजन नदी पार कर अपने घर एंव स्कूल जाते हो जिले के आधा दर्जन गावं ऐसे है जो आजादी के बाद से ही काले पानी की सजा भुगत रहे है सरकार लाख दावे करे लेकिन यहां दावे कितने सर्तक साबित होते है यह हमने आपको बताया है। जरूरत इस बात की है की इन गावं को मुख्यधारा से जोड़ कर सरकार की उन योजनाओं का लाभ उन्हें पहुंचाया जाये। 

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