बांसवाड़ा. हॉकी का नाम सामने आते ही हमारी आंखों के सामने मेजर ध्यानचंद की तस्वीर उभर कर आती है. साल 1928 से 1936 तक हॉकी में भारत लगातार ओलंपिक चैंपियन रहा और यह सब मेजर ध्यानचंद यह जादू का ही कमाल था. उसके बाद से हम कभी भी कोई मैडल नहीं ला पाए और लगातार हमारी रैंक मैं गिरावट आ रही है. मेजर ध्यानचंद के पौत्र विशाल सिंह जिला खेल अधिकारी पद पर कार्यरत हैं. ईटीवी भारत संवाददाता ने उनसे हॉकी में भारत के प्रदर्शन में गिरावट को लेकर खास बातचीत की.
बातचीत के दौरान विशाल सिंह ने कहा कि हॉकी के प्रति आज भी हमारे देश में शहर से लेकर गांव तक वैसा ही जोश और जुनून है. लेकिन, जरूरत इस बात की है कि हॉकी के खिलाड़ियों को समुचित सुविधाएं प्रदान की जाए. इस खेल को पीरियड से जोड़ा जाए और ग्राउंड जीरो पर जितनी फैसिलिटी दी जा सकती है. बच्चों को हॉकी के प्रति जागृत किया जा सकता है. इसके लिए कदम उठाया जाना जरूरी है. सबसे पहले बच्चों को जागरूक किया जाना चाहिए. उसके बाद प्रॉपर इक्विपमेंट ट्रेनिंग और ग्राउंड को डवलप किया जाना चाहिए.
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खिलाड़ियों के चयन में भेदभाव के सवाल पर उन्होंने कहा कि नहीं लगता कि अब ऐसी कोई गुंजाइश बची है. ग्राउंड जीरो से लेकर नेशनल लेवल तक ट्रायल का प्रावधान है. प्रतिभा के बिना कोई भी खिलाड़ी इन्हें पार नहीं कर सकता. उन्होंने अफसोस जताया कि छोटी गलतियों के कारण हमारा प्रदर्शन विश्व स्तर पर लगातार कमजोर पड़ रहा है.
वहीं, ग्राउंड जीरो पर सुविधाओं के सवाल पर विशाल सिंह ने कहा कि एजुकेशन किसी भी खेल की नर्सरी होती है. दुर्भाग्य से हम शिक्षा के साथ खेल को उतना महत्व नहीं दे पा रहे हैं. साल में एक बार जिला स्तरीय प्रतियोगिताएं होती है. उसके बाद शारीरिक शिक्षक भी उदासीन हो जाते हैं तो ग्राउंड पर बच्चे भी नहीं पहुंचते है. जबकि खेल निरंतर अभ्यास मांगता है. अभ्यास के दौरान प्रतिभाओं का सही तरह से आकलन किया जा सकता है. समझा जा सकता है कि किस गांव और किस शहर का खिलाड़ी कितना प्रतिभावान है और उसको अब कैसी सुविधाएं दी जानी चाहिए.
विशाल सिंह के मन में टीस है कि लगातार तीन ओलंपिक में देश का नाम रोशन करने वाले उनके दादा को अब तक भारत रत्न से नहीं नवाजा गया. लेकिन. उम्मीद है कि जिस तरह उनके दादा के नाम पर केंद्र सरकार ने खेल दिवस घोषित किया है. उसी तरह एक दिन भारत रत्न की सिफारिश भी की जाएगी.