उदयपुर. देश आजादी का 75वां अमृत महोत्सव मना रहा है. स्वतंत्रता दिवस को लेकर हर तरफ तैयारियां भी चल रही हैं. 15 अगस्त को विभिन्न आयोजन होंगे और देश की उन वीर सपूतों (freedom fighters of Rajasthan) को नमन किया जाएगा जिन्होंने देश को अंग्रेजों की 200 वर्ष की गुलामी से आजादी दिलाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी. देश की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन का बलिदान देने वाले शूरवीरों की फेहरिस्त तो लंबी है लेकिन फिर भी ईटीवी भारत आज आपको ऐसे ही एक सपूत की वीर गाथा से परिचित कराने जा रहा है जिन्होंने अपने प्राण न्यौछावर कर अंग्रेजों के दमनकारी नीति का मुंहतोड़ जवाब दिया. यह इन वीर सपूतों का ही बलिदान है जो आज हम 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं.
उदयपुर के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र झाडोल (कोलीयारी) के मोतीलाल तेजावत (Motilal tejawat freedom fighter story of udaipur) ऐसे ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थी जिन्होंने अंग्रेजों की दमनकारी नीति का विरोध करते हुए भारत को स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा ने बताया कि मोतीलाल तेजावत का आजादी की लड़ाई में अहम योगदान दिया था. मोतीलाल को आदिवासियों के मसीहा के नाम से भी जाना जाता है. इन्होंने वनवासी संघ की स्थापना की. भील, गरासिया तथा अन्य खेतिहरों पर होने वाले सामंती अत्याचार के खिलाफ भी आवाज बुलंद की. उन्हें एकजुट करने का काम भी किया. सन 1920 में आदिवासियों के हितों को लेकर मातृकुंडिया नामक स्थान पर एकी नामक आंदोलन शुरू किया.
12 सौ से अधिक निर्दोषों पर बरसाई गईं थीं गोलियां
शर्मा ने बताया कि विजयनगर (उत्तर गुजरात) आज से ठीक 100 साल पहले गुजरात, साबरकांठा के अंतरीयाल यानि पाल-दढ़वाल में जलियांवाला नरसंहार जैसी एक घटना हुई थी. स्वतंत्रता सेनानियों की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में अंग्रेजों ने भयंकर गोलीबारी कर 1200 से अधिक निर्दोष आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया था. शर्मा ने कहा कि 7 मार्च 1922 के दिन विजयनगर तहसील के पाल-दढवान गांव में राजस्थान के कोलीयारी गांव के कांग्रेसी कार्यकर्ता मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में हजारों स्वतंत्रता सेनानी एकत्रित हुए थे. इस सभा में अंग्रेजों की ओर से आदिवासियों पर लगाए जा रहे कर और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की चर्चा की जा रही थी. इसी बात से गुस्साए ब्रिटिश अधिकारी सुरजी निनामा के आदेश के बाद अंग्रेजी सिपाहियों ने अंधाधुंध गोलीबारी कर 1200 से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया था.
इस नरसंहार में लाशों से पट गया था कुंआ
शर्मा ने बताया कि इस नरसंहार के दौरान जान बचाने के लिए लोग गांव के पूर्व सरपंच कमलजी भाई डामोर के घर के पास स्थित कुएं में कूद पड़े थे. इतिहासकारों के अनुसार पूरा कुंआ लाशों से पट गया था. अब इस कुंए पर स्मारक बना लिया गया है. प्रतिवर्ष 7 मार्च को यहां पर शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए लोग आते हैं. इस क्रांति के दौरान मोतीलाल की एक खास सहयोगी थे रामजी भाई मंगलाजी परमार और इन्होंने ही घटना के दिन आदिवासियों को बड़ी संख्या में इकट्ठा होने के लिए प्रेरित किया था. यहां के स्थानीय व्यक्ति होने के नाते वह महीनों तक घर बार छोड़कर तमाम इलाकों में घूम-घूम कर लोगों को जागरूक कर रहे थे.
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विजयनगर रियासत की आदिवासी विरोधी नीतियों के कारण आदिवासी समाज दुखा था. जागीरदारों की ओर से बिना कुछ लिए-दिये ही बेगारी करवाई जाती थी. इस बीच सरकार ने वनउपच पर पाबंदी लगा दी थी और जंगलों को भी काटा जाने लगा था. सागौन की लकड़ी इंग्लैंड भेजी जाने लगी थी. अंग्रेजों ने जो-जो छावरिया स्थापित की और विभिन्न विभागों के कार्यालय खोले, उनके भवनों में वही लकड़ी उपयोग में भी लाई गईं थीं. इसलिए जंगलों को भारी नुकसान हो रहा था. इतना ही नहीं जो भी थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी होती ती उस पर भी लगाम लगा दिया गया था. आए दिन लोगों को सरकारी कर्मचारियों और जागीरदार के आदमियों की ओर से परेशान किया जाता था.
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महात्मा गांधी के कहने पर तेजावत ने किया था आत्मसमर्पण
इस माहौल में मोतीलाल आदिवासियों की मशाल बनकर उभरे और अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला. उनके खिलाफ अंग्रेजों ने फरारी का फरमान जारी किया था. तब भी कई दिनों तक वह यहां इस इलाके में छिप कर रहे थे. शर्मा ने बताया कि 7 मार्च 1922 को जब वे आदिवासियों की सभा को संबोधित कर रहे थे तभी ब्रिटिश अधिकारी सुरजी निनामा के आदेश के बाद अंग्रेजी सिपाहियों ने अंधाधुंध गोलीबारी कर निर्दोष को मौत के घाट उतार दिया था. इस भीषण नरसंहार के बाद भी मोतीलाल तेजावत पीछे नहीं हटे और आंदोलन से जुड़े रहे. लेकिन बाद में महात्मा गांधी के कहने पर उन्होंने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.
इस घटना के 100 साल होने पर भारत सरकार की ओर से 26 जनवरी पर आयोजित कार्यक्रम में इस संग्राम की झांकी को भी दिखाया गया था. किस तरह से मोतीलाल तेजावत ने अंग्रेजों के दमन नीति का विरोध किया और आजादी की लड़ाई में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया ताकि आज हम आजाद भारत में सिर उठाकर जी सकें.