कोटा. कोटा शहर में एक नवजात बच्चा रेयर ऑफ द रेयरेस्ट डिजीज (Rare of the rarest disease in Kota) से ग्रसित है. इस बीमारी को ल्यूकोसाइट एडहेशन डिफेक्ट टाइप वन (Rare of the rarest disease Leukocyte Adhesion Defect Type One) कहा जाता है. खास बात यह है कि यह बीमारी करोड़ों में से किसी एक बच्चे को होती है. दुनियाभर में इस तरह की बीमारी के मामले नगण्य ही पाये जाते हैं.
चिकित्सकों का कहना है कि इसे इम्यूनोडिफिशिएंसी कंडीशन या अनुवांशिक रोग कहा जा सकता है. इसमें नवजात को लगातार स्किन व गर्भनाल पर इंफेक्शन ओंफेलाइटिस, निमोनिया व दिमागी संक्रमण मेनिनजाइटिस की समस्या बनी रहती है. चिकित्सकों ने दावा किया है कि हाड़ौती में तो यह पहला केस सामने आया है. इस बीमारी के संबंध में ज्यादा लिटरेचर भी उपलब्ध नहीं है. हालांकि इसका इलाज काफी महंगा है. इसमें स्टेम सेल ट्रांसप्लांट ही होता है. जिसके बाद ही नवजात सामान्य जिंदगी जी सकता है.
यह नवजात बच्चा कोटा शहर के किशोरपुरा इलाके का है. बच्चे की उम्र महज 35 दिन है. वर्तमान में कोटा के जेके लोन अस्पताल के एनआईसीयू में बच्चे का उपचार चल रहा, जहां उसे मेनिनजाइटिस, स्किन इन्फेक्शन और निमोनिया है.
लक्षण के बाद में करवाई जांच में हुई पुष्टि
डॉ. मोहित अजमेरा ने बताया कि नवजात को निमोनिया व स्किन के इंफेक्शन को लेकर परिजनों ने एक अस्पताल में भर्ती करवाया था. बच्चे का 10 दिन तक उपचार चला. इसके बाद उसके परिजन जेके लोन अस्पताल (Kota JK Lone Leukocyte Adhesion Defect Patient) लेकर आए. बच्चे को भर्ती कर लिया गया. डॉक्टर का कहना है कि जेकेलोन में जब बच्चा आया, तब उसके कूल्हे व अन्य जगह स्किन में काफी गंभीर संक्रमण था, जिसमें अल्सर बन गए थे. उसे निमोनिया के साथ-साथ दिमागी संक्रमण भी मिला था.
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बच्चे की मेडिकल हिस्ट्री लेने पर पता चला कि उसकी गर्भनाल भी काफी दिन बाद गिरी थी. इसके अलावा डब्ल्यूबीसी काउंट भी काफी बढ़े हुए थे. इन सब लक्षणों के चलते ही बच्चे के ल्यूकोसाइट एडहेशन डिफेक्ट टाइप वन होने का अंदेशा हुआ. चिकित्सकों ने इसके बाद उसकी फ्लो साइटोमेट्री जांच करवाई, जिसमें इस बीमारी की पुष्टि हुई है.
खून में नहीं है जीवाणु से लड़ने की क्षमता
जांच रिपोर्ट में खून में वाइट ब्लड सेल (WBC) के मार्कर सीडी 11 व 18 दोनों नहीं थे. यह दोनों डब्ल्यूबीसी के प्रोटीन होते हैं, जो कि रक्त वाहिनी में अंदरूनी सतह पर चिपकने का काम करते हैं. इन दोनों की अनुपस्थिति के चलते ही डब्ल्यूबीसी स्क्रीन की अंदरूनी सतह पर नहीं चिपक पाती है, इसके चलते ही वह घाव वाले स्थान पर जाकर जीवाणुओं को नहीं मार पाती. नवजात के खून में मौजूद डब्ल्यूबीसी सेल की कार्य करने की क्षमता कमजोर है.
इसके चलते ही जीवाणुओं को वह नहीं मार पाती. इससे इनफेक्शन कंट्रोल नहीं होता है और मवाद नहीं बनती है. इसके चलते बच्चे के घाव ठीक नहीं हो पाते हैं और वह बाद में जाकर अल्सर का रूप ले लेते हैं. डॉ. मोहित अजमेरा का कहना है कि डब्ल्यूबीसी सेल घाव होने पर वहां पर मौजूद जीवाणुओं को मारती है. इन जीवाणुओं की मौत से ही मवाद बनना शुरू होती है. यही मवाद घाव को सूखने में मदद करती है.
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केवल स्टेम सेल ट्रांसप्लांट से उपचार संभव
जेकेलोन अस्पताल में अभी बच्चे में इनफेक्शन कंट्रोल के लिए एडवांस ग्रेड के एंटीबायोटिक दिए जा रहे हैं. इसके अलावा आगे संक्रमण रोकने के लिए भी एंटीबायोटिक प्रोफाइल एक्सेस शुरू किया गया है, ताकि उसके घाव भर जाएं. हालांकि इस बीमारी में स्टेम सेल ट्रांसप्लांट ही उपचार है. मेडिकल कॉलेज कोटा के शिशु रोग विभाग के चिकित्सकों का मानना है कि स्टेम सेल ट्रांसप्लांट के लिए करीब सरकारी स्तर में 4 से 8 लाख और प्राइवेट में 10 से 15 लाख का खर्चा आता है. विभाग के चिकित्सकों का कहना है कि नवजात के स्टेम सेल ट्रांसप्लांट का काम विशेषज्ञ चिकित्सक ही करेंगे. जिसके लिए एम्स और पीजीआई चंडीगढ़ के विशेषज्ञ चिकित्सकों से बात की जा रही है. वहां पूरी तरह से जानकारी मिलने के बाद नवजात को यहां से वहां भेजा जाएगा.