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Corona का दंश झेलने को मजबूर बच्चे, राहत की राह तकते बीत गए कई माह...अब भी इंतजार

कोरोना के कहर (Side Effect Of Corona) से लोग उबर नहीं पाए हैं. सैकड़ों की तादाद में लोगों ने जान गंवाई. कई बच्चों ने एक साथ अपने मां पिता को दम तोड़ते देखा. इस दौरान सरकार की ओर से हर संभव सहायता का आश्वासन दिया गया. लेकिन महीनों बाद भी कुछ खास नहीं हुआ. अब भी राहत की राह (Rahat Ki Raah) कई तक रहे हैं. ईटीवी भारत (ETV Bharat) ने कुछ ऐसे ही बच्चों से बात की तो जाना कि व्यवस्थागत खामियां उन्हें सहूलियतों से दूर रख रही है.

side effect of corona
राहत की राह तकते मासूम
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Published : Nov 9, 2021, 6:54 AM IST

जोधपुर: कोरोना के दौरान जिले मे कई बच्चे अनाथ (Corona Orphan Children) हो गए. जिनको सरकार सहायता (Government Aid) पहुंचाने का दावा किया गया. लेकिन असल में बहुत कम परिवारों तक यह सहायता पहुंच पाई. ज्यादातर मामलो में जटिल सरकारी अड़चनों के चलते परिवार परेशान हैं. या यूं कहें तो अपनों को खोने के गम के साथ सरकारी व्यवस्था की खामियां (Failed System) इनके जख्मों पर नमक छिड़क रही है.

कुल 35 नाबालिगों को किया गया था चिन्हित

जोधपुर में कुल 17 परिवारों के 35 नाबालिग बच्चों को सहायता के लिए चिहिृनत किया गया था, लेकिन राहत का आंकड़ा नाममात्र का है. दावों की बात करें तो वो भी पुख्ता हैं. राज्य बाल संरक्षण आयोग (State Child Protection Commission) अपनी पीठ थपथपाता है और कहता है कि कुछ तक मदद पहुंच गई है और कुछ के लिए प्रयास जारी है. आयोग की अध्यक्ष संगीता बेनिवाल (Sangita Beniwal) दम भरती हैं कि हम किसी न किसी योजना के तहत ऐसे बच्चों को सहायता दिलाने का प्रयास कर रहे हैं. जिनमें पालनहार और गोराधाय योजना शामिल है. ये भी कहती हैं कि कोरोना के चलते अभिभावक मृत्यु वाले परिवार के बच्चों को तुंरत एक लाख रुपए और प्रतिमाह 2500 रुपए की सहायता का प्रावधान भी है. दावे- वादे सुनने में काफी पॉजिटिव लगते हैं लेकिन हकीकत के धरातल पर ये रेंगते नजर आते हैं.

Corona का दंश झेलने को मजबूर बच्चे

पढ़ें-Special 31 साथ मिले तो बन गया 'किड्स हेल्पिंग हैंड', बच्चों को पढ़ाई के लिए मोटिवेट कर मुस्कुराहट बिखेरना ध्येय

सरकारी तर्क के आगे सब फेल

सुभाषनगर में रहने वाले पारीक परिवार के मासूमों पर तो मानो दुखों का पहाड़ टूट गया (Side Effect Of Corona). पिता अश्विनी कुमार का 3 साल पहले ही निधन हुआ था तो मां को कोरोना ने लील लिया. दूसरी लहर ने 26 अप्रैल को मां अरुणा का साया भी छीन लिया. बच्चे अब अपने दादा-दादी के साथ रहते हैं. अरुणा ही परिवार के लिए काम करती थी. कोरोना के दौर में मां के फेफड़ों ने जवाब दे दिया.

फिर शुरू हुआ कागजों और दस्तावेजों का जाल. मुआवजे की आस में उलझ कर रह गया परिवार. दरअसल, मां अरुणा पारीक का सीटी स्कोर 25 आया लेकिन आरटीपीसीआर टेस्ट (RTPCR Test) नेगेटिव. जिसका सीधा मतलब था कि पीड़ित कोरोना संक्रमित नहीं हैं और ऐसे में मुआवजे का दावा खारिज हो गया.

बच्चे अपने 80 साल के दादा नारायण लाल की पेंशन पर निर्भर है. बेटी साक्षी बताती है कि बिना पॉजिटिव रिपोर्ट के चलते हमें कहीं से सहायता नहीं मिली. जबकि डॉक्टर यह कहते थे कि कोरोना हो गया. साक्षी ने बताया कि पालनहार योजना में हमें चयनित किया गया. चूंकि वो बालिग है यानी 18 वर्ष की तो Automatically योजना से वंचित हो गई. अब कोशिश दसवीं में पढ़ रहे बेटे के लिए की जा रही है.

मुन्नी की रिपोर्ट नहीं मिली, बच्चे हुए अनाथ

चांदपोल क्षेत्र स्थिति भील बस्ती में रहने वाले स्वर्गीय गोविंद भील के परिवार के तो और बुरे हाल हैं. 4 मासूमों की जिन्दगी बस गुजर रही है आस पड़ोस के रहमोकरम पर. बड़ी बच्ची की उम्र 12 साल है. यहां भी पिता गोविंद का साया पहले छिन गया तो मां मुन्नी जनवरी 2021 में चल बसी. बच्चे नादान हैं, नासमझ हैं. दस्तावेजों और रिपोर्ट्स की अहमियत या जरूरत नही समझते. मां की आरटीपीसीआर रिपोर्ट नहीं हाथ लगी है तो भला सरकार कैसे मुआवजा दे पाएगी? पड़ोसी प्रयासरत हैं लेकिन सफलता अभी कोसों दूर है.

पारीक परिवार और गोविंद के बच्चों की कहानी अलग अलग होते हुए भी एक दूसरे से जुड़ी है. दोनों ही केस में सिस्टम आड़े आ रहा है. दस्तावेज जरूरतों पर हावी हो गया है, उम्मीदें दम तोड़ रही हैं और राहत की राह बच्चे तक रहे हैं.

जोधपुर: कोरोना के दौरान जिले मे कई बच्चे अनाथ (Corona Orphan Children) हो गए. जिनको सरकार सहायता (Government Aid) पहुंचाने का दावा किया गया. लेकिन असल में बहुत कम परिवारों तक यह सहायता पहुंच पाई. ज्यादातर मामलो में जटिल सरकारी अड़चनों के चलते परिवार परेशान हैं. या यूं कहें तो अपनों को खोने के गम के साथ सरकारी व्यवस्था की खामियां (Failed System) इनके जख्मों पर नमक छिड़क रही है.

कुल 35 नाबालिगों को किया गया था चिन्हित

जोधपुर में कुल 17 परिवारों के 35 नाबालिग बच्चों को सहायता के लिए चिहिृनत किया गया था, लेकिन राहत का आंकड़ा नाममात्र का है. दावों की बात करें तो वो भी पुख्ता हैं. राज्य बाल संरक्षण आयोग (State Child Protection Commission) अपनी पीठ थपथपाता है और कहता है कि कुछ तक मदद पहुंच गई है और कुछ के लिए प्रयास जारी है. आयोग की अध्यक्ष संगीता बेनिवाल (Sangita Beniwal) दम भरती हैं कि हम किसी न किसी योजना के तहत ऐसे बच्चों को सहायता दिलाने का प्रयास कर रहे हैं. जिनमें पालनहार और गोराधाय योजना शामिल है. ये भी कहती हैं कि कोरोना के चलते अभिभावक मृत्यु वाले परिवार के बच्चों को तुंरत एक लाख रुपए और प्रतिमाह 2500 रुपए की सहायता का प्रावधान भी है. दावे- वादे सुनने में काफी पॉजिटिव लगते हैं लेकिन हकीकत के धरातल पर ये रेंगते नजर आते हैं.

Corona का दंश झेलने को मजबूर बच्चे

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सरकारी तर्क के आगे सब फेल

सुभाषनगर में रहने वाले पारीक परिवार के मासूमों पर तो मानो दुखों का पहाड़ टूट गया (Side Effect Of Corona). पिता अश्विनी कुमार का 3 साल पहले ही निधन हुआ था तो मां को कोरोना ने लील लिया. दूसरी लहर ने 26 अप्रैल को मां अरुणा का साया भी छीन लिया. बच्चे अब अपने दादा-दादी के साथ रहते हैं. अरुणा ही परिवार के लिए काम करती थी. कोरोना के दौर में मां के फेफड़ों ने जवाब दे दिया.

फिर शुरू हुआ कागजों और दस्तावेजों का जाल. मुआवजे की आस में उलझ कर रह गया परिवार. दरअसल, मां अरुणा पारीक का सीटी स्कोर 25 आया लेकिन आरटीपीसीआर टेस्ट (RTPCR Test) नेगेटिव. जिसका सीधा मतलब था कि पीड़ित कोरोना संक्रमित नहीं हैं और ऐसे में मुआवजे का दावा खारिज हो गया.

बच्चे अपने 80 साल के दादा नारायण लाल की पेंशन पर निर्भर है. बेटी साक्षी बताती है कि बिना पॉजिटिव रिपोर्ट के चलते हमें कहीं से सहायता नहीं मिली. जबकि डॉक्टर यह कहते थे कि कोरोना हो गया. साक्षी ने बताया कि पालनहार योजना में हमें चयनित किया गया. चूंकि वो बालिग है यानी 18 वर्ष की तो Automatically योजना से वंचित हो गई. अब कोशिश दसवीं में पढ़ रहे बेटे के लिए की जा रही है.

मुन्नी की रिपोर्ट नहीं मिली, बच्चे हुए अनाथ

चांदपोल क्षेत्र स्थिति भील बस्ती में रहने वाले स्वर्गीय गोविंद भील के परिवार के तो और बुरे हाल हैं. 4 मासूमों की जिन्दगी बस गुजर रही है आस पड़ोस के रहमोकरम पर. बड़ी बच्ची की उम्र 12 साल है. यहां भी पिता गोविंद का साया पहले छिन गया तो मां मुन्नी जनवरी 2021 में चल बसी. बच्चे नादान हैं, नासमझ हैं. दस्तावेजों और रिपोर्ट्स की अहमियत या जरूरत नही समझते. मां की आरटीपीसीआर रिपोर्ट नहीं हाथ लगी है तो भला सरकार कैसे मुआवजा दे पाएगी? पड़ोसी प्रयासरत हैं लेकिन सफलता अभी कोसों दूर है.

पारीक परिवार और गोविंद के बच्चों की कहानी अलग अलग होते हुए भी एक दूसरे से जुड़ी है. दोनों ही केस में सिस्टम आड़े आ रहा है. दस्तावेज जरूरतों पर हावी हो गया है, उम्मीदें दम तोड़ रही हैं और राहत की राह बच्चे तक रहे हैं.

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