जैसलमेर/जोधपुर. हाल ही में कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट का एक वीडियो (Sachin Pilot Safa Video) काफी देखा, सराहा गया. इस वीडियो में वो साफा बांधते दिखे रिकार्ड 2 मिनट में 51 मीटर लम्बा साफा. उन्होंने बताया कि सामान्य पगड़ी तो महज 29 सेकेंड में बांध देते हैं. उनके बाद फिर कईयों ने राजस्थान की इस समृद्ध परम्परा का निर्वहन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किया. करें भी क्यों न क्योंकि यही रंगीले, सजीले और रौबीले राजस्थान का प्रतीक (Rich Tradition Of Rajasthani Safa) है. तभी तो भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष जब साफा न बांधने का प्रण लेते हैं तो उसे यहां के लोग गंभीरता से लेते हैं.
राजस्थान के विभिन्न जिलों में इसे अलग अलग नामों से जाना जाता है. कोई इसे पाग, कोई पगड़ी, कोई साफ, कोई टोप कहता है. सारे Style एक दूसरे से जुदा है. मारवाड़ में साफे को लेकर लोग काफी उत्सुक रहते है, शादी विवाह और बड़े समारोह में साफे पहनने (Safa Tying In Rajasthan) का रिवाज है. मॉर्डन वर्ल्ड में भी रुझान कम नहीं हुआ. युवा बड़े चाव से इसे अपने सिर पर सजाना चाहते हैं.
राजस्थानी साफा (खासकर मारवाड़ी साफा) Safa Culture में एक खास मुकाम रखता है. इसकी धमक का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है 2016 से अब तक देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वतंत्रता दिवस पर मारवाड़ी साफा ही बांधते आए हैं. पैटर्न बदला रहता है लेकिन सिर का ताज तो राजस्थानी साफा ही रहता है.
कला, संस्कृति और वैभव का संगम मरु महोत्सवः स्वर्ण नगरी का जग विख्यात मरु महोत्सव का आगाज हो चुका है. मरु महोत्सव में राजस्थान की जीवंत कला और संस्कृति को दिखाते हुए यहां के वैभव का प्रदर्शन किया जाता है. इस दौरान राजस्थान की शान मानी जाने वाली साफा प्रतियोगिता भी होती है. सबसे सुंदर और जल्दी साफा कौन पहन सकता है, इसको लेकर बकायदा मंच सजता है. इस बार मरु महोत्सव का आगाज नगर आराध्य लक्ष्मीनाथ में महाआरती से हुआ. सोनार दुर्ग से भव्य शोभा यात्रा निकली गई. शोभा यात्रा में अंतरराष्ट्रीय कलाकारों के साथ राजस्थानी लोक नृत्य शुरू हो गया. मरू महोत्सव में जैसलमेर की छटा पर्यटन रंगों में सराबोर नजर आ रही है. इस महोत्सव में राजस्थान की कला, संस्कृति और वैभव की झलक पर्यटकों को देखने को मिल रही है.
तीन से पांच मीटर तक होता है साफा: सामान्यत साफा 3 मीटर का होता है लेकिन कई साफे 5 मीटर से भी बड़े होते हैं. साफे से ही आमो खास की पहचान होती है. सामान्यत ग्रामीण गोल साफा बांधते हैं. विशेष मौके पर लोग ऐसा बांधते है जिसमें एक हिस्सा बाहर लटकता है. साथ ही साफे के उपर एक कपड़े का तुर्रा भी निकाला जाता है.
अगर कोई ये सोचता है कि एक ही तरह का साफा हर मौके पर, हर उम्र का शख्स एक जैसे ही पहनता है तो वो गलत है. क्योंकि इसके रंगों से जुड़ी कहानियां अलग अलग है. अगर खुशी का माहौल है तो लाल चुनरी और पंचरंगी साफे बांधे जाते हैं. शादी विवाह में यजमान चुनरी या आजकल प्रिंट के साफे बांधते हैं. शोक सभाओं में सफेद और भूरे रंग के साफे बांधे जाते हैं.
साफे पगड़ी में भी फर्क: लोग साफे को भी पगड़ी कहते हैं. लेकिन दोनों में बड़ा ही बारीक सा अंतर है. मेवाड़ सहित अन्य क्षेत्रों में जो पगडी बंधती है उसे बार-बार खोला नहीं जाता जबकि साफे को खोल कर बांधा जा सकता है. पगड़ी बाजार में सहूलियत के हिसाब से उपलब्ध होती है. तो सिर का ताज साफा हमेशा जिसे पहनना है उसके सिर पर ही बांधा जाता है. हालांकि व्यवसाय के दौर में लोग साफे बांध कर उसमें प्लास्टिक की बॉल डाल देते है. जिससे वह खुले नहीं. इस तरह के साफ शादी विवाह में आने वाले बडी संख्या के मेहमानों के लिए मंगवाए जाते हैं.
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आसान नहीं है साफा बांधना: राजस्थानी साफा बांधना भी आसान नहीं है. ये भी एक कला है. शहरों में शादी विवाह में अब तो साफे बांधने के लिए लोगों को बुलाना पड़ता है. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी है जो चंद सेकेंडों में साफा बांधते हैं. इस काम से जुड़े चंद्रपालसिंह का कहना है कि यह हमारी संस्कृति से जुड़ा है. साफा हमारे सम्मान का प्रतीक है. इसे पहनकर जहां भी जाते हैं तो साफे के अनुसार ही सम्मान मिलता है क्योंकि यह अलग पहचान रखता है. यही वजह है कि मारवाड़ में साफे बांधने का प्रचलन संस्कृति से जुड़ा है. जोधपुर में तो बाकायदा मयूर चौपासनी में तो छात्रों को साफा बांधने की कला सिखाई जाती है.
आखिर साफा क्यों है इतना भाता: इस दुनिया में कोई भी चीज Illogical यानी अतार्किक नहीं होती. हर होनी का कोई कारण होता है. साफे के माथे पर सजने का भी माकूल कारण है. तो जानकार कहते हैं कि ये राजस्थान के धोरों से जुड़ा है. दरअसल, राजस्थान का रेगिस्तान मारवाड़ में ही है. यहां सर्दी और गर्मी दोनों खूब पड़ती है. ये साफा इसी Extreme Weather से बचाता है.
लोग तो ये भी कहते हैं कि पहले जमाने में मीलों का सफर कर जब कोई थक जाता था. उसे प्यास लगती थी वो पानी पीने के लिए कुएं या बावडी पर रुकता था तो साफे का उपयोग पानी खींचने के काम आता था.
साफा, पाग व पगड़ी सभी का असर: राजस्थान में क्षेत्र और परंपरा के आधार पर इनके अलग अलग नाम है. इनकी शैली भी अलग है. पाग पगडियों का भी महत्व कितना है इसका अंदाजा तो बोलचाल की भाषा व कहावतों से लगाया जा सकता है, जयपुर व उदयपुर की पगड़ी भी अपने आप में जुदा है. उदयपुर में पगड़ी पर आभूषण बांधे जाते हैं. तो कई जगहों पर साफे पर किलंगी लगाई जाती है. साफे के कई नाम है. जैसे फैंटा, सेला, पोतिया. एक और बात पाग-पगड़ियों का चयन मौसम के आधार पर होता है.
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थोड़ा इतिहास जान लें!: इतिहास इसका उतना ही पुराना है शायद जितनी ये धरती. हिंदु मान्यताओं की मानें तो भगवान की जटा इसकी उत्पत्ति का कारण है. कहते हैं फिर रामायण काल में इसे व्यक्ति की लाज से जोड़ा गया.
लिखित इतिहास की बात करें तो इसका सबसे प्राचीन सबूत ईसा पूर्व दूसरी सदी के कुषाण काल की एक मूर्ति से मिलता है जिसमें एक महिला को साफ़ा पहने हुए दिखाया गया है. हालांकि आधुनिक साफ़ा लगभग ३०० साल पुराना बताया जाता है. औपनिवेशिक काल के ब्रिटिश नृवंशविज्ञानियों (ethnographers )ने इस तथ्य के बारे में बहुत कुछ लिखा है.