जयपुर. भगवान राम के पुत्र कुश को वंशज मानने वाले जयपुर के कुशवंशी कछवाहा शासकों ने अयोध्या की परंपराओं का भी पालन किया. यही वजह है कि छोटी काशी जयपुर में अयोध्या का रामलला का मंदिर और रास्ता होने के साथ सिरहढयोड़ी दरवाजे को मूल नाम अयोध्या पोल है.
विचारक जगदीश ए पंचारिया ने जयपुर के कछवाहों को राम के पुत्र कुश का वंशज माना है. उनके मुताबिक वाल्मीकि रामायण की तर्ज पर शासन के कामकाज के लिए दस्तूर कोंमवार के मुताबिक पर्व त्योहार मनाने का उल्लेख मिलता है. जयपुर बसने के समय एक रास्ते का नामांकन रामलला का रास्ता किया गया. जोहरी बाजार स्थित रास्ते में रामलला का मंदिर भी है. सिटी पैलेस के सीताराम द्वार में विराजमान भगवान को मुख्य मानते हुए महाराजा सबसे पहले सीताराम द्वारा में दर्शन करते थे. वहीं युद्ध और राजा की शाही सवारी में सीताराम जी का रथ भी आगे रखा जाता था.
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इतिहासकारों के मुताबिक सवाई जयसिंह द्वितीय ने वाल्मीकि रामायण के आधार पर कई परंपराओं को कायम किया. दशहरे पर नीलकंठ पक्षी को आजाद करने और दशहरा कोठी पर समय पूजन का रिवाज आज भी निभाया जाता है. वहीं दशहरे पर महाराजा चांदी की टकसाल में हीरे मोती नवरत्नों से प्रतीकात्मक रूप से हल बीज की बुवाई करते थे. बाल्मीक रामायण में अयोध्या के रामदल का सफेद ध्वज बताया है. हालांकि आमेर नरेश मान सिंह प्रथम तक ये सफेद ध्वज रहा. अफगानिस्तान सहित पांच राज्यों की जीत के बाद पचरंगा झंडा बनाया गया. झंडे में झाड़ का पेड़ होने से जयपुर की मुद्रा को झाड़शाही कहा जाता था.
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आमेर महल में युद्ध की तर्ज पर बनी सीता रसोई में रामायण कथा पर आधारित बेहतरीन चित्र बने हैं. रियासत के सरकारी परवानों पर श्री सितारामो जयति लिखा जाता रहा. भगवान श्रीराम की तरह सवाई जयसिंह ने भी राजसूर्य, वाजपेई और अश्वमेघ जैसे महान यज्ञ करवाए. अयोध्या के सरयू की तरह जयपुर में नदी नहीं होने से प्रतीक के रूप में द्रव्यवती का पानी लाकर चांदपोल में चोपड़ों के बीच होते हुए एक नहर निकाली गई, जिसके अवशेष मेट्रो की खुदाई के समय भी निकले थे. नवग्रह के आधार पर बसे जयपुर की एक भाग का नाम चौकड़ी रामचंद्र जी रखा गया. तो वहीं छोटी चौपड़, चांदपोल के अलावा भी कई रास्तो में राम के मंदिर भी हैं.