जयपुर. आज जयपुर का 293 वां स्थापना दिवस है. जयपुर की संरचना पूरी दुनिया के प्रसिद्ध नगरों के नक्शों का अध्ययन कर ज्योतिष और वास्तुशास्त्र के आधार पर की गई थी. जयपुर के निर्माता सवाई जयसिंह एक विलक्षण गणितज्ञ, नगर नियोजक, ज्योतिष एवं दर्शन अध्येता, धर्मपालक, संस्कृति संरक्षक और पराक्रमी सेनानायक भी थे.
सवाई जयसिंह ने जयपुर की नींव 18 नवंबर 1727 को रखी थी. वह देश का शांति काल नहीं था. उस दौर में भी वे दुनिया का एक अद्भुत सुंदर नगर बनाने में सफल रहे. जयपुर सिर्फ अपनी स्थापत्य कला की वजह से ही नहीं जाना जाता बल्कि जयपुर भारत के उस उथल-पुथल भरे दौर में धर्म और संस्कृति का मुकुट भी बना. जयपुर ने भारत के पौराणिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक संपदा और दार्शनिक भावों को स्पंदित किया.
पढ़ेंः Special - विरासत के साथ विकास के पथ पर बढ़ रहा जयपुर, जानिए वर्ल्ड फेमस पिंक सिटी से जुड़ा इतिहास
सवाई जयसिंह के महान व्यक्तित्व को इतिहास ने उन्हें जयपुर के संस्थापक तक सीमित कर दिया है, लेकिन उनका मूल्यांकन इससे आगे भी होना चाहिए. औरंगजेब का जब निधन हुआ तब सवाई जयसिंह सिर्फ उन्नीस साल के थे. वे मात्र 12 साल की उम्र में आमेर के राजा बने थे..जब उन्होंने जयपुर की नींव रखी तब वे 39 साल के थे. सवाई जयसिंह ने 54 वर्ष की उम्र में अश्वमेध यज्ञ कराया और इस महान राजा का सिर्फ 55 साल की उम्र में निधन हो गया. आमेर और जयपुर के इस राजा ने 44 साल तक राज किया और जयपुर के निर्माता को अपने सपनों का शहर बनते देखने के लिए सिर्फ सोलह साल मिले.
सवाई जयसिंह के लिए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और महान इतिहासकार पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा किः
'किसी भी जमाने में और कहीं भी, जयसिंह एक मार्के का आदमी हुआ होता. राजपूताने के खास सामंतवादी वातावरण में पैदा होकर, हिंदुस्तान के इतिहास के एक इतने अंधियारे जमाने में जब कि टूट-फूट, युद्ध और हंगामे ही दिखाई पड़ते थे, उसके वैज्ञानिक कारनामे बड़े महत्व के हैं.'
नेहरू जी ने सवाई जयसिंह की प्रशंसा करते हुए लिखा कि 'जयपुर के शहर का नक्शा इतना अच्छा और बुद्धिमानी से तैयार किया गया था कि यह अब भी नगर निर्माण की एक मिसाल पेश करता है. थोड़ी ही उम्र के भीतर और युद्धों और दरबारी षड्यंत्रों में फंसे रहते हुए भी, जयसिंह ने यह सब और बहुत कुछ और भी किया'.
पढ़ेंः Special : चुनाव और दिवाली के बाद अब शादी सीजन बढ़ाएगा संक्रमण...दिसंबर रहेगा स्वास्थ्य पर भारी
पं. जवाहरलाल नेहरू ने कछवाहा वंश के इस पराक्रमी राजा को ज्योतिष का वैज्ञानिक कहकर संबोधित किया है, जो अद्वितीय गणितज्ञ, हिंदुस्तानी और यूरोपीय ज्योतिष शास्त्र का अध्येता था. नेहरू जी इससे चमत्कृत थे कि इस राजा ने दिल्ली, मथुरा, उज्जैन, बनारस और जयपुर में वेधशाला बनाई. जयपुर जैसा सुंदर नगर बनाया और वह भी उस दौर में जब भारत के लिए यह अराजकता भरा बुरा समय था.
इसलिए जयपुर की स्थापना करते समय सवाई जयसिंह के हृदय में क्या उधेड़बुन चल रही थी, वे किन चुनौतियों से जूझ रहे थे, इस पर रोशनी डाली जाए तो सवाई जयसिंह का व्यक्तित्व उन्हें भारत के महान नायकों की अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा करता है. विलक्षण गुणों के साथ जन्मे जयसिंह ने अपनी आठ साल की उम्र में यह मंजर भी देखा था कि किस तरह आमेर में सेना भेजकर मुगल बादशाह औरंगजेब ने अनेक मंदिर तुड़वा दिए थे.
हालांकि औरंगजेब ने बारह साल के जयसिंह को सवाई की पदवी दी थी, तब से जयपुर के राजा अपने नाम के आगे सवाई लगाने लगे. सवाई जयसिंह मात्र तेरह साल की उम्र में मुगल सेना के साथ सैन्य मुहिम दक्खन में गये. उन्होंने चौदह साल की उम्र में अद्वितीय रणकौशल दिखाया और विशालगढ़ का किला मराठों ने युद्ध में हारने पर सुलह कर उन्हें सौंप दिया. सवाई जयसिंह के गुणों से छत्रपति शाहूजी बेहद प्रभावित हुए और अनेक मराठा सरदार उनके मित्र बन गये. औरंगजेब यह देखकर भीतर से कुढ़ रहा था लेकिन वह बेबस था और दक्खन में ही उसकी साल 1707 में मौत हो गई.
पढ़ेंः Special : 75 साल बाद भी सड़क, सीवरेज, ट्रैफिक जाम...पानी की सुविधाओं को तरसता दौसा
इसके अगले बारह साल मुगल सल्तनत के लिए बहुत कठिन बीते. बारह साल में पांच बादशाह बने और मिटे. यह समय सवाई जयसिंह के लिए भी बहुत कठिन रहा. औरंगजेब के उत्तराधिकारी नये बादशाह बहादुर शाह ने तख्त पर बैठते ही आमेर को खालसा घोषित कर दिया और 10 जनवरी 1708 को बहादुर शाह मुगल सेना लेकर आमेर पहुंच गया और आमेर पर कब्जा कर इसका नाम इस्लामाबाद रख दिया. उस समय सवाई जयसिंह सिंह की उम्र बीस साल थी. बहादुर शाह ने उनके भाई विजय सिंह को राजा बना दिया था. करीब दस माह तक सवाई जयसिंह राज्यविहीन होकर आमेर से दूर रहे और उदयपुर और जोधपुर के राजाओं की सहायता से राज पुनः प्राप्त करने का प्रयास करते रहे. अक्टूबर, 1707 में कुछ युद्धों के बाद सवाई जयसिंह का आमेर पर पुनः अधिकार हो गया.
बीस साल के युवा जयसिंह जो अद्वितीय गणितज्ञ, ज्योतिषविद् और दूरदृष्टा राजनीतिज्ञ भी थे, वे समझ चुके थे कि भारत किस अंधेरे दौर में प्रवेश कर रहा है. उन्होंने स्वयं को भारत की एक नवीन आशा बनाने का संकल्प अपने मन में धारण किया.
पढ़ेंः Special: 20 साल से मालवीय के हाथ में जिला परिषद की चाबी, लेकिन इस बार बिगड़ सकते हैं समीकरण
सवाई जयसिंह के पुनः आमेर का राजा बनने से बहादुर शाह नाखुश था, लेकिन वह दक्खन और सिख विद्रोह के मोर्चों पर फंसा हुआ था. इसलिए उसने मन मारकर सवाई जयसिंह से समझौता कर लिया. साल 1712 में बहादुर शाह की लाहौर में मृत्यु हो गई. अगले बादशाह जहांदार शाह के उसके भतीजे फर्रूखशियर ने हत्या कर दी और साल 1713 में बादशाह बन गया. उस समय सवाई जयसिंह पच्चीस साल के नौजवान राजा थे और अपनी उम्र के मुकाबले कहीं अधिक परिपक्व राजनीतिज्ञ और अनुभवी शासक थे. उन्हें फर्रूखशियर ने मालवा का सूबेदार बनाया, फिर भरतपुर में सैन्य मुहिम पर भेजा.
फर्रूखशियर के दरबार में सवाई जयसिंह के खिलाफ लगातार षड़यंत्र रचे जाते थे. बादशाह पर पूरी तरह सैयदों का प्रभाव था. सवाई जयसिंह साल 1719 के फरवरी माह में आमेर आ गये. उधर दिल्ली में फर्रूखशियर की 18 अप्रैल को हत्या हो गई. इसके पांच महीनों में दो मुगल बादशाह बने और दोनों की मृत्यु हो गई. पांच महीनों में तीन मुगल बादशाहों की हत्या ने दिल्ली की मुगलिया सल्तनत की कमर तोड़ दी.
साल 1719 में दिल्ली के तख्त पर एक और अयोग्य शासक मोहम्मद शाह रंगीला तख्त पर बैठा. वह 29 साल बादशाह रहा. उसके समय में नादिरशाह ने साल 1739 में हमला कर दिल्ली तबाह कर डाली.जयपुर की स्थापना साल 1727 में हुई और नादिरशाह का दिल्ली पर हमला 1739 में हुआ.यह सवाई जयसिंह का प्रताप ही था कि ऐसे अराजक दौर में भी जयपुर बनता रहा और निखरता गया. सवाई जयसिंह सिंह की वजह से पूरे भारतवर्ष से विद्वानों, ज्योतिषियों, व्यापारियों और धर्मनिष्ठ लोगों ने जयपुर में आकर बसना पसंद किया.
पढ़ेंः Special : राजस्थान में एक माह में 540 हथियार तस्कर गिरफ्तार..532 हथियार बरामद
जयपुर की स्थापना के पार्श्व में एक और बड़ी घटना हुई. जिस पर इतिहास मुखरित नहीं है. जबकि वह घटना सवाई जयसिंह को इतिहास के महान नायकों की पंक्ति में लाकर खड़ी करती है. यह घटना विस्तृत वर्णन की अधिकारी है. इसे इतिहास को उसका स्थान और सम्मान देना चाहिए. यदि ऐसा होता है तो भारत के महानायकों में सवाई जयसिंह का नाम भी अग्रिम पंक्ति में दर्ज होगा.
जब मोहम्मद शाह रंगीला 19 सितंबर 1719 को दिल्ली के तख्त पर बैठा तब उसने पहला काम यह किया कि अपने सलाहकारों सैयद बंधुओं के बहकावे में आकर बादशाह ने आमेर पर आक्रमण का हुक्म दिया. सवाई जयसिंह तब इकत्तीस साल के हो चुके थे और उनका प्रभाव और प्रभामंडल सैयदों को चुभता था. सैयद बंधु मुगलों की शाही सेना लेकर बनास नदी के किनारे-किनारे राजपूताना में आगे बढ़े. उनका इरादा जंगलों के रास्ते होकर टोडा पर हमला बोलकर मालपुरा लूटते हुए आमेर की तरफ बढ़ने का था. तब आमेर की सीमा टोडा रायसिंह तक थी.
मुगलों की शाही सेना दबे पांव आ रही है. यह सूचना मिलते ही युवा सवाई जयसिंह का रक्त खौल उठा. उन्हें मुगलों से इस धोखे की उम्मीद नहीं थी. उन्होंने मुगलों के लिए कई साल तक बहुत बहादुरी से युद्ध लड़े थे. सवाई जयसिंह ने आमेर में अपने सभी सरदारों को इकट्ठा किया. सवाई जयसिंह एक विलक्षण व्यक्तित्व के थे और उनमें जादुई आकर्षण था.
उन्होंने जमवारामगढ़ में अपनी कुलदेवी जमवाय माता के मंदिर में जाकर उनके दर्शन किए और आमेर लौटकर अपना संपूर्ण राज्य ब्राह्मणों को दान कर दिया. सवाई जयसिंह ने केसरिया बाना पहनकर कछवाहा वंश के सभी सरदारों के साथ आमेर से कूच किया. कछवाहा सेना के रणबांकुरों ने टोडा रायसिंह पहुंच कर मुगल सेना को ललकारा. सवाई जयसिंह जैसे तेजस्वी सेनापति को सामने देखकर मुगल सेना के पांव शीघ्र उखड़ गए.
सैयदों ने सवाई जयसिंह को बीस लाख रूपए बतौर हर्जाना देकर सुलह की गुहार की. अगले साल ही बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला की सैयद बंधुओं से शत्रुता हो गई और बादशाह ने सवाई जयसिंह से सहायता मांगी. उन्होंने चार हजार घुड़सवार बादशाह की मदद के लिए तत्काल दिल्ली भेज दिए जिन्होंने बादशाह के परिवार की रक्षा की. सवाई जयसिंह ने इस तरह अपनी उदारता और कूटनीति का परिचय दिया. आमेर दान करने, टोडा रायसिंह तक जाकर मुगल सेना के घुटने टिकाने की घटना को इतिहास एक सामान्य युद्ध की तरह देखता है. जबकि यह एक असाधारण घटना थी.
सवाई जयसिंह ने इस घटनाक्रम के एक साल बाद ही मुगल बादशाह की भी सहायता कर अहसास करा दिया था कि उनमें कितनी विशिष्ट राजनीतिक योग्यता है. बादशाह ने सवाई जयसिंह को दिल्ली बुलाकर उन्हें इस सहायता के बदले दो करोड़ रुपए देने चाहे, लेकिन उन्होंने बादशाह से कहा कि वे सिर्फ यह चाहते हैं कि हिंदुओं पर लगा जजिया कर समाप्त कर दिया जाए. बादशाह ने 27 नवंबर 1721 को जजिया कर समाप्त कर दिया और यह फिर कभी नहीं लगा.
बादशाह मोहम्मद शाह पर सवाई जयसिंह की कृतज्ञता बढ़ती जा रही थी. उसने उन्हें 'राजराजेश्वर, श्री राजाधिराज, महाराजा' का पद भी 12 जून 1723 को प्रदान किया. अगले चार साल सवाई जयसिंह ने अपना पूरा ध्यान जयपुर नगर के संकल्प को मूर्तरूप देने में बिताए. उन्होंने पूरी दुनिया के बड़े शहरों के नक्शे मंगवाकर जयपुर का नक्शा तैयार कराया. फ्रांस, इटली, पुर्तगाल, ईरान, अरब से खगोलविदों को बुलाकर ज्योतिष शास्त्र के भारतीय विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ कराकर ज्योतिष शास्त्र के अनेक अद्भुत ग्रंथ तैयार कराए.
ज्योतिष शास्त्र के विद्वान जगन्नाथ सम्राट ने नए शहर का मुहूर्त निकाला और नगर नियोजक विघाधर चक्रवर्ती के संयोजन में 'सवाई जयपुर' के निर्माण का कार्य आरंभ हुआ. जो कि जयपुर के नाम से विश्व-विख्यात हुआ और यही इस नये शहर का नाम करण हुआ. सवाई जयसिंह जयपुर की स्थापना के सोलह साल जीवित रहे. उनके समय में जयपुर की नौ चौकड़ियां, बाजार, चौपड़, परकोटा सभी का निर्माण हो चुका था.
इस अद्वितीय सुंदर नगर को इसकी स्थापना के सौ साल बाद जयपुर आये बिशप हीपर ने इसके परकोटा की तुलना मास्को के क्रेमलिन की दीवारों से की. जयपुर जब आकार ले रहा था तभी से दुनिया भर के विद्वानों को लुभा रहा था. साल 1734 में यूरोप के खगोलीय विद्वान फादर जोंस टाइफेन्थेलर जयपुर आये थे. उन्होंने इसे 'भारत का सबसे सुंदर नगर' बताया और जयपुर की चौड़ी सड़कों की भरपूर प्रशंसा की.
राजस्थान पत्रिका में ' नगर परिक्रमा ' जैसे ऐतिहासिक स्तंभ के लेखक नंदकिशोर पारीक ने लिखा कि '1743 ई. में जयसिंह की मृत्यु हो गई, लेकिन उसके बाद 75 सालों तक मरहठों और पिंडारियों के आतंक और आए दिन की लूटपाट के बावजूद जयपुर बराबर बनता रहा और बढ़ता रहा.'
सवाई जयसिंह भारत की एक नई कहानी लिखने के लिए प्राण-प्रण से जुटे थे. उन्होंने साल 1734 में जयपुर में अपने राजमहल ' चंद्रमहल' (सीटी पैलेस) के बाहरी हिस्से में जंतर-मंतर का निर्माण कराया. यहां पर सम्राट, जयप्रकाश, रामयंत्र जैसे यंत्र स्थापित कराए. जिनकी शुद्धता आधुनिक वैज्ञानिकों को भी विस्मित करती है. सम्राट यंत्र संसार की सबसे बड़ी धूप घड़ी है. इस वेधशाला में खगोलीय गणना के चौदह यंत्र हैं. यह वेधशाला सवाई जयसिंह की विद्वता का एक अद्भुत उदाहरण है.
साल 1735 में चंद्रमहल प्रागंण के सामने जयपुर के अराध्य देव गोविंद देव जी का मंदिर एक बाराहदरी में बनकर तैयार हुआ. गोविंद देव जी इससे पहले जयनिवास बाग और कनक वृंदावन में विराजमान थे. उनका पांच हजार साल से अधिक प्राचीन विग्रह साल 1714 में वृंदावन क्षेत्र से लाया गया था.
सवाई जयसिंह के समय में ही जयपुर का राजप्रासाद यानी सात मंजिला चंद्र महल बनकर तैयार हो गया था.सवाई जयसिंह ने जयपुर की चौकड़ियों में कुएं, चौक, मंदिर बनाने पर भी विशेष ध्यान दिया.जयपुर में जैन और वैष्णव,शैव मंदिरों की भरमार के कारण इसे ग्रंथों में जैनपुरी और छोटी काशी भी कहा गया है.
सवाई जयसिंह के मन में अपने स्वप्निल शहर जयपुर को लेकर क्या उमड़ रहा था.यह उनके द्वारा कराये गये अश्वमेध यज्ञ से प्रकट होता है.उन्होंने साल 1742 में यह यज्ञ कराया. इसके लिए वरदराज विष्णु की मूर्ति मीणा सैनिकों को भेजकर दक्षिण से लायी गई. अश्वमेध यज्ञ के साथ ही उन्होंने राजसूय यज्ञ, पुरुष मेध यज्ञ, वाजपेय यज्ञ, सर्वमेध यज्ञ, सोम यज्ञ आदि भी कराये. इन यज्ञों में देश भर से ब्राह्मण, विद्वान सम्मिलित होने आए. जिनमें अधिकांश जयपुर में ही बस गए.सवाई जयसिंह इन यज्ञों के जरिए भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक विरासत के अक्षुण्ण होने का संदेश भी देना चाहते थे जिसमें वे सफल रहे. मुगल सल्तनत के पतन के दौर में सवाई जयसिंह ने दिल्ली और आगरा के व्यापारियों को जयपुर लाकर बसाया.
उन्होंने जयपुर को वैदिक कर्मकांड, ज्योतिष, व्यापार, स्थापत्य कला की अनूठी नगरी बनाया.सम्राट जगन्नाथ, पुंडरीक रत्नाकर, विघाधर चक्रवर्ती, शिवानंद गोस्वामी, श्री कृष्ण भट्ट जैसे विद्वानों ने जयपुर को अद्वितीय नगरी बनाने में अथक योगदान दिया.जयपुर को सुरक्षित नगर बनाने के लिए उन्होंने जयगढ़ किले का पुनर्निर्माण कराया और पहाड़ पर एक नये किले नाहरगढ़ का निर्माण किया.
पढ़ेंः Special : केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का राज्यों को निर्देश...सड़क से हटेंगे 30 फीसदी वाहन
आजादी के बाद जयपुर प्रदेश की राजधानी बनी और अब यह देश का बड़ा महानगर है. आबादी का विस्तार जयपुर में बहुत तेजी से हुआ है. दुनिया के सबसे नियोजित शहर के अ-नियोजित विस्तार ने जयपुर की अंतरात्मा पर सबसे बड़ा प्रहार किया है. जयपुर के चौतरफा जंगल कट गये हैं.महानगर में पेड़ घटते जा रहे हैं.जयपुर का निराला ऐतिहासिक रामगढ़ बांध सूख चुका है.जयपुर देश के प्रदूषित शहरों में अव्वल है. शायद किसी सांस्कृतिक ' गुलाबी ' नगर को सुंगधहीन महानगर बनने के लिए यह सब कीमत चुकानी ही पड़ती है.
जयपुर सात साल बाद तीन सौ साल का हो जाएगा. क्या तब तक सरकार इसे पानी से लबालब रामगढ़ बांध लौटा पाएगी ? क्या सरकार जयपुर के पुराने पेड़ बचा पाएगी ? परकोटा और शहर का गुलाबीपन बचा पाएगी ? ऐसे सवाल वैसे आज के दौर में बेमानी हैं.
यह वह जयपुर है जिसके लिए स्तंभ लेखक नंदकिशोर पारीक ने लिखा था कि-
'जब मरहठे और पिंडारी आक्रामक नगर के प्रमुख प्रवेशद्वारों पर दस्तक दे रहे थे, यहां के नगर-प्रासाद में राधा-कृष्ण की लीलाओं पर आधारित ' भारतीय समूह -चित्रों के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण' - गोवर्धन-धारण और रासमंडल जैसे विशाल चित्र बनाये जा रहे थे.' सही है, जयपुर एक निर्भय शहर है जो युद्ध काल में बना और युद्धों में भी उसने अपनी सांस्कृतिक और उल्लासित यात्रा जारी रखी. जयपुर की रिवायतों, अंदाज को अपनी सांसों में अनुभव करने वाले लोगों ने जयपुर को एक अलग बांका मिजाज दिया है. पर्यटन विशेषज्ञ संजय कौशिक कहते हैं जयपुर जिंदादिल और दीवानों का शहर है, जज्बातों का शहर, खान-पान के अनूठे मिजाज का शहर. यहां की दाल, बाटी, चूरमा की गोठें, यहां के घेवर, फीणी, रबड़ी, चौगुणी के लड्डू, जलेबी, कचौरी, पौष बड़ों के स्वाद की अपनी खासियत है. वहीं, कथक नृत्य, सुर-संगीत, मूर्तिकला, मीनाकारी, बंधेज सभी का अपना सतरंगी मिजाज है. जो जयपुर आकर बस गया, वह यहीं का होकर रह गया.'
इसी तरह नगर निगम के कांग्रेस पार्षद दल के पूर्व मुख्य सचेतक गिरिराज खंडेलवाल कहते हैं कि जयपुर अलसुबह जगता है, अपने गोविंद के साथ, लेकिन चांद उगने के बाद रातों को यह निखरता है, यही इसकी खूबी है. वे कहते हैं- जयपुर तीज-त्योहार, गंगा-जमुनी संस्कृति, हवामहल, आमेर, गलता तीर्थ की शान वाला दिलदार गुलाबी शहर है. ऐसे अनूठे शहर को स्थापना दिवस पर अनंत शुभकामनाएं और इसके महान संस्थापक सवाई जयसिंह को कोटि-कोटि नमन.