जयपुर. देश भर में वैसे तो दलितों के नाम पर वर्षों से राजनीति होती आई है. सरकार किसी की भी रही हो, दलितों के नाम पर तमाम वादे किए जाते हैं दावे किए गए हैं लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है. बात जब राजस्थान की हो तो आंकड़ें बदहाल स्थिति की कहानी (Atrocity on Dalits are not under Control In Rajasthan) कहते हैं.
धौलपुर और पाली की घटना से छिड़ी बहस: हाल ही में प्रदेश से 2 ऐसे जघन्य अपराध हुए जिसने दलितों को लेकर समाज की सोच को जाहिर किया और प्रदेश सरकार की कार्यशैली पर आघात किया. धौलपुर में दलित महिला के साथ उसके पति और बच्चों के सामने रेप किया गया. पाली में दलित युवक की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई क्योंकि वो लंबी मूंछ और अच्छे कपड़े पहनता था. ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि समाज बदला नहीं है और पुलिस प्रशासन को ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए तत्पर रहना चाहिए.
आईना दिखाते आंकड़े: अलवर के थाना गाजी , नागौर में दलित को जिंदा जलाना, हनुमानगढ़ में दलित मासूम के साथ दरिंदगी और जालौर की घटनाएं दलित सुरक्षा के प्रति उदासीनता को दर्शाती हैं. एनसीआरबी के आंकड़े लगातार ऐसे सवाल पूछ रहे हैं जो सरकार की नीति को कटघरे में खड़ा करता है. भी प्रदेश की गहलोत सरकार को आईना दिखाने के लिए काफी है. डेटा को ध्यान से परखें तो पाएंगे कि गहलोत सरकार में इनमें जबरदस्त उछाल देखने को मिला है.
सुशासन पर धब्बा: प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (CM Gehlot On Rajasthan Rape) अपने तीसरे शासन के तीन साल को बेमिसाल बताते हुए सबका साथ सबका विकास को बात कर रहे हैं लेकिन साल दर साल दलितों पर बढ़ते अत्याचार सुशासन के दावे को खारिज करते हैं. पिछले 3 साल में प्रदेश में दलितों और दलित महिलाओं के साथ रिकॉर्ड तोड़ उत्पीड़न हुआ. बलात्कार के मामलों में वृद्धि हुई , हत्या की वरदातों में इजाफा हुआ , दलित महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न की वारदातें बढ़ीं. ऐसे में सवाल लाजिमी उठता है कि गहलोत सरकार का तीन साल बेमिसाल कैसे हुआ?
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तीन साल में दलित अत्याचार की बाढ़: दलितों पर काम करने वाले एडवोकेट ताराचंद वर्मा कहते हैं कि राजस्थान में पिछले 3 सालों में बढ़े आंकड़ें बताते हैं कि यहां अत्याचार की बाढ़ सी आ गई है. महज 3 साल में 21, 000 के करीब दलित अत्याचार के मामले दर्ज हुए हैं. तुलनात्मक आंकड़ों की बात करें तो 23 फीसदी दलित अत्याचार के आंकड़े साल दर साल बढ़ रहे हैं. कहते हैं इन आंकड़ों पर अंकुश लगाने में सरकार नाकामयाब रही है. उनकी राय है कि इसकी वजह इच्छाशक्ति की कमी है. अगर सरकार गंभीर होती तो नौबत यहां तक न बढ़ती.
नाम की कमेटियां: वर्मा बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि कुछ किया नहीं गया. यकीनन कमेटियां बनीं लेकिन अफसोस इस बात का है कि बैठकें नहीं हुई. तीन साल के कार्यकाल में जिला और ब्लॉक स्तर पर दलितों के सुरक्षा और अधिकारों के लिए जो कमेटियां बनाई जाती है उनका गठन तक नहीं हुआ और सरकार के स्तर पर भी साल में दो बार जो बैठक होनी थी वो भी पिछले 3 साल में एक या दो बार ही हुई. इन सब से समझ में आता है कि राजनीतिक पार्टियां सिर्फ दलितों को अपने वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती हैं.
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मुआवजे को लेकर भी सवाल: ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच की रिपोर्ट में भी इस बात का जिक्र किया गया कि जिन महिलाओं और बालिकाओं के साथ यौन उत्पीड़न हुआ है उन्हें सरकार की और से जो कम्पन्शेसन मिलना चाहिए वो भी नहीं मिल रहा है. अधिकार मंच की राज्य समन्वयक सुमन देवठिया बताती हैं कि आंकड़े डरा रहे हैं. प्रदेश की गहलोत सरकार इन बढ़ते आंकड़ों पर दलील दे रही है कि सरकार की और से सभी शिकायतों को दर्ज करने के निर्दश दिए हुए है इसलिए ये आंकड़े बढ़े हैं. सवाल यहीं उठता है कि इन शिकायतों का निस्तारण कितना हो रहा है इस पर क्या रुख अपनाया जा रहा है. सच्चाई ये भी है कि कितने मामलों को लुलिस झूठा बता कर एफआर लगा रही है. इसे भी सरकार को देखना होगा.