बीकानेर. भुजिया और रसगुल्लों का स्वाद..गढ़ और हवेलियों का नगर..वैभवशाली पुरातत्व के लिए मशहूर बीकानेर शहर. इसे संस्कृति का संवाहक भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. बीकानेर की संस्कृति और कला का एक हिस्सा है, यह है उस्ता कला. बीकानेरी उस्ता कला पूरी दुनिया में मशहूर है.
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र जानते होंगे कि उनसे राजस्थान की उस्ता कला के बारे में सवाल अक्सर पूछा जाता है. जवाब होता है कि दुनिया में उस्ता कला के लिए बीकानेर शहर प्रसिद्ध है. उस्ता कला है क्या, यह जानना आज की पीढ़ी के लिए बहुत जरूरी है. दरअसल, करीब 500 साल से उस्ता कला देश और दुनिया में बीकानेर की पहचान बनी हुई है.
मुल्तान से आए थे कारीगर
बीकानेर रियासत के तत्कालीन राजा राय सिंह के दौर में जब जूनागढ़ किला बन रहा था, तब जरूरत पड़ी नक्काशी के काम की. राजा रायसिंह के उस दौर में जूनागढ़ में नक्काशी के काम के लिए मुल्तान से 7 कारीगर आए थे. उन्होंने स्थानीय संस्कृति को जोड़ते हुए मुगल शैली में नक्काशीदार काम पेश किया. राजा को यह काम इतना पसंद आया कि उन कलाकारों को बीकानेर में ही रख लिया गया. इस तरह बीकानेरी कला और मुल्तानी कला के संयोग से बनी उस्ता कला. इस कला का नाम उस्ता कला कैसे पड़ा, इसके पीछे भी यह कहा जाता है कि किसी काम को करने में माहिर व्यक्ति को उस्ताद कहा जाता है, धीरे-धीरे इस बेशकीमती कला को उकेरने वाले उस्तादों के काम को उस्ता कला कहा जाने लगा.
पीढ़ी दर पीढ़ी हो रहा उस्ता कला का काम
बीकानेर में रियासतकालीन मुल्तानी कारीगरों की पीढ़ियां आज तक उस्ता कला को बचाए हुए हैं. राजाओं के दौर में तो इस कला को खूब संरक्षण मिला. उस्ता कलाकार फले-फूले भी. उनकी उस्ता कारीगरी पूरी दुनिया में मशहूर हुई. लेकिन जनतंत्र आया तो सरकारें इस कला के प्रति उदासीन हो गईं. आधुनिकता की दौड़ में अब यह खास कला अपनी रोनक खोने लगी है. रोजगार के सीमित साधन होने के कारण उस्ता कारीगरों को कोई दूसरा व्यवसाय या नौकरी करनी पड़ रही है. नई पीढ़ी के कलाकारों का रुझान तो इस कला की तरफ बहुत ही क्षीण हो चुका है. ये भी सच है कि बीकानेर की पहचान बन चुकी उस्ता कला अब लुप्त हो जाने के कगार पर है.
उस्ता कला के बारे में जानिये
उस्ता एक तरह की चित्रकारी है जो ऊंट की खाल, हाथी दांत या शुतुरमुर्ग के अंडों पर उकेरी जाती है. कालान्तर में इसे संगमरमर पर भी उकेरा जाने लगा. इस कला को खास तरीके से उकेरा जाता है. सबसे पहले एक डिजाइन तैयार की जाती है. यह डिजाइन मुल्तानी मिट्टी, चूना और पीओपी (प्लास्टर ऑफ पेरिस) के घोल से तैयार होती है. इसके बाद इस डिजाइन के जरिये ऊंट की खाल को एक विशेष आकार दिया जाता है. ऊंट की खाल पर मिट्टी से की गई कारीगरी को स्थानीय बोली में मनोत कहा जाता है. ऊंट की खाल पर मनोत होने का मतलब है कलाकृति का खाका तैयार होना. इसके बाद इस पर सोने की परत और विशेष पॉलिश का काम किया जाता है. मीनाकारी के जरिये इसमें रंग भरे जाते हैं. एक खास तरह के लेमिनेशन के बाद यह कलाकृति तैयार होती है. इसी तरीके से वुड शीट फ्रेम भी बनाए जाने लगे हैं. जाहिर है कि चमड़े पर बारीक स्वर्णकारी और मीनाकारी के कारण यह कला बेशकीमती है.
मायूस हैं उस्ता के उस्ताद
हमने इस कला को लेकर उस्ता कारीगरों अजमल हुसैन और सज्जाद हुसैन से बात की. ये कारीगर बड़े मायूस हैं. सज्जाद हुसैन कहते हैं कि उस्ता कला मर रही है. सरकार को इसका संरक्षण करना चाहिए. ऐसा नहीं किया गया तो यह कला अपनी पहचान खो देगी. अजमल हुसैन का कहना है कि आज भी इस कला के कद्रदान बहुत लोग हैं, लेकिन अफसोस यह है कि कद्रदान लोग कला तक नहीं पहुंच पाते और उस्ता कारीगर अपने कद्रदानों तक नहीं जा पाते. ऐसे में इन कलाकृतियों की बिक्री बड़ी समस्या बन जाती है. कलाकारों को उनका मेहनताना तक नहीं मिल पा रहा है.
संरक्षण के प्रयास नाकाफी, सरकार बचाए कला को
अजमल कहते हैं कि पहले बीकानेर में सरकार के स्तर पर एक ट्रेनिंग सेंटर चला करता था. साथ ही उस्ता कला को स्माल इंडस्ट्रीज में भी शामिल किया गया था. लेकिन अब दोनों ही व्यवस्थाएं बंद हो गई हैं. अजमल बड़ी उम्मीद से कहते हैं कि सरकारी स्तर पर अगर एक उचित प्लेटफार्म उस्ता कलाकारों को मिल जाए, तो अच्छा होगा. उस्ता कलाकार अपने आर्ट का प्रदर्शन कर सकेंगे. सरकारी स्तर पर इन कलाकृतियों की बिक्री के लिए प्रयास किए जाने चाहिएं. कुछ सार्थक प्रयास किया गया तो यह कला बच जाएगी, वरना नई पीढ़ी के कलाकार आजीविका के लिए दूसरे विकल्प तलाश ही रहे हैं.
उस्ता कला कितनी खास है इसका उदाहण हिसामुद्दीन उस्ता हैं, ये इस कला के उस्ताद रहे हैं. बीकानेर के हिसामुद्दीन उस्ता को इस कला के लिए पद्मश्री अवार्ड से नवाजा जा चुका है. उस्ता आर्ट पूरी तरह हाथ की कारीगरी से उकेरी जाती है. इसमें मशीनों का इस्तेमाल नहीं होता. उस्ता आर्ट में सोने की नक्काशी होती है, यही कारण है कि यह बहुत महंगी पड़ती है और कलाकार को उसका वाजिब मेहनताना नहीं मिल पाता है. बीकानेर में जब कोई बड़ा आयोजन होता है तो आयोजक अपने राजनीतिक, उद्योगपति या खास मेहमानों को उस्ता कलाकृति या उस्ता फ्रेम भेंट करने में गौरव महसूस करते हैं, मेहमान भी इन कलाकृतियों को पाकर गदगद होता है.
केंद्र सरकार ने कौशल विकास में किया शामिल
हाल ही में केंद्र सरकार ने बीकानेर की उस्ता कला को कौशल विकास योजना में शामिल किया है. योजना के तहत उस्ता कलाकारों को चिन्हित किया जाएगा और प्रतिमाह तय राशि दी जाएगी. लेकिन अभी तक सिर्फ घोषणा हुई है, योजना का खाका क्या होगा, यह जानकारी नहीं है.
फिलहाल, उस्ता कला एक ऐसी आर्ट है जो सदियों से उकेरी जा रही है. हर युग में उसके कद्रदान रहे हैं. ऐसा नहीं है कि आज कला के कद्रदान कम हो गए हैं. बस कला अपने सही ठिकाने तक नहीं पहुंच पा रही है. बड़े स्तर के सरकारी और प्राइवेट एग्जीबीशन और ऑनलाइन प्रमोशन इसका रास्ता हो सकते हैं. इस अद्भुत कला का बचाया जाना चाहिए.