बीकानेर. फाल्गुनी मस्ती से सरोबार होली के त्यौहार को लेकर बीकानेर में खासा क्रेज नजर आता है. बसंत पंचमी के साथ ही बीकानेर में होली के रसिक चंग की थाप पर देर रात तक गाए जाने वाले खयाल चौमासों में नजर आते हैं. होली के साथ बीकानेर में कुछ ऐतिहासिक परंपरा भी जुड़ी हुई हैं. ऐसी ही एक परंपरा बीकानेर में पुष्करणा समाज की दो जातियों के बीच करीब 400 साल पहले हुए खूनी संघर्ष से जुड़ी हुई है. जिसे आज प्रेम और सौहार्द्र के प्रतीक के रूप में दो जातियों के बीच खेल के रूप में मनाया जाता है.
जानकारी के अनुसार पुष्करणा समाज की आचार्य और व्यास जाति के बीच मृत्युभोज को लेकर विवाद हुआ था और दोनों जातियों के बीच खूनी संघर्ष भी हुआ था. दोनों जातियों के बीच हुई इस कटुता को खत्म करने के लिए समाज की अन्य जातियों के साथ ही हर्ष जाति ने अपनी भूमिका निभाई और दोनों जातियों में परस्पर प्रेम करवाया. तब से होली के मौके पर दोनों हर्ष और व्यास जातियों के बीच डोलची मार खेल का आयोजन किया जाता है.
चमड़े से बनी डोलची
चमड़े से बनी डोलची में पानी भरकर एक दूसरे की पीठ पर फेंकने का यह क्रम करीब 2 से 3 घंटे तक लगातार चलता है. इस दौरान एक दूसरे पर कटाक्ष दिए जाते हैं. चमड़े की बनी डोलची से पीठ पर पानी मारने पर होते भयंकर दर्द को भी सहन करते हुए लोग बड़े उल्लास के साथ इसमें भाग लेते है. खेल के अंत में गुलाल उड़ाकर खेल के समापन की औपचारिक घोषणा की जाती है. वैसे तो यह दो जातियों के बीच खेले जाने वाला खेल है लेकिन अब बदलते समय में समाज की अन्य जातियों के लोग भी इस खेल में शामिल होकर होली मनाते नजर आते हैं.
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पीढ़ी दर पीढ़ी लोग होते हैं शामिल
करीब 400 साल से होली के मौके पर दोनों जातियों के बीच खेले जाने वाले इस डोलची मार खेल में पीढ़ी दर पीढ़ी दोनों ही जातियों के लोग शामिल हो रहे हैं. हर्ष जाति के राम कुमार कहते हैं कि उनके परदादा के जमाने से वह इस खेल को देखते आ रहे हैं. उसके बाद उस परंपरा को उनके दादाजी और उसके बाद उनके पिताजी और अब वे निभा रहे हैं.
गुस्से को शांत करता है पानी
राम कुमार कहते हैं कि किसी भी गुस्से को शांत करने के लिए पानी बहुत बड़ा जरिया बन सकता है और यही संदेश इस खेल में भी दिया जाने का प्रयास रहता है. उन्होंने कहा कि मनमुटाव और झगड़ा कभी भी हो सकता है लेकिन उसको वापिस ठीक करते हुए प्रेम बना रहे इस बात का संदेश इस खेल के माध्यम से दिया जाता है. आज के दौर में भी इस खेल को प्रासंगिक बताते हुए व्यास जाति के मनीष कहते हैं कि सदियों से यह परंपरा चली आ रही है. ऐसा मानना है कि यह प्रेम आगे भी बना रहे इसलिए इस खेल में भागीदारी निभाते हुए हर साल इसमें शामिल होते हैं.