भीलवाड़ा. देशभर में बालिका शिक्षा को बढ़ावा और उत्थान के लिए सरकार कई महत्वपूर्ण योजनाएं बनाती है, लेकिन कड़वा सच यह है कि आज भी बेटियों को जन्म के बाद अपनाने में संकोच किया जा रहा है. इसकी बानगी भीलवाड़ा के महात्मा गांधी अस्पताल की इकाई मातृ और शिशु चिकित्सालय का पालना बयां कर रहा है.
कचरे में न फेंके, इसलिए लगाया गया पालना...
बाल कल्याण समिति ने साल 2014 में महात्मा गांधी अस्पताल ने स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर पालना लगवाया, ताकि लोग कचरे और नालियों में नवजात को नही फेंके.
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- महात्मा गांधी अस्पताल में पिछले 6 सालों में पालना में आए नवजातों में से 7 बच्चे दम तोड़ चुके हैं, जिसमें 6 बेटियां शामिल हैं.
- पिछले साल बस की बात करें, तो 2019 में 4 बेटियों को पालने में छोड़ी गई थी, जिसमें से 2 की मौत हो गई और बाकी 2 को महिला और बाल कल्याण समिति ने गोद दे दिया.
महिला बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष डॉ. सुमन त्रिवेदी से बताया कि, अभी भी 21वीं सदी में बेटी और बेटों में फर्क देखा जा रहा है. उन्होंने कहा कि साल 2014 में स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर भीलवाड़ा के महात्मा गांधी अस्पताल ने पालना गृह खोला गया. इस पालना गृह में अब तक 18 बच्चों को परिजन छोड़कर जा चुके हैं.
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आधुनिक भारत में कहने को तो बेटा और बेटी में फर्क खत्म हो चुका है, लेकिन भीलवाड़ा का यह कड़वा सच इस बात की ओर इशारा करता है कि आज भी बेटियों को बेटों की तुलना में कमतर ही आंका जा रहा है. इस अस्पताल से सामने आए आंकड़े काफी निराशाजनक है.