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मिट्टी के दीपक वाली दिवाली : डिस्पोजल बर्तनों ने चौपट किया कुम्हारों का पैतृक धंधा..दिवाली पर ही टिकी हैं उम्मीदें - Local Vocal on Diwali

आधुनिकता की दौड़ में परंपरा पिछड़ती जा रही है. दिवाली पर मिट्टी के दीपकों को चाइनीज लाइटिंग, प्लास्टिक आइटम्स और डिस्पोजन सामान से मुकाबला करना पड़ता है. मॉल कल्चर के दौर में लोग मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं. जिसका असर उन लोगों पर पड़ रहा है, जो परंपरागत रूप से मिट्टी के दीपक बनाने का काम करते आए हैं.

मिट्टी के दीपक वाली दिवाली
मिट्टी के दीपक वाली दिवाली
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Published : Oct 27, 2021, 5:14 PM IST

Updated : Oct 27, 2021, 10:58 PM IST

भरतपुर. 'माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय..एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय..' कबीर दास की ये पंक्तियां आज भी सार्थक हैं. मिट्टी के दीपक, मटके और तमाम बर्तन तैयार करने वाले कुम्हारों के जीवन पर मानो गर्दिश की धूल जम गई है.

कुम्हार सालभर दिवाली का इंतजार करते हैं. ताकि उनके मिट्टी के दीपक और बर्तनों की अच्छी बिक्री हो जाए और उनके घर में भी खुशियां आएं. पूरे साल कुम्हार समाज के लोगों के मिट्टी के दीपक और बर्तन नाममात्र के बिक पाते हैं. ऐसे में ये लोग सालभर खुशियों के इंतजार में बैठे रहते हैं.

मिट्टी के दीपक वाली दिवाली

लक्ष्मण प्रसाद प्रजापत ने बताया कि एक वक्त था जब सभी लोग त्योहारों और सामाजिक आयोजनों के दौरान मिट्टी के बर्तनों और दीपकों का ही इस्तेमाल करते थे. लेकिन समय के साथ प्लास्टिक और डिस्पोजल कप, प्लेट, दीपक आदि का चलन बढ़ गया है, इससे कुम्हारों का धंधा चौपट हो गया है. अब सालभर थोड़ी बहुत मिट्टी के दीपक और बर्तनों की बिक्री होती है, नहीं तो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं.

लक्ष्मण प्रसाद ने बताया कि समाज के सभी लोगों को दिवाली का बेसब्री से इंतजार रहता है क्योंकि साल भर में यही एक अवसर ऐसा होता है जब मिट्टी के दीपकों और अन्य बर्तनों की बिक्री काफी अच्छी हो जाती है. इसी से साल भर गुजर-बसर चलती है.

मिट्टी के दीपक वाली दिवाली
इस बार दिवाली से उम्मीद

पढ़ें- लोगों के लिए प्रेरणा दिव्यांग मुहम्मद अकील, दीपावली के त्यौहार पर बेचते हैं लालटेन

कोरोना काल में भारी संकट

योगेश कुमार प्रजापत ने बताया कि कोरोना संक्रमण काल के बीते 2 वर्ष बहुत बुरे गुजरे. बीते वर्षों में मिट्टी के जो भी बर्तन बनाए वो घर में रखे रहे. उनमें से कुछ भी बिक्री नहीं हो पाई. ऐसे में परिवार पालना भी मुश्किल हो गया था. इस बार दिवाली पर बाजार में ठीक ठाक रोनक है और बिक्री भी अच्छी हो रही है.

मिट्टी के लिए मशक्कत

लक्ष्मण प्रसाद और योगेश कुमार प्रजापत ने बताया कि शहर में समाज के करीब 400 परिवार हैं और सभी अपने पैतृक धंधे पर निर्भर हैं. समाज के लोगों को इस समय सबसे बड़ी परेशानी मिट्टी की हो रही है. बर्तन बनाने के लिए आसानी से मिट्टी उपलब्ध नहीं हो पा रही है, जो मिट्टी उपलब्ध हो रही है वह बहुत महंगे दामों पर मिल रही है.

मिट्टी के दीपक वाली दिवाली
महंगी पड़ रही है मिट्टी

योगेश ने बताया कि बर्तन बनाने के लिए गधों से मिट्टी सप्लाई होती है. एक गधे पर 5 से 6 किलो मिट्टी आती है, जिसकी कीमत करीब 70 रुपए होती है. यानी एक किलो मिट्टी 10 से 12 रुपए में मिल पा रही है. लक्ष्मण प्रसाद और योगेश ने सरकार से अपील की है कि कुम्हार समाज के पैतृक धंधे को जीवित रखने के लिए मिट्टी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए. इस मांग को लेकर समाज के लोग कई बार जिला कलेक्टर और राज्यमंत्री डॉ सुभाष गर्ग से भी मिल चुके हैं.

भरतपुर. 'माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय..एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय..' कबीर दास की ये पंक्तियां आज भी सार्थक हैं. मिट्टी के दीपक, मटके और तमाम बर्तन तैयार करने वाले कुम्हारों के जीवन पर मानो गर्दिश की धूल जम गई है.

कुम्हार सालभर दिवाली का इंतजार करते हैं. ताकि उनके मिट्टी के दीपक और बर्तनों की अच्छी बिक्री हो जाए और उनके घर में भी खुशियां आएं. पूरे साल कुम्हार समाज के लोगों के मिट्टी के दीपक और बर्तन नाममात्र के बिक पाते हैं. ऐसे में ये लोग सालभर खुशियों के इंतजार में बैठे रहते हैं.

मिट्टी के दीपक वाली दिवाली

लक्ष्मण प्रसाद प्रजापत ने बताया कि एक वक्त था जब सभी लोग त्योहारों और सामाजिक आयोजनों के दौरान मिट्टी के बर्तनों और दीपकों का ही इस्तेमाल करते थे. लेकिन समय के साथ प्लास्टिक और डिस्पोजल कप, प्लेट, दीपक आदि का चलन बढ़ गया है, इससे कुम्हारों का धंधा चौपट हो गया है. अब सालभर थोड़ी बहुत मिट्टी के दीपक और बर्तनों की बिक्री होती है, नहीं तो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं.

लक्ष्मण प्रसाद ने बताया कि समाज के सभी लोगों को दिवाली का बेसब्री से इंतजार रहता है क्योंकि साल भर में यही एक अवसर ऐसा होता है जब मिट्टी के दीपकों और अन्य बर्तनों की बिक्री काफी अच्छी हो जाती है. इसी से साल भर गुजर-बसर चलती है.

मिट्टी के दीपक वाली दिवाली
इस बार दिवाली से उम्मीद

पढ़ें- लोगों के लिए प्रेरणा दिव्यांग मुहम्मद अकील, दीपावली के त्यौहार पर बेचते हैं लालटेन

कोरोना काल में भारी संकट

योगेश कुमार प्रजापत ने बताया कि कोरोना संक्रमण काल के बीते 2 वर्ष बहुत बुरे गुजरे. बीते वर्षों में मिट्टी के जो भी बर्तन बनाए वो घर में रखे रहे. उनमें से कुछ भी बिक्री नहीं हो पाई. ऐसे में परिवार पालना भी मुश्किल हो गया था. इस बार दिवाली पर बाजार में ठीक ठाक रोनक है और बिक्री भी अच्छी हो रही है.

मिट्टी के लिए मशक्कत

लक्ष्मण प्रसाद और योगेश कुमार प्रजापत ने बताया कि शहर में समाज के करीब 400 परिवार हैं और सभी अपने पैतृक धंधे पर निर्भर हैं. समाज के लोगों को इस समय सबसे बड़ी परेशानी मिट्टी की हो रही है. बर्तन बनाने के लिए आसानी से मिट्टी उपलब्ध नहीं हो पा रही है, जो मिट्टी उपलब्ध हो रही है वह बहुत महंगे दामों पर मिल रही है.

मिट्टी के दीपक वाली दिवाली
महंगी पड़ रही है मिट्टी

योगेश ने बताया कि बर्तन बनाने के लिए गधों से मिट्टी सप्लाई होती है. एक गधे पर 5 से 6 किलो मिट्टी आती है, जिसकी कीमत करीब 70 रुपए होती है. यानी एक किलो मिट्टी 10 से 12 रुपए में मिल पा रही है. लक्ष्मण प्रसाद और योगेश ने सरकार से अपील की है कि कुम्हार समाज के पैतृक धंधे को जीवित रखने के लिए मिट्टी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए. इस मांग को लेकर समाज के लोग कई बार जिला कलेक्टर और राज्यमंत्री डॉ सुभाष गर्ग से भी मिल चुके हैं.

Last Updated : Oct 27, 2021, 10:58 PM IST
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