अजमेर. फाग के गीत चंग की थाप के बिना अधूरे हैं. दो दशक पहले तक शहर, कस्बों और गांव की गली मोहल्लों में होली से 15 दिन पहले फाग उत्सव शुरू हो जाता था. फाग के गीतों से माहौल सराबोर रहता था. लेकिन बदलते दौर के साथ फाग उत्सव के दिन की तरह फाग मनाने की लोक संस्कृति भी सिमट गई है. टीवी, मोबाइल के दौर में सदियों पुरानी फाग मनाने की लोक संस्कृति अब धीरे धीरे खत्म हो रही है.
अजमेर में ईटीवी भारत आपको रूबरू करवा रहा है फाग उत्सव मनाने का वह तरीका जो सदियों से हमारी लोक संस्कृति का अहम हिस्सा रहा है. जिसमे बॉलीवुड के गानों का तड़का नहीं, बल्कि शुद्ध लोक संस्कृति की झनकार है. फाग में चंग (unique tradition of Phaag song and chang) के साथ गीत है, मस्ती मजाक है, बुजुर्गों का सम्मान है. वहीं युवाओं की हंसी ठिठोली के संग खूब सारा प्यार है. हालांकि समय के साथ अब इसका स्वरूप भी काफी हद तक सिमट गया है.
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होली से पहले फाग उत्सव मनाने की परंपरा रही है. फाग उत्सव में चंग की थाप पर लोक गीत गाए जाते हैं. इन गीतों में देवर भाभी की नोक झोंक, स्नेह औऱ प्रेम को गीत के माध्यम से गया जाता है. वहीं राधा कृष्ण की ओर से खेली गई होली का गुणगान किया जाता है. फाग के गीत लोक संस्कृति का हिस्सा हैं. वर्तमान में फाग उत्सव के बड़े-बड़े आयोजन किए जाते हैं लेकिन चंग की परंपरा शहर कस्बों और ढाणियों की हताई पर अलग-अलग समूह की और से निभाई जाती है. फाग मनाने की परंपरा के साथ होली दहन के बाद ढूंढ की परंपरा भी निभाई जाती है.
![Phaag song and Chang beat on Holi](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/14758983_thum.png)
सिमट गई विशुद्ध फाग उत्सव परंपरा
होली से 15 दिन पहले फाग मनाने की परंपरा शुरू हो जाती है लेकिन अब यह सिमटने लगी है. अब 5 या 7 दिन पहले से चंग बजना शुरू होता है. दिन भर काम धंधे से घर लौटने के बाद खाना पीना खाकर लोग हताई पर जमा होते हैं और चंग बजाकर फाग के गीत गाते हैं. इस मस्ती के माहौल में युवा नाचते गाते एक दूसरे के साथ मजाक करते हैं. खास बात यह है कि फाग मनाने की यह केवल एक परंपरा नहीं बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सम्मान, प्रेम और भाईचारा कायम रखने का एक महत्वपूर्ण जरिया भी है.
दो दशक में आया काफी बदलाव
वर्तमान समय में टीवी और मोबाइल ने फाग की प्राचीन लोक संस्कृति की परंपरा को काफी पीछे धकेल दिया है. अब चंद ही इलाकों में देर शाम चंग की आवाज और फाग के गीत सुनाई देते हैं. ईटीवी भारत ने अजमेर में डिग्गी चौक में डिग्गी तालाब के समीप मंदिर की सीढ़ियों पर सर्वे श्री रेगरान पंचायत चाराबारी की ओर से फाग उत्सव के तहत फाग की परंपरा को निभाते लोगों से बातचीत की. लोगों ने कहा कि फाग उत्सव में 15 दिन तक हर रोज देर शाम चंग बजाने और फाग के गीत गाने के अलावा गैर नृत्य किया जाता था. होलिका दहन के दूसरे दिन अलग-अलग स्वांग रचकर खूब मस्ती होती थी. बुजुर्ग मदनलाल खेतावत बताते हैं कि दो दशकों में काफी बदलाव आ गया है. पहले चंग की थाप बजते ही लोग जुट जाते थे लेकिन वह बात नहीं रह गई.
![Phaag song and Chang beat on Holi](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/14758983_thum1.png)
1952 से बजा रहे चंग
मदनलाल खेतावत ने बताया कि काम धंधे की वजह से लोग घर पर लेट आते हैं. टीवी मोबाइल से भी काफी फर्क पड़ा है. खेतावत बताते हैं कि फाग मनाने की परंपरा अभी तक कायम रखी हुई है. वह बताते हैं कि वह खुद सन 1962 से हर वर्ष फाग में चंग बजा रहे हैं. उन्होंने बताया कि होलिका दहन के बाद ढूंढ की परंपरा भी होती है. बुजुर्ग रामचंद्र बताते हैं कि पहले और अब में फाग मनाने में रात दिन का फर्क पड़ गया है. पहले लोग आपस में प्रेम के साथ बैठते थे लेकिन अब लोगों के बीच दूरियां बढ़ गई है. फाग के दौरान की जाने वाली हंसी मजाक भी अब लोगों को सहन नहीं होती है. कई बार तो लोग झगड़ पड़ते हैं. जबकि पहले ऐसा नहीं था. लोग आपस में बैठकर गिले-शिकवे दूर किया करते थे.
कुछ जगह आज भी जीवित है परंपरा
बुजुर्ग रामचंद्र ने बताया कि पुरानी बसावट में कुछ जगहों पर अभी भी फाग मनाने की प्राचीन परंपरा जीवित है. नई बसावट में तो लोग प्राचीन परंपरा को जानते ही नहीं हैं. उन्हें तो यह भी नहीं पता कि चंग क्या होता है?. लोग टीवी में देख कर बच्चों को बताते हैं कि यह चंग है. स्थानीय निवासी अरविंद धोलखेड़िया बताते हैं कि होली के 15 दिन पहले गैर नृत्य होता था जिसमें चंग बजाए जाते थे. उन्होंने कहा कि टीवी मोबाइल और कंप्यूटर जब से जीवन का हिस्सी बने तब से युवा पीढ़ी लोक संस्कृति से दूर हो गई है.
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लोगों को अब टीवी, मोबाइल और कंप्यूटर पर बॉलीवुड के गाने या रियलिटी शो देखना ज्यादा पसंद आने लगा है. इस कारण धीरे-धीरे विशुद्ध रूप से प्राचीन तरीके से मनाया जाने वाला फाग उत्सव की परंपरा अब धीरे-धीरे सिमट गई है. फाग उत्सव के दौरान बहन-बेटियां पीहर आती थीं, उन्हें होली तक रोक लिया जाता था. फाग उत्सव की विशुद्ध परंपरा को कायम रखने और नई पीढ़ी को प्रेरित करने के उद्देश्य से होली के 7 दिन पहले से चंग बजाकर फाग के गीत गाए जाते हैं. ताकि नई पीढ़ी को हमारी लोक संस्कृति के बारे में पता चले.
यह है ढूंढ की परंपरा
होली से पहले फाग के गीत गाए जाते हैं. चंग की थाप पर समूह में बैठे हुए लोग हंसी ठिठोली भी करते हैं, वहीं इस बीच होलिका दहन के बाद ढूंढ की परंपरा भी निभाई जाती है. समाज के लोग अपने क्षेत्र के उन घरों में जाते हैं जिस घर में नए मेहमान यानी बच्चे या बच्ची का जन्म हुआ रहता है. वहां फाग के गीत गाने के साथ ही नए मेहमान का समाज के लोग नामकरण करते हैं. नए मेहमान के परिजन समाज के लोगों का अभिनंदन कर उनका सत्कार करते हैं. इस दौरान समाज के लोग नए मेहमान के परिजनों से कुछ पैसा भी लेते हैं जो समाज के कार्यों में प्रयोग किया जाता है.