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अनूठी परंपरा : दिवाली पर गुर्जर समाज के लोग करते हैं पूर्वजों का श्राद्ध

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Published : Nov 3, 2021, 12:38 AM IST

हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा त्योहार दिवाली माना गया है. लोग अपनी क्षमता और आस्था के साथ दीपोत्सव को मनाते हैं. समाज में एक ऐसा वर्ग भी है जो पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण कर दिवाली मनाता है. हम बात कर रहे हैं गुर्जर समाज की. इस समाज में दिवाली पर सामूहिक रूप से झील, नदी, तालाब पर अपने पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण करने की परंपरा है.

दिवाली पर गुर्जर समाज के लोग करते हैं पूर्वजों का श्राद्ध
दिवाली पर गुर्जर समाज के लोग करते हैं पूर्वजों का श्राद्ध

जयपुर : राजस्थान के अजमेर के पुष्कर में दिवाली के दिन श्राद्ध मनाने की अनूठी परंपरा है. यह परंपरा सिर्फ गुर्जर समाज की ओर से निभाई जाती है. पूर्वजों का श्राद्ध करने का यह रिवाज सिर्फ अजमेर या पुष्कर में ही नहीं है, बल्कि पूरे भारत में फैले गुर्जर समाज के लोगों की यही परंपरा है.

इस रिवाज को जानने वाले लोग कहते हैं कि प्राचीन समय से ही गुर्जर समाज पशुपालन एवं दुग्ध व्यवसाय करता आया है. वे व्यवसाय के लिये सुदूर राज्यों में पशुओं को चराने चले जाते थे. दिवाली पर्व ही ऐसा अवसर होता था जब ये पशुपालक अपने घर लौटते थे. श्राद्ध पक्ष के दौरान परदेस रहने वाले ये पशुपालक लौटकर दिवाली के एक दिन ही पूर्वजों का श्राद्ध मना लिया करते थे.

अनूठी परंपरा

ऐसे शुरू हुई यह अनूठी परंपरा

राजस्थान गुर्जर महासभा के उपाध्यक्ष हरि सिंह ने बताया कि गुर्जर समाज उत्तर भारत में ही नहीं, बल्कि दक्षिण तक फैला हुआ है. भगवान श्रीराम जब लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे तो सबसे पहले उन्होंने अपने पिता महाराजा दशरथ का श्राद्ध किया था. कई लोगों ने उन्हें श्राद्ध करते हुए देखा था. इनमें पशुपालक गुर्जर समाज के लोग भी शामिल थे. तब से ही गुर्जर समाज ने दीपावली के पावन दिन को ही पूर्वजों की श्राद्ध के लिए निर्धारित कर लिया.

खीर चूरमे का लगता है भोग

हरि सिंह ने बताया कि गुर्जर समाज के लोग कहीं भी रहें, वे दिवाली के दिन खीर चूरमा का भोग बनाते हैं. थाली में भोग लेकर परिवार और रिश्तेदार झील, तालाब या नदी किनारे एकत्रित होते हैं, इसके बाद सभी की थाली से थोड़ा-थोड़ा भोग एक थाली में निकाल लिया जाता है. सभी लोग मिलकर अपने पूर्वजों को याद करते हैं. इसके बाद घास की एक बेल बनाई जाती है, जिसे पानी में डाला जाता है और परिवार के लोग इस बेल को हाथों से छूते हैं. मान्यता है कि बेल को छूने से भगवान देवनारायण और पूर्वजों का उन्हें आशीर्वाद मिलता है.

पढ़ें - अयोध्या में लेजर लाइट्स से जगमगाई राम की पैड़ी, सतरंगी छटा देख हो जाएंगे पुलकित

बढ़ता है मेल-जोल

हरि सिंह ने बताया कि नदी तालाब नहीं होने पर खेत के कुएं से धोरे में पानी निकाल कर भी श्राद्ध मनाने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है. पूर्वजों को भोग लगाने के बाद समाज के लोग आपस में मिलकर वहीं पर भोजन भी करते हैं. उन्होंने बताया कि इस तरह परिवार और रिश्तेदारों को एकत्रित होने का अवसर मिलता है. इससे परिवार में मेल-जोल बढ़ता है और समाज संगठित होता है.

स्थानीय गुर्जर समाज से आने वाले भागचंद ने बताया कि पीढ़ी दर पीढ़ी दिवाली के दिन पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण किये जाने की परंपरा है. अजमेर जिले में जहां भी गांव ढाणी में गुर्जर समाज के लोग रहते हैं, वे दिवाली के दिन अपने पूर्वजों को याद करना और उनका श्राद्ध मनाना नहीं भूलते. हमने अपने पिता और दादा के समय से ही परिवार में दिवाली के दिन पूर्वजों का श्राद्ध मनाने की परंपरा देखी है

उन्होंने कहा कि इस दिन परिवार में जितने भी भाई, चाचा, ताऊ का परिवार है, वे सभी लोग एक जगह पर पूर्वजों का आशीर्वाद लेकर एक दूसरे के घरों में बनाया हुआ भोजन करते हैं, इससे आपस में प्रेम बढ़ता है. उन्होंने बताया कि इस दौरान काचरे (एक प्रकार की सब्जी) की बेल भी लगाई जाती है. ये दुआ की जाती है कि जिस प्रकार बेल बढ़ती है, उसी प्रकार परिवार में वंश भी बढ़ता रहे.

जयपुर : राजस्थान के अजमेर के पुष्कर में दिवाली के दिन श्राद्ध मनाने की अनूठी परंपरा है. यह परंपरा सिर्फ गुर्जर समाज की ओर से निभाई जाती है. पूर्वजों का श्राद्ध करने का यह रिवाज सिर्फ अजमेर या पुष्कर में ही नहीं है, बल्कि पूरे भारत में फैले गुर्जर समाज के लोगों की यही परंपरा है.

इस रिवाज को जानने वाले लोग कहते हैं कि प्राचीन समय से ही गुर्जर समाज पशुपालन एवं दुग्ध व्यवसाय करता आया है. वे व्यवसाय के लिये सुदूर राज्यों में पशुओं को चराने चले जाते थे. दिवाली पर्व ही ऐसा अवसर होता था जब ये पशुपालक अपने घर लौटते थे. श्राद्ध पक्ष के दौरान परदेस रहने वाले ये पशुपालक लौटकर दिवाली के एक दिन ही पूर्वजों का श्राद्ध मना लिया करते थे.

अनूठी परंपरा

ऐसे शुरू हुई यह अनूठी परंपरा

राजस्थान गुर्जर महासभा के उपाध्यक्ष हरि सिंह ने बताया कि गुर्जर समाज उत्तर भारत में ही नहीं, बल्कि दक्षिण तक फैला हुआ है. भगवान श्रीराम जब लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे तो सबसे पहले उन्होंने अपने पिता महाराजा दशरथ का श्राद्ध किया था. कई लोगों ने उन्हें श्राद्ध करते हुए देखा था. इनमें पशुपालक गुर्जर समाज के लोग भी शामिल थे. तब से ही गुर्जर समाज ने दीपावली के पावन दिन को ही पूर्वजों की श्राद्ध के लिए निर्धारित कर लिया.

खीर चूरमे का लगता है भोग

हरि सिंह ने बताया कि गुर्जर समाज के लोग कहीं भी रहें, वे दिवाली के दिन खीर चूरमा का भोग बनाते हैं. थाली में भोग लेकर परिवार और रिश्तेदार झील, तालाब या नदी किनारे एकत्रित होते हैं, इसके बाद सभी की थाली से थोड़ा-थोड़ा भोग एक थाली में निकाल लिया जाता है. सभी लोग मिलकर अपने पूर्वजों को याद करते हैं. इसके बाद घास की एक बेल बनाई जाती है, जिसे पानी में डाला जाता है और परिवार के लोग इस बेल को हाथों से छूते हैं. मान्यता है कि बेल को छूने से भगवान देवनारायण और पूर्वजों का उन्हें आशीर्वाद मिलता है.

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बढ़ता है मेल-जोल

हरि सिंह ने बताया कि नदी तालाब नहीं होने पर खेत के कुएं से धोरे में पानी निकाल कर भी श्राद्ध मनाने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है. पूर्वजों को भोग लगाने के बाद समाज के लोग आपस में मिलकर वहीं पर भोजन भी करते हैं. उन्होंने बताया कि इस तरह परिवार और रिश्तेदारों को एकत्रित होने का अवसर मिलता है. इससे परिवार में मेल-जोल बढ़ता है और समाज संगठित होता है.

स्थानीय गुर्जर समाज से आने वाले भागचंद ने बताया कि पीढ़ी दर पीढ़ी दिवाली के दिन पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण किये जाने की परंपरा है. अजमेर जिले में जहां भी गांव ढाणी में गुर्जर समाज के लोग रहते हैं, वे दिवाली के दिन अपने पूर्वजों को याद करना और उनका श्राद्ध मनाना नहीं भूलते. हमने अपने पिता और दादा के समय से ही परिवार में दिवाली के दिन पूर्वजों का श्राद्ध मनाने की परंपरा देखी है

उन्होंने कहा कि इस दिन परिवार में जितने भी भाई, चाचा, ताऊ का परिवार है, वे सभी लोग एक जगह पर पूर्वजों का आशीर्वाद लेकर एक दूसरे के घरों में बनाया हुआ भोजन करते हैं, इससे आपस में प्रेम बढ़ता है. उन्होंने बताया कि इस दौरान काचरे (एक प्रकार की सब्जी) की बेल भी लगाई जाती है. ये दुआ की जाती है कि जिस प्रकार बेल बढ़ती है, उसी प्रकार परिवार में वंश भी बढ़ता रहे.

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