ETV Bharat / bharat

आजादी का अमृत महोत्सव : आज भी भाईचारे की मजबूत मिसाल है जामा मस्जिद - History of Jama Masjid

आज भी विभिन्न मौकों पर जामा मस्जिद की नींव भारतीयता के ताने-बाने को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. आज जब आजाद भारत 75वें साल में प्रवेश कर रहा है, ऐसे में आजादी पर्व का जश्न बिना जामा मस्जिद पर नाज के अधूरा है. हिंदुस्तान अपनी जिन इमारतों पर नाज़ करता है, उनमें से एक है जामा मस्जिद. यूं तो मुस्लिमों के इस इबादत स्थल की नींव 1656 में पड़ी थी, लेकिन तब से अब तक यह भारत के भाईचारे की नींव को मजबूत करता आया है.

Magnificent Jama Masjid
जामा मस्जिद
author img

By

Published : Jan 30, 2022, 6:06 AM IST

नई दिल्ली: आइए आपको बताते हैं कि कैसे एक दौर में दिल्ली की जामा मस्जिद एक धार्मिक स्थान होने के साथ क्रांति की मशाल लिए निकले लोगों के लिए पनाह लेने का जरिया बन गई. भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम में ब्रिटिश सैनिकों से लड़ने वाले हिन्दुस्तानी सैनिकों को भी जामा मस्जिद में पनाह मिली थी. जिसके बाद अंग्रेजों ने जामा मस्जिद पर अधिकार कर लिया था. क्रांति का केन्द्र रही जामा मस्जिद लंबे समय तक बंद रही. बाद में 1862 में जाकर इसे नमाज के लिए वापस दिया गया.

आज भी भाईचारे की मजबूत नींव की मिसाल है जामा मस्जिद

क्रांति के अलावा जब देश में लोगों पर मुसीबत आई. देश ने विभाजन की पीड़ा को भोगा. इसी दौरान मुस्लिम समुदाय को देश की असली पहचान करवाने वाला वो संबोधन, जिसके बाद मौलाना अबुल कलाम आजाद देश की आवाज़ बन कर उभरे, भी यहीं पर हुआ था. इसी जामा मस्जिद के अहाते से आजाद ने कहा था कि 'अब हिंदुस्तान की सियासत का रुख बदल चुका है. मुस्लिम लीग के लिए यहां कोई जगह नहीं है. अब ये हमारे दिमागों पर है कि हम अच्छे अंदाज़-ए-फ़िक्र में सोच भी सकते हैं या नहीं. इसी ख्याल से मैंने नवंबर के दूसरे हफ्ते में हिंदुस्तान के मुसलमान रहनुमाओं को देहली में बुलाने का न्योता दिया है. मैं तुमको यकीन दिलाता हूं. हमको हमारे सिवा कोई फायदा नहीं पहुंचा सकता.'

अबुल कलाम आजाद के अलावा यहां से एक गैर मुस्लिम शख्सियत ने भी ऐतिहासिक भाषण दिया था. अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई के दौरान जब भारत के हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की गांठ कमजोर पड़ने लगी थी, तब इसी जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर खड़े होकर स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती ने गंगा-जमुनी तहजीब की असली भारतीय पहचान की आवाज बुलंद की थी. हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए तब दिया गया श्रद्धानंद सरस्वती का भाषण आज भी प्रांसगिक है. इतिहास इसे भी याद रखेगा कि जामा मस्जिद के मंच से किसी हिंदू संत ने वैदिक मंत्रोच्चारण किया था.

आज भी विभिन्न मौकों पर जामा मस्जिद की नींव भारतीयता के ताने-बाने को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. आज जब आजाद भारत 75वें साल में प्रवेश कर रहा है, ऐसे में आजादी पर्व का जश्न बिना जामा मस्जिद पर नाज के अधूरा है. हिंदुस्तान अपनी जिन इमारतों पर नाज़ करता है, उनमें से एक है जामा मस्जिद. यूं तो मुस्लिमों के इस इबादत स्थल की नींव 1656 में पड़ी थी, लेकिन तब से अब तक यह भारत के भाईचारे की नींव को मजबूत करता आया है.

आज जब भारत आजादी के 75वें साल में प्रवेश कर रहा है तो हमें जरूरत है, उन प्रतीकों की, उन संदेशों की, जो भारतीयता के ताने-बाने को मजबूती से बांधे रखें. ऐसे में जामा मस्जिद एक अप्रतिम उदाहरण हो सकती है.

बनावट की बात करें तो यह प्राचीनतम मस्जिद कारीगरी और नक्कासी के मामले में आधुनिकता को भी आईना दिखाती है. पुरानी दिल्‍ली की यह विशालतम मस्जिद मुगल शासक शाहजहां के उत्‍कृष्‍ट वास्‍तुकला और सौंदर्य बोध का नमूना है. 65 मीटर लम्‍बी और 35 मीटर चौड़ी इस मस्जिद में एक साथ 25 हजार लोग बैठकर नमाज पढ़ सकते हैं. इसका आंगन ही 100 वर्ग मीटर का है. मस्जिद के चार प्रवेश द्वार, चार स्‍तंभ और दो मीनारें हैं.

यह भी पढ़ें- Chandni Chowk : सदियों बाद भी बरकरार है चांदनी चौक की चमक

पूरी मस्जिद का निर्माण लाल सेंड स्टोन और सफेद संगमरमर से किया गया है. सफेद संगमरमर के तीन गुम्‍बदों पर बनी काले रंग की पट्टियां दूर से ही आकर्षित करती हैं. मस्जिद के पश्चिमी हिस्से में मुख्‍य इबादत स्थल है. यहां ऊंचे-ऊंचे मेहराब बनाए गए हैं, जो 260 खम्‍भों पर हैं और इनके साथ लगभग 15 संगमरमर के गुम्‍बद हैं. मस्जिद के दक्षिणी हिस्से के मीनारों का परिसर 1076 वर्ग फीट चौड़ा है. इतिहासकारों की मानें तो तब शाहजहां ने इस मस्जिद का निर्माण 10 करोड़ रुपए में कराया था और इसे बनाने में 5 हजार शिल्पकार लगे थे.

भले ही आम हिंदुस्तानी की नज़र में इस मस्जिद की पहचान नमाज पढ़ने वाली जगह से हो, लेकिन इसके अहाते से समय-समय पर ऐसे संदेश निकलते रहे हैं, जो भारत के टूटने और बिखरने के अंदेशों को दूर करते हैं. भारत को अपनी ऐसी धरोहरों पर गर्व है.

नई दिल्ली: आइए आपको बताते हैं कि कैसे एक दौर में दिल्ली की जामा मस्जिद एक धार्मिक स्थान होने के साथ क्रांति की मशाल लिए निकले लोगों के लिए पनाह लेने का जरिया बन गई. भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम में ब्रिटिश सैनिकों से लड़ने वाले हिन्दुस्तानी सैनिकों को भी जामा मस्जिद में पनाह मिली थी. जिसके बाद अंग्रेजों ने जामा मस्जिद पर अधिकार कर लिया था. क्रांति का केन्द्र रही जामा मस्जिद लंबे समय तक बंद रही. बाद में 1862 में जाकर इसे नमाज के लिए वापस दिया गया.

आज भी भाईचारे की मजबूत नींव की मिसाल है जामा मस्जिद

क्रांति के अलावा जब देश में लोगों पर मुसीबत आई. देश ने विभाजन की पीड़ा को भोगा. इसी दौरान मुस्लिम समुदाय को देश की असली पहचान करवाने वाला वो संबोधन, जिसके बाद मौलाना अबुल कलाम आजाद देश की आवाज़ बन कर उभरे, भी यहीं पर हुआ था. इसी जामा मस्जिद के अहाते से आजाद ने कहा था कि 'अब हिंदुस्तान की सियासत का रुख बदल चुका है. मुस्लिम लीग के लिए यहां कोई जगह नहीं है. अब ये हमारे दिमागों पर है कि हम अच्छे अंदाज़-ए-फ़िक्र में सोच भी सकते हैं या नहीं. इसी ख्याल से मैंने नवंबर के दूसरे हफ्ते में हिंदुस्तान के मुसलमान रहनुमाओं को देहली में बुलाने का न्योता दिया है. मैं तुमको यकीन दिलाता हूं. हमको हमारे सिवा कोई फायदा नहीं पहुंचा सकता.'

अबुल कलाम आजाद के अलावा यहां से एक गैर मुस्लिम शख्सियत ने भी ऐतिहासिक भाषण दिया था. अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई के दौरान जब भारत के हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की गांठ कमजोर पड़ने लगी थी, तब इसी जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर खड़े होकर स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती ने गंगा-जमुनी तहजीब की असली भारतीय पहचान की आवाज बुलंद की थी. हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए तब दिया गया श्रद्धानंद सरस्वती का भाषण आज भी प्रांसगिक है. इतिहास इसे भी याद रखेगा कि जामा मस्जिद के मंच से किसी हिंदू संत ने वैदिक मंत्रोच्चारण किया था.

आज भी विभिन्न मौकों पर जामा मस्जिद की नींव भारतीयता के ताने-बाने को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. आज जब आजाद भारत 75वें साल में प्रवेश कर रहा है, ऐसे में आजादी पर्व का जश्न बिना जामा मस्जिद पर नाज के अधूरा है. हिंदुस्तान अपनी जिन इमारतों पर नाज़ करता है, उनमें से एक है जामा मस्जिद. यूं तो मुस्लिमों के इस इबादत स्थल की नींव 1656 में पड़ी थी, लेकिन तब से अब तक यह भारत के भाईचारे की नींव को मजबूत करता आया है.

आज जब भारत आजादी के 75वें साल में प्रवेश कर रहा है तो हमें जरूरत है, उन प्रतीकों की, उन संदेशों की, जो भारतीयता के ताने-बाने को मजबूती से बांधे रखें. ऐसे में जामा मस्जिद एक अप्रतिम उदाहरण हो सकती है.

बनावट की बात करें तो यह प्राचीनतम मस्जिद कारीगरी और नक्कासी के मामले में आधुनिकता को भी आईना दिखाती है. पुरानी दिल्‍ली की यह विशालतम मस्जिद मुगल शासक शाहजहां के उत्‍कृष्‍ट वास्‍तुकला और सौंदर्य बोध का नमूना है. 65 मीटर लम्‍बी और 35 मीटर चौड़ी इस मस्जिद में एक साथ 25 हजार लोग बैठकर नमाज पढ़ सकते हैं. इसका आंगन ही 100 वर्ग मीटर का है. मस्जिद के चार प्रवेश द्वार, चार स्‍तंभ और दो मीनारें हैं.

यह भी पढ़ें- Chandni Chowk : सदियों बाद भी बरकरार है चांदनी चौक की चमक

पूरी मस्जिद का निर्माण लाल सेंड स्टोन और सफेद संगमरमर से किया गया है. सफेद संगमरमर के तीन गुम्‍बदों पर बनी काले रंग की पट्टियां दूर से ही आकर्षित करती हैं. मस्जिद के पश्चिमी हिस्से में मुख्‍य इबादत स्थल है. यहां ऊंचे-ऊंचे मेहराब बनाए गए हैं, जो 260 खम्‍भों पर हैं और इनके साथ लगभग 15 संगमरमर के गुम्‍बद हैं. मस्जिद के दक्षिणी हिस्से के मीनारों का परिसर 1076 वर्ग फीट चौड़ा है. इतिहासकारों की मानें तो तब शाहजहां ने इस मस्जिद का निर्माण 10 करोड़ रुपए में कराया था और इसे बनाने में 5 हजार शिल्पकार लगे थे.

भले ही आम हिंदुस्तानी की नज़र में इस मस्जिद की पहचान नमाज पढ़ने वाली जगह से हो, लेकिन इसके अहाते से समय-समय पर ऐसे संदेश निकलते रहे हैं, जो भारत के टूटने और बिखरने के अंदेशों को दूर करते हैं. भारत को अपनी ऐसी धरोहरों पर गर्व है.

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.