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विशेष लेख : भारत और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, नजरिया बदलने की है जरूरत

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Published : Dec 10, 2019, 10:04 AM IST

Updated : Dec 11, 2019, 12:34 PM IST

केंद्र सरकार लगातार देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को बढ़ाने की बात कहती आ रही है. पिछले कुछ समय में, चीन और अमेरिका के बीच बढ़े व्यापारिक तनाव के कारण, एक बार फिर पूर्वी और दक्षिण एशिया में एफडीआई लाने की तरफ काम शुरू हुआ है. पिछले दो महीने में, थाईलैंड ने निवेश को लुभाने के लिए अपने यहां, चीन से आने वाली नई कंपनियों के लिए कर की दरों में 10% की कटौती की है. इस कटौती के कारण भारत सरकार ने भी कुछ हफ्ते पहले अपने यहां टैक्स कटौती की है.

fdi in india
डिजाइन फोटो

इस सदी की शुरुआत से ही, एफडीआई की रफ्तार ज्यादातर बढ़ते बाजारों में कम रही है. वहीं भारत, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के लिहाज से आगे है, जिसमे अधिकतर निवेश स्टॉक मार्केट में होता है और इसे कमाई का तेज जरिया माना जाता है. मंदी के दौर से गुजर रहे भारतीय बाजार में इस तरह के बदलावों को देखते हुए यह तय है कि आने वाले समय में एफडीआई को अपने यहां और ज्यादा आकर्षित करने की जरूरत है.

fdi in India
भारत में 2000-2019 के बीच विदेशी और पोर्टफोलियो निवेश

हाल ही में विश्व बैंक और ब्लैकस्टोन जैसे बड़े आर्थिक संस्थानों ने यह बात कही है कि भारत अभी भी निवेश के लिहाज से पसंदीदा जगह है. इसके चलते सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों को कुछ बल जरूर मिलेगा. आमतौर पर भारत जैसे देश में, एफडीआई बेहतर विकल्प रहता है, क्योंकि यह निवेश लंबे समय के लिए होता है और देश में इससे एसेट बनती है, जो आगे नौकरियों के अवसर पैदा करने में मददगार होती है. वहीं, पोर्टफोलियो निवेश अधिक्तर शेयर बाजार तक ही सीमित रहता है और कम समय में ज्यादा मुनाफा बनाने की तरफ केंद्रित रहता है.

इसके अलावा एफपीआई में आने वाले ज्यादातर पैसे का स्रोत्र मॉरिशस जैसे देशों से होता है, जो इनके मालिकाना हक को सवालों के घेरे में रखता है. इसलिए यह जरूरी है कि भारत सरकार लंबे समय तक निवेश करने वाले निवेशकों की जरूरतों को लेकर सजग रहे. यह तब और जरूरी हो जाता है जब विश्व व्यापार पिछले दशक के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है. गिरते विश्व व्यापार का मतलब है कि आने वाले समय में सभी देशों द्वारा अपने यहां निवेशकों को लाने के लिए भरसक प्रयास किह जाएंगे. इसलिए भारत जितना ऐसे निवेशकों के लिए मुफीद जगह बनेगा उतना ही देश की अर्थव्यवस्था को मदद मिलेगी.

एफडीआई की जरूरत है अनिवार्य

एक तरफ भले ही हम देश की अर्थव्यवस्था पर विदेशी असर से बचना चाहते हों, लेकिन हमे यह समझने की जरूरत है कि भारत एफडीआई को पूरी तरह से खारिज नही कर सकता है. क्योंकि भारत अपने तेल की जरूरतों का ज्यादातर हिस्सा बाहर से आयात करता है, इसके कारण देश में हमेशा विदेशी मुद्र की कमी रहती है वो भी तब जब देश में निर्यात में कोई खास इजाफा नही हो रहा है. निर्यात में कमी के कारण, भारत में हमेशा विदेशी व्यापार घाटा बड़ा होता है, जो आजादी के बाद से ही जीडीपी का 2-3% हिस्सा रहा है. इसके नतीजतन, भारत को और ज्यादा डॉलर कमाने, लाने या उधार लेने पड़ते हैं.

एफडीआई का ऐसे क्षेत्रों में स्वागत होना चाहिए जो भारतीय कंपनियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबले करने में समर्थ बनाए. एफडीआई हमारे देश में इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत ज्यादातर पूंजी घाटे में रहता है और हमारे यहां सबसे खराब तीन घाटे, राजकोषिय, राजस्व और पूंजी तीनों पाए जाते हैं. किसी भी देश में अगर यह तीनों घाटे हाथ से बाहर निकल जाते हैं तो एफडीआई में कमी होना तय है और इसके कारण आर्थिक संकट होने की संभावनाऐं भी बढ़ जाती हैं. साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था में ज्यादातर विदेशी तकनीक की खपत होती है. ऐसे उत्पादों में लाभ कम होता है और वो अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से काफी प्रभावित रहते हैं. वहीं दक्षिण कोरिया जैसे देश ज्यादातर तकनीक और उच्च स्तर के उत्पादों का निर्यात करते हैं.

यह दुनिया के बाजारों में आने वाले छोटे बदलावों से अछूते रहते हैं. एफडीआई विकासशील देशो को अपनी आर्थिक सेहत सुधारने का भी बेहतर मौका देती है. किसी भी देश को नई तकनीक के विकास और उसे अपने यहां ढालने में काफी लंबा समय लगता है. वहीं तकनीक के आयात से भारत जैसी अर्थव्यवस्था को जरूरी मदद मिल सकती है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान की अर्थव्यवस्था ने जिस तरह से विकास किया है वो इस बात की तरफ साफ इशारा करता है कि तकनीक और निवेश की सही रणनीति से कितने सार्थक नतीजे हासिल किए जा सकते हैं.

भारत में एफडीआई की दिक्कते

रिजर्व बैंक और डिपार्टमेंट फॉर प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री एंड इंटर्नल ट्रेड द्वारा जारी आंकड़ों को बारीकी से देखने से यह साफ होता है कि देश में एफडीआई से जुड़े ऐसे कई मसले हैं जिनपर नीति बनाने वाले लोगों का ध्यान देना बेहद जरूरी है. एफडीआई के आंकड़े परेशान करने वाले हैं, क्योंकि वो मंदी शुरू होने के पहले से ही गिरने लगे थे. यह साफ नही है कि क्या यह मंदी का कारण है या कारणों में से एक है.

fdi in india
भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश

2016-17 से ही देश में एफडीआई का आंकड़ा ठहरा हुआ है, और यह 60-64 अरब अमरीकी डॉलर के आसपास रहा है. इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि भारत में मौजूद विदेशी निवेशक अपनी कमाई के बड़े हिस्से को ही वापस बाजारों में लगा रहे हैं. यह कमाई 10-13.5 अरब अमरीकी डॉलर या 70,0000-1 लाख करोड़ रुपये के आस पास है. वहीं चीन में 2015-18 के बीच यह आंकड़ा 196-128 अरब अमरीकी डॉलर रहा है. इन हालातों को और चिंताजनक यह बात भी बनाती है कि पिछले दशक में भारत में विदेशी निवेश छह देशों से ही हुआ है. इनमे मॉरिशस (30-35%), सिंगापुर(15-20%), जापान(5-10%), नीदरलैंड(5-10%), ब्रिटेन(5-7%), और अमेरिका(5-7%) शामिल हैं.

पढ़ें-विशेष लेख : लोन नहीं चुकाने की वजह से मुद्रा स्कीम से बैंकों की चिताएं बढ़ीं

विदेशी निवेश, चाहे एफडीआई हो या एफआईआई, यह दोधारी तलवार की तरह होते हैं. एफडीआई अगर तकनीक, तकनीकी संसाधन या अन्य विश्व संसाधनों का सृजन करने वाले क्षेत्र में हो, तो काफी फायदेमंद हो सकता है. ऐसी सूरत मे निवेश लंबे समय तक सक्रिय रहने वाली नौकरियों के अवसर पैदा करता है और यह भारत के लिए अपने को तकनीकी विकास के कारण तेजी से बदलते विश्व में प्रासांगिक बनाने में मदद करता है. दुर्रभाग्यवश, एफडीआई के आंकड़े यह बताते हैं कि, यह निवेश ऐसे क्षेत्रों में गया है जो देश की अर्थव्यवस्था में कोई सीधा लाभ नही कर पा रहे हैं. ज्यादा साफ आंकड़ों की कमी के बावजूद यह साफ है कि साल 2000 से, अधिकतर निवेश सेवा क्षेत्र(18%), कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर(7%), निर्माण(7%), सूचना तकनीक(7%), ऑटोमोबाइल(5%), फार्मा(4.43%), ट्रेडिंग(4.23%),केमिकल(4%), ऊर्जा(3.49%), धातु(3.11%) और पर्यटन(3.06%) क्षेत्र में हुआ है. यह साफ करता है कि भारत ऐसे क्षेत्रों में विदेशी निवेश ला रहा है जो विश्व स्तर पर उसे प्रतिस्पर्द्धा करने में मदद नही कर रहे हैं, बल्कि वो बड़े भारतीय बाजार को ही अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.

आगे का रास्ता

इन आंकड़ों से यह बात साफ है कि सरकार को एफडीआई को लेकर अपनी नितियों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. भारत और विश्व के आर्थिक हालातों के कारण भारत विदेशी निवेश से दूर नही रह सकता, लेकिन वो निवेश किन क्षेत्रों में लाता है इस पर गौर करना जरूरी है. ई कॉमर्स, कोरियर कंपनियों, ट्रेडिंग, निर्माण और होटल क्षेत्र की कंपनियों के लिए ज्यादा करों में छूट और अन्य रियायतें देने से कोई खास फायदा होने की उम्मीद नही है. ऐसे क्षेत्रों में निवेश करने वाले निवेशक, तकनीक और निर्यात बढ़ाने में ज्यादा मदद नही कर सकते हैं. ऐसी कंपनियों को करों में छूट देने से विश्व स्तर पर भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्द्धा की क्षमता को बढ़ाने में कोई खास मदद नही मिलती है.

आरसेप (आरसीईपी) के चलते भी भारत द्वारा विदेशी निवेशकों को दी जा रही छूट महत्वपूर्ण हो जाती है. इसलिए यह जरूरी है कि सरकार करों में छूट या जमीन की खरीद आदि में रियायत ऐसी ही कंपनियों को दे जो मूल बाजारों में काम करना चाह रही हो, न कि उन कंपनियों को जो भारत की बड़ी लेबर मार्केट का फायदा उठाना चाह रही हों. 1997 में दक्षिण कोरिया में आई तंगी के बाद जिसर तरह से वहां रियायतें दी गई और अर्थव्यवस्था की दिशा बदली गई, भारत के लिए भी यह एक अच्छा उदाहरण हो सकता है. यह जरूरी है कि सरकार ऐसे क्षेत्रों में रियायते न दे जो नौकरियों में कटौती करें और अर्थव्यवस्था पर कोई लंबा अच्छा असर भी न छोड़ें.

(लेखक- डॉ एस अनंत)

इस सदी की शुरुआत से ही, एफडीआई की रफ्तार ज्यादातर बढ़ते बाजारों में कम रही है. वहीं भारत, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के लिहाज से आगे है, जिसमे अधिकतर निवेश स्टॉक मार्केट में होता है और इसे कमाई का तेज जरिया माना जाता है. मंदी के दौर से गुजर रहे भारतीय बाजार में इस तरह के बदलावों को देखते हुए यह तय है कि आने वाले समय में एफडीआई को अपने यहां और ज्यादा आकर्षित करने की जरूरत है.

fdi in India
भारत में 2000-2019 के बीच विदेशी और पोर्टफोलियो निवेश

हाल ही में विश्व बैंक और ब्लैकस्टोन जैसे बड़े आर्थिक संस्थानों ने यह बात कही है कि भारत अभी भी निवेश के लिहाज से पसंदीदा जगह है. इसके चलते सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों को कुछ बल जरूर मिलेगा. आमतौर पर भारत जैसे देश में, एफडीआई बेहतर विकल्प रहता है, क्योंकि यह निवेश लंबे समय के लिए होता है और देश में इससे एसेट बनती है, जो आगे नौकरियों के अवसर पैदा करने में मददगार होती है. वहीं, पोर्टफोलियो निवेश अधिक्तर शेयर बाजार तक ही सीमित रहता है और कम समय में ज्यादा मुनाफा बनाने की तरफ केंद्रित रहता है.

इसके अलावा एफपीआई में आने वाले ज्यादातर पैसे का स्रोत्र मॉरिशस जैसे देशों से होता है, जो इनके मालिकाना हक को सवालों के घेरे में रखता है. इसलिए यह जरूरी है कि भारत सरकार लंबे समय तक निवेश करने वाले निवेशकों की जरूरतों को लेकर सजग रहे. यह तब और जरूरी हो जाता है जब विश्व व्यापार पिछले दशक के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है. गिरते विश्व व्यापार का मतलब है कि आने वाले समय में सभी देशों द्वारा अपने यहां निवेशकों को लाने के लिए भरसक प्रयास किह जाएंगे. इसलिए भारत जितना ऐसे निवेशकों के लिए मुफीद जगह बनेगा उतना ही देश की अर्थव्यवस्था को मदद मिलेगी.

एफडीआई की जरूरत है अनिवार्य

एक तरफ भले ही हम देश की अर्थव्यवस्था पर विदेशी असर से बचना चाहते हों, लेकिन हमे यह समझने की जरूरत है कि भारत एफडीआई को पूरी तरह से खारिज नही कर सकता है. क्योंकि भारत अपने तेल की जरूरतों का ज्यादातर हिस्सा बाहर से आयात करता है, इसके कारण देश में हमेशा विदेशी मुद्र की कमी रहती है वो भी तब जब देश में निर्यात में कोई खास इजाफा नही हो रहा है. निर्यात में कमी के कारण, भारत में हमेशा विदेशी व्यापार घाटा बड़ा होता है, जो आजादी के बाद से ही जीडीपी का 2-3% हिस्सा रहा है. इसके नतीजतन, भारत को और ज्यादा डॉलर कमाने, लाने या उधार लेने पड़ते हैं.

एफडीआई का ऐसे क्षेत्रों में स्वागत होना चाहिए जो भारतीय कंपनियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबले करने में समर्थ बनाए. एफडीआई हमारे देश में इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत ज्यादातर पूंजी घाटे में रहता है और हमारे यहां सबसे खराब तीन घाटे, राजकोषिय, राजस्व और पूंजी तीनों पाए जाते हैं. किसी भी देश में अगर यह तीनों घाटे हाथ से बाहर निकल जाते हैं तो एफडीआई में कमी होना तय है और इसके कारण आर्थिक संकट होने की संभावनाऐं भी बढ़ जाती हैं. साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था में ज्यादातर विदेशी तकनीक की खपत होती है. ऐसे उत्पादों में लाभ कम होता है और वो अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से काफी प्रभावित रहते हैं. वहीं दक्षिण कोरिया जैसे देश ज्यादातर तकनीक और उच्च स्तर के उत्पादों का निर्यात करते हैं.

यह दुनिया के बाजारों में आने वाले छोटे बदलावों से अछूते रहते हैं. एफडीआई विकासशील देशो को अपनी आर्थिक सेहत सुधारने का भी बेहतर मौका देती है. किसी भी देश को नई तकनीक के विकास और उसे अपने यहां ढालने में काफी लंबा समय लगता है. वहीं तकनीक के आयात से भारत जैसी अर्थव्यवस्था को जरूरी मदद मिल सकती है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान की अर्थव्यवस्था ने जिस तरह से विकास किया है वो इस बात की तरफ साफ इशारा करता है कि तकनीक और निवेश की सही रणनीति से कितने सार्थक नतीजे हासिल किए जा सकते हैं.

भारत में एफडीआई की दिक्कते

रिजर्व बैंक और डिपार्टमेंट फॉर प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री एंड इंटर्नल ट्रेड द्वारा जारी आंकड़ों को बारीकी से देखने से यह साफ होता है कि देश में एफडीआई से जुड़े ऐसे कई मसले हैं जिनपर नीति बनाने वाले लोगों का ध्यान देना बेहद जरूरी है. एफडीआई के आंकड़े परेशान करने वाले हैं, क्योंकि वो मंदी शुरू होने के पहले से ही गिरने लगे थे. यह साफ नही है कि क्या यह मंदी का कारण है या कारणों में से एक है.

fdi in india
भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश

2016-17 से ही देश में एफडीआई का आंकड़ा ठहरा हुआ है, और यह 60-64 अरब अमरीकी डॉलर के आसपास रहा है. इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि भारत में मौजूद विदेशी निवेशक अपनी कमाई के बड़े हिस्से को ही वापस बाजारों में लगा रहे हैं. यह कमाई 10-13.5 अरब अमरीकी डॉलर या 70,0000-1 लाख करोड़ रुपये के आस पास है. वहीं चीन में 2015-18 के बीच यह आंकड़ा 196-128 अरब अमरीकी डॉलर रहा है. इन हालातों को और चिंताजनक यह बात भी बनाती है कि पिछले दशक में भारत में विदेशी निवेश छह देशों से ही हुआ है. इनमे मॉरिशस (30-35%), सिंगापुर(15-20%), जापान(5-10%), नीदरलैंड(5-10%), ब्रिटेन(5-7%), और अमेरिका(5-7%) शामिल हैं.

पढ़ें-विशेष लेख : लोन नहीं चुकाने की वजह से मुद्रा स्कीम से बैंकों की चिताएं बढ़ीं

विदेशी निवेश, चाहे एफडीआई हो या एफआईआई, यह दोधारी तलवार की तरह होते हैं. एफडीआई अगर तकनीक, तकनीकी संसाधन या अन्य विश्व संसाधनों का सृजन करने वाले क्षेत्र में हो, तो काफी फायदेमंद हो सकता है. ऐसी सूरत मे निवेश लंबे समय तक सक्रिय रहने वाली नौकरियों के अवसर पैदा करता है और यह भारत के लिए अपने को तकनीकी विकास के कारण तेजी से बदलते विश्व में प्रासांगिक बनाने में मदद करता है. दुर्रभाग्यवश, एफडीआई के आंकड़े यह बताते हैं कि, यह निवेश ऐसे क्षेत्रों में गया है जो देश की अर्थव्यवस्था में कोई सीधा लाभ नही कर पा रहे हैं. ज्यादा साफ आंकड़ों की कमी के बावजूद यह साफ है कि साल 2000 से, अधिकतर निवेश सेवा क्षेत्र(18%), कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर(7%), निर्माण(7%), सूचना तकनीक(7%), ऑटोमोबाइल(5%), फार्मा(4.43%), ट्रेडिंग(4.23%),केमिकल(4%), ऊर्जा(3.49%), धातु(3.11%) और पर्यटन(3.06%) क्षेत्र में हुआ है. यह साफ करता है कि भारत ऐसे क्षेत्रों में विदेशी निवेश ला रहा है जो विश्व स्तर पर उसे प्रतिस्पर्द्धा करने में मदद नही कर रहे हैं, बल्कि वो बड़े भारतीय बाजार को ही अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.

आगे का रास्ता

इन आंकड़ों से यह बात साफ है कि सरकार को एफडीआई को लेकर अपनी नितियों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. भारत और विश्व के आर्थिक हालातों के कारण भारत विदेशी निवेश से दूर नही रह सकता, लेकिन वो निवेश किन क्षेत्रों में लाता है इस पर गौर करना जरूरी है. ई कॉमर्स, कोरियर कंपनियों, ट्रेडिंग, निर्माण और होटल क्षेत्र की कंपनियों के लिए ज्यादा करों में छूट और अन्य रियायतें देने से कोई खास फायदा होने की उम्मीद नही है. ऐसे क्षेत्रों में निवेश करने वाले निवेशक, तकनीक और निर्यात बढ़ाने में ज्यादा मदद नही कर सकते हैं. ऐसी कंपनियों को करों में छूट देने से विश्व स्तर पर भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्द्धा की क्षमता को बढ़ाने में कोई खास मदद नही मिलती है.

आरसेप (आरसीईपी) के चलते भी भारत द्वारा विदेशी निवेशकों को दी जा रही छूट महत्वपूर्ण हो जाती है. इसलिए यह जरूरी है कि सरकार करों में छूट या जमीन की खरीद आदि में रियायत ऐसी ही कंपनियों को दे जो मूल बाजारों में काम करना चाह रही हो, न कि उन कंपनियों को जो भारत की बड़ी लेबर मार्केट का फायदा उठाना चाह रही हों. 1997 में दक्षिण कोरिया में आई तंगी के बाद जिसर तरह से वहां रियायतें दी गई और अर्थव्यवस्था की दिशा बदली गई, भारत के लिए भी यह एक अच्छा उदाहरण हो सकता है. यह जरूरी है कि सरकार ऐसे क्षेत्रों में रियायते न दे जो नौकरियों में कटौती करें और अर्थव्यवस्था पर कोई लंबा अच्छा असर भी न छोड़ें.

(लेखक- डॉ एस अनंत)

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भारत और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश: नजरिया बदलने की है जरूरत

 



केंद्र सरकार लगातार देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को बढ़ाने की बात कहती आ रही है. पिछले कुछ समय में, चीन और अमरीका के बीच बढ़े व्यापारिक तनाव के कारण, एक बार फिर पूर्वी औऱ दक्षिण एशिया में एफडीआई लाने की तरफ काम शुरू हुआ है. पिछले दो महीने में, थाईलैंड ने निवेश को लुभाने के लिये अपने यहां, चीन से आने वाली नई कंपनियों के लिये कर की दरों में 10% की कटौती की है. इस कटौती के कारण भारत सरकार ने भी कुछ हफ्ते पहले अपने यहां टैक्स कटौती की है. इस सदी की शुरुआत से ही, एफडीआई की रफ्तार ज्यादातर बढ़ते बाजारों में कम रही है. वहीं भारत, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के लिहाज से आगे है, जिसमे अधिक्तर निवेश स्टॉक मार्केट में होता है और इसे कमाई का तेज जरिया माना जाता है. मंदी को दौर से गुजर रहे भारतीय बाजार में इस तरह के बदलावों को देखते हुए ये तय है कि आने वाले समय में एफडीआई को अपने यहां और ज्यादा आकर्षित करने की जरूरत है. हाल ही में विश्व बैंक और ब्लैकस्टोन जैसे बड़े आर्थिक संस्थानों ने ये बात कही है कि भारत अभी भी निवेश के लिहाज से पसंदीदा जगह है. इसके चलते सरकार द्वारा उठाये जा रहे कदमों को कुछ बल जरूर मिलेगा. आमतौर पर भारत जैसे देश में, एफडीआई बेहतर विकल्प रहता है, क्योंकि ये निवेश लंबे समय के लिये होता है और देश में इससे एसेट बनती है, जो आगे नौकरियों के अवसर पैदा करने में मददगार होती है. वहीं, पोर्टफोलियो निवेश अधिक्तर शेयर बाजार तक ही सीमित रहता है और कम समय में ज्यादा मुनाफा बनाने की तरफ केंद्रित रहता है. इसके अलावा एफपीआई में आने वाले ज्यादातर पैसे का स्रोत्र मॉरिशस जैसे देशों से होता है, जो इनके मालिकाना हक को सवालों के घेरे में रखता है. इसलिये ये जरूरी है कि भारत सरकार लंबे समय तक निवेश करने वाले निवेशकों की जरूरतों को लेकर सजग रहे. ये तब और जरूरी हो जाता है जब विश्व व्यापार पिछले दशक के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है. गिरते विश्व व्यापार का मतलब है कि आने वाले समय में सभी देशों द्वारा अपने यहां निवेशकों को लाने के लिये भरसक प्रयास किये जायेंगे. इसलिये भारत जितना ऐसे निवेशकों के लिये मुफीद जगह बनेगा उतना ही देश की अर्थव्यवस्था को मदद मिलेगी.



 एफडीआई की जरूरत है अनिवार्य



एक तरफ भले ही हम देश की अर्थव्यवस्था पर विदेशी असर से बचना चाहते हों, लेकिन हमे ये समझने की जरूरत है कि भारत एफडीआई को पूरी तरह से खारिज नही कर सकता है. क्योंकि भारत अपने तेल की जरूरतों का ज्यादातर हिस्सा बाहर से आयात करता है, इसके कारण देश में हमेशा विदेशी मुद्र की कमी रहती है वो भी तब जब देश में निर्यात में कोई खास इजाफा नही हो रहा है. निर्यात में कमी के कारण, भारत में हमेशा विदेशी व्यापार घाटा बड़ा होता है, जो आजादी के बाद से ही जीडीपी का 2-3% हिस्सा रहा है. इसके नतीजतन, भारत को और ज्यादा डॉलर कमाने, लाने या उधार लेने पड़ते हैं. एफडीआई का ऐसे क्षेत्रों में स्वागत होना चाहिये जो भारतीय कंपनियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबले करने में समर्थ बनाये. एफडीआई हमारे देश में इसलिये भी जरूरी है क्योंकि भारत ज्यादातर पूंजी घाटे में रहता है और हमारे यहां सबसे खराब तीन घाटे, राजकोषिय, राजस्व और पूंजी तीनों पाये जाते हैं. किसी भी देश में अगर ये तीनों घाटे हाथ से बाहर निकल जाते हैं तो एफडीआई में कमी होना तय है और इसके कारण अार्थिक संकट होने की संभावनाऐं भी बढ़ जाती हैं. साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था में ज्यादातर विदेशी तकनीक की खपत होती है. ऐसे उत्पादों में लाभ कम होता है और वो अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से काफी प्रभावित रहते हैं. वहीं दक्षिण कोरिया जैसे देश ज्यादातर तकनीक और उच्च स्तर के उत्पादों का निर्यात करते हैं. ये दुनिया के बाजारों में आने वाले छोटे बदलावों से अछूते रहते हैं. एफडीआई विकासशील देशो को अपनी आर्थिक सेहत सुधारने का भी बेहतर मौका देती है. किसी भी देश को नई तकनीक के विकास और उसे अपने यहां ढालने में काफी लंबा समय लगता है. वहीं तकनीक के आयात से भारत जैसी अर्थव्यवस्था को जरूरी मदद मिल सकती है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान की अर्थव्यवस्था ने जिस तरह से विकास किया है वो इस बात की तरफ साफ इशारा करता है कि तकनीक और निवेश की सही रणनीति से कितने सार्थक नतीजे हासिल किये जा सकते हैं. 



भारत में एफडीआई की दिक्कतें



रिजर्व बैंक और डिपार्टमेंट फॉर प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री एंड इंटर्नल ट्रेड द्वारा जारी आंकड़ों को बारीकी से देखने से ये साफ होता है कि देश में एफडीआई से जुड़े ऐसे कई मसले हैं जिनपर नीति बनाने वाले लोगों का ध्यान देना बेहद जरूरी है. एफडीआई के आंकड़े परेशान करने वाले हैं, क्योंकि वो मंदी शुरू होने के पहले से ही गिरने लगे थे. ये साफ नही है कि क्या ये मंदी का कारण है या कारणों में से एक है. 2016-17 से ही देश में एफडीआई का आंकड़ा ठहरा हुआ है, और ये 60-64 अरब अमरीकी डॉलर के आसपास रहा है. इसके पीछे एक बड़ा कारण ये भी हो सकता है कि भारत में मौजूद विदेशी निवेशक अपनी कमाई के बड़े हिस्से को ही वापस बाजारों में लगा रहे हैं. ये कमाई 10-13.5 अरब अमरीकी डॉलर या 70,0000-1 लाख करोड़ रुपये के आस पास है. वहीं चीन में 2015-18 के बीच ये आंकड़ा 196-128 अरब अमरीकी डॉलर रहा है. इन हालातों को और चिंताजनक ये बात भी बनाती है कि पिछले दशक में भारत में विदेशी निवेश छह देशों से ही हुआ है. इनमे मॉरिशस (30-35%), सिंगापुर(15-20%), जापान(5-10%), नीदरलैंड(5-10%), ब्रिटेन(5-7%), और अमरीका(5-7%) शामिल हैं.



विदेशी निवेश, चाहे एफडीआई हो या एफआईआई, ये दोधारी तलवार की तरह होते हैं. एफडीआई अगर तकनीक, तकनीकी संसाधन या अन्य विश्व संसाधनों का सृजन करने वाले क्षेत्र में हो, तो काफी फायदेमंद हो सकता है. ऐसी सूरत मे निवेश लंबे समय तक सक्रिय रहने वाली नौकरियों के अवसर पैदा करता है और ये भारत के लिये अपने को तकनीकी विकास के कारण तेजी से बदलते विश्व में प्रासांगिक बनाने में मदद करता है. दुर्रभाग्यवश, एफडीआई के आंकड़े ये बताते हैं कि, ये निवेश ऐसे क्षेत्रों में गया है जो देश की अर्थव्यवस्था में कोई सीधा लाभ नही कर पा रहे हैं. ज्यादा साफ आंकड़ों की कमी के बावजूद ये साफ है कि साल 2000 से, अधिक्तर निवेश सेवा क्षेत्र(18%), कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर(7%), निर्माण(7%), सूचना तकनीक(7%), ऑटोमोबाइल(5%), फार्मा(4.43%), ट्रेडिंग(4.23%),केमिकल(4%), ऊर्जा(3.49%),धातु(3.11%),और पर्यटन(3.06%) क्षेत्र में हुआ है. ये साफ करता है कि भारत ऐसे क्षेत्रों में विदेशी निवेश ला रहा है जो विश्व स्तर पर उसे प्रतिस्पर्द्धा करने में मदद नही कर रहे हैं, बल्कि वो बड़े भारतीय बाजार को ही अपने फायदे के लिये इस्तेमाल कर रहे हैं. 



आगे का रास्ता 



इन आंकड़ों से यह बात साफ है कि सरकार को एफडीआई को लेकर अपनी नितियों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. भारत और विश्व के आर्थिक हालातों के कारण भारत विदेशी निवेश से दूर नही रह सकता, लेकिन वो निवेश किन क्षेत्रों में लाता है इस पर गौर करना जरूरी है. ई कॉमर्स, कोरियर कंपनियों, ट्रेडिंग, निर्माण, और होटल क्षेत्र की कंपनियों के लिये ज्यादा करों में छूट और अन्य रियायतें देने से कोई खास फायदा होने की उम्मीद नही है. ऐसे क्षेत्रों में निवेश करने वाले निवेशक, तकनीक और निर्यात बढ़ाने में ज्यादा मदद नही कर सकते हैं. ऐसी कंपनियों को करों में छूट देने से विश्व स्तर पर भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्द्धा की क्षमता को बढ़ाने में कोई खास मदद नही मिलती है. आरसेप (आरसीईपी) के चलते भी भारत द्वारा विदेशी निवेशकों को दी जा रही छूट महत्वपूर्ण हो जाती है. इसलिये ये जरूरी है कि सरकार करों में छूट या जमीन की खरीद आदि में रियायत ऐसी है कंपनियों को दे जो मूल बाजारों में काम करना चाह रही हो, न कि उन कंपनियों को जो भारत की बड़ी लेबर मार्केट का फायदा उठाना चाह रही हों. 1997 में दक्षिण कोरिया में आई तंगी के बाद जिसर तरह से वहां रियायतें दी गई और अर्थव्यवस्था की दिशा बदली गई, भारत के लिये भी यह एक अच्छा उद्धारण हो सकता है. ये जरूरी है कि सरकार ऐसे क्षेत्रों में रियायते न दे जो नौकरियों में कटौती करें और अर्थव्यवस्था पर कोई लंबा अच्छा असर भी न छोड़ें.


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Last Updated : Dec 11, 2019, 12:34 PM IST
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