रीवा। विंध्य की सियासत का केंद्र कहे जाने वाली रीवा लोकसभा सीट सूबे की हाइप्रोफाइल सीटों में गिनी जाती है. जिसके परिणाम हर बार चौंकाने वाले रहे हैं. यह सूबे की एक मात्र ऐसी सीट है जहां किसी एक सियासी दल का सीधा दखल नहीं माना जाता है. इस सीट पर कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, और निर्दलीय प्रत्याशियों को जीत मिली है.
बात अगर रीवा संसदीय सीट के सियासी इतिहास की जाए तो, रीवा के महाराजा मार्तंड सिंह सबसे ज्यादा तीन बार रीवा से सांसद चुने गए हैं. उन्होंने 1971, 1980 और 1984 के चुनाव में जीत दर्ज की थी. रीवा में कांग्रेस को सबसे ज्यादा 6 बार, बीजेपी को तीन बार और बीएसपी को भी तीन बार जीत मिली है. जबकि एक-एक बार निर्दलीय प्रत्याशी और भारतीय लोकदल पार्टी के उम्मीदवारों ने भी रीवा में जीत दर्ज की है.
रीवा लोकसभा सीट पर ब्राह्राणों का सीधा दखल माना जाता है. यही वजह है कि इस सीट पर सबसे ज्यादा ब्राह्यण प्रत्याशी ने ही जीत दर्ज की है फिर चाहे पार्टी कोई भी रही हो. बीजेपी और कांग्रेस ने इस बार भी रीवा में ब्राह्यण प्रत्याशियों पर ही दांव लगाया है. बीजेपी ने जहां वर्तमान सांसद जनार्दन मिश्रा को फिर से मौका दिया है. तो कांग्रेस ने दिवंगत पूर्व सांसद सुंदरलाल तिवारी के बेटे सिद्धार्थ तिवारी को चुनावी मैदान में उतारा है. जिससे इस बार यहां मुकाबला कड़ा होने की उम्मीद है.
हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों को अगर लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखा जाए, तो रीवा में बीजेपी का दबदबा नजर आता. संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली आठों विधानसभा सीट, रीवा, सिरमौर, मऊगंज, सिमरिया, गुढ़, देवतालाब, मनगवां और त्योंथर पर बीजेपी का कब्जा है. जिससे पार्टी के हौसले बुलंद है. हालांकि कांग्रेस भी पूरी ताकत के साथ चुनावी मैदान में है. जबकि उसे पूर्व सांसद सुंदरलाल तिवारी के निधन से सहानुभूति मिलने की भी उम्मीद. यही वजह है कि कांग्रेस ने यहां सुंदरलाल तिवारी के बेटे सिद्धार्थ को मौका दिया है.
खास बात यह है कि रीवा के परिणाम हर बार चौंकाने वाले रहे हैं. 2009 में इस सीट पर बसपा ने जीत दर्ज कर सारे सियासी समीकरणों को पलट कर रख दिया था. तो 2014 में बीजेपी के कमजोर प्रत्याशी माने जा रहे जनार्दन मिश्रा ने सुंदरलाल तिवारी को हरा दिया था. जबकि इस बार तो रीवा में बीएसपी और एसपी गठबंधन के साथ चुनावी मैदान में है. जिससे रीवा का मुकाबला त्रिकोणीय होने की उम्मीद है.