राजगढ़। नाजुक है पर वीरों को मात देती है, जो मां नौ महीने गर्भ में पनाह देती है." बच्चे को नौ महीने तक कोख में पालना कोई आसान काम नहीं है, शायद इसीलिए परमात्मा ने यह शक्ति सिर्फ स्त्री को ही दी है, क्योंकि स्त्री में पुरुषों की तुलना में ज्यादा धैर्य होता है. लेकिन राजगढ़ में जिले में अस्पतालों की खस्ताहाल और डॉक्टरों की लापरवाही के कारण कई बार प्रसूता महिलाओं का धैर्य टूट जाता है. जिले में ना सिर्फ डॉक्टर्स की कमी है बल्कि मेटरनिटी से जुड़ा स्टाफ भी काफी कम है, जिस कारण कई बार मेटरनिटी की महिलाओं को बड़े शहरों के लिए रेफर कर दिया जाता है, जो परेशानी का शबब बन जाता है.
नर्सिंग होम लेते हैं कई गुना फीस
सोशल एक्टिविस्ट तनवीर वारसी ने बताया कि सरकारी दस्तावेजों की तो उनमें तो हर तरीके से इसको पूर्णता दिखाया जाता है परंतु कई बार देखने में आता है कि प्रसूता के परिजनों को डिलीवरी कराने के लिए इधर से उधर भटकना ही पड़ता है. कई बार ऐसा भी सामने आया कि 108 और जननी एक्सप्रेस लेने के लिए समय पर नहीं पहुंचती, तो कई बार प्रसूताओं को अस्पताल पहुंचने के बाद भी उनको वापस लौटा दिया गया. ऐसे में सबसे ज्यादा फायदा प्राइवेट हॉस्पिटल और प्राइवेट नर्सिंग होम ने उठाया है, जो लोगों की मजबूरी में 4 से 5 गुना फीस बढ़ाकर लिए.
निजी अस्पतालों में हो जाती है चूक
समाजसेवी एहतेशाम सिद्दीकी बताते हैं कि नियमानुसार किसी भी अस्पताल से मरीज को किसी अन्य बड़े अस्पताल रेफर किया जाता है, लेकिन यहां नियमों की धज्जियां उड़ती नजर आती हैं. एहतेशाम सिद्दीकी बताते हैं कि जिला अस्पताल में सुविधा उपलब्ध होने के बाद भी कई बार प्रसूता को रेफर कर दिया जाता है, अस्पताल से रेफर की गई महिलाएं कम समय के कारण निजी अस्पतालों में इलाज करवाती है, जहां कई बार चूक हो जाती है.
सीएमएचओ ने की कार्रवाई की बात
पूरे हालात पर सीएमएचओ डॉ एस यदु ने कहा कि सरकारी अस्पताल से प्राइवेट हास्पिटलों में रेफर करने का कोई प्रावधान नहीं है, यहां से केस बिगड़ने पर जनाना सुल्ताला, हमीदिया और जेपी हॉस्पिटल भोपाल के लिए रेफर किया जाता है. फिर भी अगर निजी अस्पतालों और क्लीनिक में रेफर करने की कोई शिकायत मिलती है, तो संबंधित लोगों पर कार्रवाई की जाएगी.
पहले भी हुए आंदोलन
मेटरनिटी की समस्याओं को कई बार मुद्दे उठ चुके हैं. कई बार यहां पर होने वाली समस्याओं को लेकर जनप्रतिनिधि और आम जनता ने शिकायतें कीं, लेकन जिले के अस्पतालों के हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे. बात की जाए जिले में उबलब्ध मैटरनिटी सुबिधा की तो जिला अस्पताल के अलावा सिविल अस्पताल नरसिंहगढ़, सिविल अस्पताल ब्यावरा में ही सीजर ऑपरेशन किया जाता है, वहां भी कई बार हालात खराब होने के कारण मरीज को जिला अस्पताल भेज दिया जाता है.
जिला अस्पताल पर ही टिकी मैटरनिटी सुविधाएं
जिले में साल 2018-19 की बात करें तो कुल 23275 बच्चों ने जन्म लिया, जिनमें से 23009 बच्चे नॉर्मल डिलीवरी से और 266 बच्चों का जन्म ऑपरेशन के जरिए हुआ. इनमें से सिविल अस्पताल ब्यावरा में 11 तो सिविल अस्पताल नरसिंहगढ़ में सिर्फ 21 मेटरनिटी ऑपरेशन हुए हैं. यहां से रेफर हुए केसों में कई बार ऐसा देखा गया कि जिस मरीज को क्रिटिकल बता कर रेफर किया गया. उसकी अस्पताल पहुंचकर तो कई बार एंबुलेंस में नॉर्मल डिलीवरी हो जाती है.
सीजर ऑपरेशन में पिछड़े सिविल अस्पताल
कोरोना काल की बात करें तो अभी तक 6854 बच्चे जन्म ले चुके हैं और जिनमें से नॉर्मल डिलीवरी 6667 हुई है और 117 सीजर ऑपरेशन हुए हैं, लेकिन यहां भी जिले के अन्य अस्पतालों का योगदान न के बराबर रहा. 117 सीजर ऑपरेशन में कुल 104 सीजर ऑपरेशन जिला अस्पताल में हुए. शेष ऑपरेशन सिविल अस्पताल नरसिंहगढ़, सिविल अस्पताल ब्यावरा में किए गए.
कोरोना काल में ऐसे रहे हालात
कोरोनाकाल में तो हालात और भी बुरे हुए थे, जहां कई बार ऐसे मामले सामने आए कि मरीज को भोपाल या फिर इंदौर रेफर किया गया. एक दौर तो ऐसा आया जब 10 दिन के लिए मेटरनिटी सेंटर को जिला अस्पताल से बदलकर ब्यावरा सिविल अस्पताल में किया गया था. इस समय कई बार तो खून की कमी तो कई बार तकनीकी कमियों के कारण डिलीवरी करवाने में भी काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता.
भले ही जिले में मेटरनिटी वार्ड को लेकर सीएमएचओ के दावे पूरे सच हो, लेकिन 2018 से लेकर अब तक के जारी सरकारी आंकड़ों में जिला अस्पताल के अन्य दो सिविल अस्पताल प्रसूताओं की डिलीवरी के मामले में काफी फिछड़े हैं, ऐसे में प्रशासन को जरूरत है कि जिले में सभी सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त व्यवस्था करें जिससे नौ महीने गर्भ में पनाह देने वाली मां को अपने बच्चे को जन्म देने के लिए जान का संकट न हो.