नरसिंहपुर। दीवाली पर बाजार में आर्टिफिशियल और चाइनीज सजावटी वस्तुओं का बोलबाला होने के चलते मिट्टी के दीपक बनाने वालों किसानों की कमर टूट गई है और वो अपना पुश्तैनी काम छोड़कर पलायन करने पर मजबूर हो गए हैं.
बाजार में आर्टिफिशियल दीयों का बोलबाला, मिट्टी के दीए बनाने वाले कुम्हार कर रहे पलायन
बाजार में आर्टिफिशियल और चाइनिज दीयों का बोलबाला होने के चलते मिट्टी के दीये बनाने वाले कुम्हार अपना पुश्तैनी काम छोड़ पलायन करने को मजबूर हो गए हैं.
कुम्हार कर रहे पलायन
नरसिंहपुर। दीवाली पर बाजार में आर्टिफिशियल और चाइनीज सजावटी वस्तुओं का बोलबाला होने के चलते मिट्टी के दीपक बनाने वालों किसानों की कमर टूट गई है और वो अपना पुश्तैनी काम छोड़कर पलायन करने पर मजबूर हो गए हैं.
Intro:मिट्टी को आकार देकर हमारे घरों को रोशनी से जगमग करने वाले कारिंदो के घर की दीवाली कितनी फीकी होती है इसका शायद आपको अंदाजा भी नहीं होगा और यही वजह है कि अब कुम्हारों ने पुस्तैनी काम को छोड़कर पलायन को मजबूर होना पड़ रहा हैBody: मिट्टी को आकार देकर हमारे घरों को रोशनी से जगमग करने वाले कारिंदो के घर की दीवाली कितनी फीकी होती है इसका शायद आपको अंदाजा भी नहीं होगा और यही वजह है कि अब कुम्हारों ने पुस्तैनी काम को छोड़कर पलायन को मजबूर होना पड़ रहा है देखिए यह खास रिपोर्ट
- हमारे उत्सवों को खुशियों से जगमग करने में सबसे बड़ा हाथ उन कुम्हारों का होता है जो कच्ची मिट्टी को आकर देकर हमारी लिए खुशियों के दीप और अन्य मिट्टी के सजावटी वस्तु बनाते है मगर क्या कभी किसी ने सोचा है जो दीपक वह बना कर दूसरों के घरों में उजाला करते है उनके जीवन में कितना अंधेरा होता है जी हैं कुछ यही हाल है और अब यही बर्षो से पुस्तैनी व्यवसाय से पलायन करने लगे है जिसकी सबसे बड़ी वजह बाजार में आर्टिफिसियल और चयनिश सजावटी वस्तुओं का बोलबाला है
जिसकी वजह से न उन्हें अब उनकी मेहनत का सही दाम मिलता है और न कि विक्रय के लिए उचित बाजार
- बाद हम खुशियों में डूबे हुए है तक उनके घरों में शायद ही रंगीनियां रहते है तंगहाली में जीवन जीने वाले इन कुम्हारों को न शासन से कभी अनुदान मिलता है न सरकारी मदद और न ही मिट्टी की आपूर्ति हो पाती है कुम्हार बताते है की पहले मिट्टी के लिए प्रशासन व्यवस्था करता था लेकिन पिछले कई सालो से वह भी बन्द हो गया अब खेत मालिकों से मिट्टी मोल लेनी पड़ती जिससे लागत व्यव भी बढ़ने लगा है और विदेशी वस्तुएं भले ही ईको फ्रेंडली न हो और न ही उनमें भावनात्मक भाव न हो मगर चमकदमक के चलते लोग उन्हें ही पसंद कर रहे है जिसकी वजह से उन्हें अब यह काम से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा रहा है
बाइट - 01 गुड्डू प्रजापति , कुम्हार
बाइट - 02 सोमती मालवी , कुम्हार
वी ओ - सात्विकता और मिट्टी की महक से दमकते हुए इन दीपकों का भले ही आर्टिफिसियल के जमाने में मोल न रह गया हो लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से यह अनमोल है लेकिन वावजूद इसके अब बाजारों में इनकी पूछ परख नहीं होती है और उन्हें बेचने वाले भी अब मजबूरन बाजार की मांग की वजह से आर्टिफिशयल सजावटी सामान बेचने को मजबूर है हालांकि फिर भी वह कहते है कि देशी तकनीक से बने मिट्टी की वस्तुओं की कोई काट नहीं मगर आजकल लोग उन्हें खरीदना कम ही पसंद करते है
बाइट - 03 दिलीप कुमार ,विक्रेता
- दीपक टले अंधेरा की कहावत तो अपने बहुत बार सुनी होंगी मगर इसका चरितार्थ भी आपके सामने है क्यों न अब हम सब मिलकर एक पहल करते हुए संकल्पित होकर देशी मिट्टी के दीपक से ही अपने घरों को रौशन करने का फैसला ले जिससे पर्यावरण के प्रति तो हमारा समर्पण रहेगा ही साथी ही मिट्टी को आकार देने वालो के चहेरे पर भी मुस्कान होगी और उनकी दीवाली भी जगमग हो सकेगीConclusion:दीपक टले अंधेरा की कहावत तो अपने बहुत बार सुनी होंगी मगर इसका चरितार्थ भी आपके सामने है क्यों न अब हम सब मिलकर एक पहल करते हुए संकल्पित होकर देशी मिट्टी के दीपक से ही अपने घरों को रौशन करने का फैसला ले जिससे पर्यावरण के प्रति तो हमारा समर्पण रहेगा ही साथी ही मिट्टी को आकार देने वालो के चहेरे पर भी मुस्कान होगी और उनकी दीवाली भी जगमग हो सकेगी
- हमारे उत्सवों को खुशियों से जगमग करने में सबसे बड़ा हाथ उन कुम्हारों का होता है जो कच्ची मिट्टी को आकर देकर हमारी लिए खुशियों के दीप और अन्य मिट्टी के सजावटी वस्तु बनाते है मगर क्या कभी किसी ने सोचा है जो दीपक वह बना कर दूसरों के घरों में उजाला करते है उनके जीवन में कितना अंधेरा होता है जी हैं कुछ यही हाल है और अब यही बर्षो से पुस्तैनी व्यवसाय से पलायन करने लगे है जिसकी सबसे बड़ी वजह बाजार में आर्टिफिसियल और चयनिश सजावटी वस्तुओं का बोलबाला है
जिसकी वजह से न उन्हें अब उनकी मेहनत का सही दाम मिलता है और न कि विक्रय के लिए उचित बाजार
- बाद हम खुशियों में डूबे हुए है तक उनके घरों में शायद ही रंगीनियां रहते है तंगहाली में जीवन जीने वाले इन कुम्हारों को न शासन से कभी अनुदान मिलता है न सरकारी मदद और न ही मिट्टी की आपूर्ति हो पाती है कुम्हार बताते है की पहले मिट्टी के लिए प्रशासन व्यवस्था करता था लेकिन पिछले कई सालो से वह भी बन्द हो गया अब खेत मालिकों से मिट्टी मोल लेनी पड़ती जिससे लागत व्यव भी बढ़ने लगा है और विदेशी वस्तुएं भले ही ईको फ्रेंडली न हो और न ही उनमें भावनात्मक भाव न हो मगर चमकदमक के चलते लोग उन्हें ही पसंद कर रहे है जिसकी वजह से उन्हें अब यह काम से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा रहा है
बाइट - 01 गुड्डू प्रजापति , कुम्हार
बाइट - 02 सोमती मालवी , कुम्हार
वी ओ - सात्विकता और मिट्टी की महक से दमकते हुए इन दीपकों का भले ही आर्टिफिसियल के जमाने में मोल न रह गया हो लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से यह अनमोल है लेकिन वावजूद इसके अब बाजारों में इनकी पूछ परख नहीं होती है और उन्हें बेचने वाले भी अब मजबूरन बाजार की मांग की वजह से आर्टिफिशयल सजावटी सामान बेचने को मजबूर है हालांकि फिर भी वह कहते है कि देशी तकनीक से बने मिट्टी की वस्तुओं की कोई काट नहीं मगर आजकल लोग उन्हें खरीदना कम ही पसंद करते है
बाइट - 03 दिलीप कुमार ,विक्रेता
- दीपक टले अंधेरा की कहावत तो अपने बहुत बार सुनी होंगी मगर इसका चरितार्थ भी आपके सामने है क्यों न अब हम सब मिलकर एक पहल करते हुए संकल्पित होकर देशी मिट्टी के दीपक से ही अपने घरों को रौशन करने का फैसला ले जिससे पर्यावरण के प्रति तो हमारा समर्पण रहेगा ही साथी ही मिट्टी को आकार देने वालो के चहेरे पर भी मुस्कान होगी और उनकी दीवाली भी जगमग हो सकेगीConclusion:दीपक टले अंधेरा की कहावत तो अपने बहुत बार सुनी होंगी मगर इसका चरितार्थ भी आपके सामने है क्यों न अब हम सब मिलकर एक पहल करते हुए संकल्पित होकर देशी मिट्टी के दीपक से ही अपने घरों को रौशन करने का फैसला ले जिससे पर्यावरण के प्रति तो हमारा समर्पण रहेगा ही साथी ही मिट्टी को आकार देने वालो के चहेरे पर भी मुस्कान होगी और उनकी दीवाली भी जगमग हो सकेगी
Last Updated : Oct 18, 2019, 3:25 PM IST