नरसिंहपुर। मिक्सी की चमक ने रसोई का परंपरागत हिस्सा रहे सिलबट्टे को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. यही वह कारण है कि पत्थर को सिलबट्टे के रूप में ढालने वाले शिल्पकारों के बुरे दिन आ गए हैं. दिन-रात एक करके पूरी मेहनत करने वाले इन कारीगरों को मेहनत के एक चौथाई हिस्से का भी लाभ नहीं मिलता.
एक सिलबट्टा बनाने में करीगरों को कई घंटों तक एक पत्थर को तराशना पड़ता है, लेकिन आधुनिकता की मार ने इनकी कला पर सितम बरपाया है. सागर से नरसिंहपुर सिलबट्टा बेचने आई शिल्पकार महिमा बाई बताती हैं कि इस काम में अब लाभ बिल्कुल नहीं है. वह अपने सिलबट्टे की चटनी के टेस्ट की तारीफ करती हैं, लेकिन जिस चटनी को बनाने में मिक्सी से 5 मिनट लगते हैं, वह काम कोई भी सिलबट्टे पर अधिक समय खर्च करके नहीं करना चाहता.
पुरातत्व विशेषज्ञ हैं कि पत्थर के सिलबट्टों का चलन बहुत पुराना है. हजारों सालों से नर्मदांचल में पत्थरों के औजारों से मसाले और चटनी बनाने का काम किया जा रहा है, लेकिन इस परपरांगत उद्योग के प्रति उदासीनता और आधुनिकता की मार का ही असर है कि इन शिल्पियों के परिवार अब सड़क पर अभावों भरी जिंदगी बिताने को मजबूर हैं.